June 15, 2012

क्या गरीब आदमी को उसके किये अपराध की सजा नहीं मिलनी चाहिए - - - - -mangopeople


                   विषय को समझने के लिए पहले अपने साथ हुए किस्से को बताती हूं | दो दिन पहले एक टैक्सी ( २०- २२ साल पुरानी फियट उन्हें पता होता है कि उनकी गाड़ी का तो कुछ ख़राब होगा नहीं बाकि साथ चलने वालो को अपनी गाड़ी की फिक्र है तो वो अपनी गाड़ी बजाये वो तो जैसे चाहेगा वैसे अपनी गाड़ी कही भी घुसायेगा )  वाले ने मेरी गाड़ी में बगल से टक्कर मारते हुए मेरी गाड़ी का बम्पर तोड़ते हुए आगे निकल गया चुकि सड़क पर भयंकर ट्रैफिक था और गाड़िया बस रेंगे भर रही थी इसलिए वो भाग नहीं सका , मैंने कुछ आगे जा कर ही उसे पकड़ लिया | उस समय यदि वो अपनी गलती मान लेता तो शायद मै उसे जाने देती किन्तु वो गलती मानने के बजाये कहने लग की आप की भी गलती है मैंने उसे जब उसकी गलती बताई तो कहने लग चलिये थाने चलिये | थाने चलने की बात वो ऐसे कर रहा था जैसे की गलती मेरी थी और वो मुझे धमकी दे रहा था | उसे अच्छे से अंदाजा था की एक तो मै महिला हूं उस पर से मेरे साथ गाड़ी में सो रही बच्ची भी थी , ये मेरा एरिया तो होगा नहीं और मै कहा उसे ले कर थाने जाउंगी | पर उसका अंदाजा गलत था वो मेरा ही घर का एरिया था और चार इमारतों के बाद मेरा घर था |  उसके इस अंदाज पर मेरा गुस्सा और बढ़ा गया मैंने तुरंत पतिदेव को घर से बुला लिया वो दो मिनट में वहा हाजिर हो गये और हमने पुलिस स्टेशन जा कर उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई ( वैसे उसका ये अंदाजा सही था कि मुझे सच में ही अपने ही क्षेत्र के पुलिस स्टेशन का पता नहीं पता था पति तो उसके साथ चले गये पर मुझे दो लोगों से पुलिस स्टेशन का पता पूछना पड़ा जो बस मेरे घर से कुछ ही दूरी पर था ) | जब मैंने उसकी टैक्सी को रोका तो अच्छा खासा मजमा भी जुट गया था और कई आवाजे यही आ रही थी कि " मारो साले को ये सब ऐसे ही होते है कही भी टैक्सी घुसा देते है , तो एक बूढी सी महिला ने मुझसे कहा की अरे अरे इसे मारो मत बेचारा गरीब है जाने दो मैंने उन्हें कहा की अभी तक तो मैंने इसे कोई गाली भी नहीं दी है मै मार कहा रही हूं ये गरीब है तो ठीक है पर जो मेरी कार को बनवाने में हजारो का खर्च आयेगा उसे कौन देगा ( बिमा तो गाड़ी का होता है और उसे क्लेम करने के लिए और टूटे सामानों का कुछ प्रतिशत हमें ही देना होता है साथ ही क्लेम करते ही अगले साल बिमा पर मिलने वाली छुट भी हाथ से चली जाती है तो बिमा के बाद भी अपना खर्च हजारो में पहुँच ही जाता है )
                   ये मेरा किस्सा है अब जरा कल रेखा जी की लिखी इस पोस्ट को पढ़िये जिसमे वो बता रही है की किस तरह जब डाकिये ने उन्हें टेलीग्राम नहीं दिया पैसा ना देने पर और उन्होंने उसकी शिकायत कर दी जब विभागीय कार्यवाही की बारी आई तो उन्होंने उस पर दया करके उसे पहचानने से इनकार कर दिया ताकि उसकी नौकरी बच जाये किन्तु जब उन्हें दूसरे मोहल्ले में वही डाकिया मिला तो वो सुधरने के बजाये उनसे बदल लेने लग उन्हें कभी उनके पत्र नहीं दिया यहाँ तक की उनके पिता की मृत्यु पर भाई द्वारा भेजा टेलीग्राम तक नहीं दिया जिसकी वजह से वो अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई |

                                                       हमारी भारतीय संस्कृति में गरीबो के प्रति दया दिखाने और लोगों को माफ़ कर देने को बहुत अच्छा माना जाता है किन्तु अक्सर देखा गया है की गलती के लिए दया दिखाने और माफ़ी देने से ज्यादातर लोग सुधरते नहीं है बल्कि वो उसे बहुत हल्के में लेते है और बार बार उसी गलती को दोहराते रहते है कई बार तो वो उसके लिए बदला भी लेते है जैसा की रेखा जी के केस में हुआ  | जब कभी कोई गरीब हमारा कोई नुकशान कर देता है तो लोग बार बार ये कहते है की अरे बेचारा गरीब है जाने दो वो क्या कर सकता है वो तो तुम्हारे नुकशान की भरपाई भी नहीं कर सकता है तो क्या फायदा जाने दो और हम सभी दया दिखा कर उन्हें छोड़ देते है, नतीजा ये होता है की वो उसे अपने लिए इसे अपने सुधरने के लिए अच्छा मौका मानने की जगह , अच्छी किस्मत की बच गया मान कर सुधरने के बजाये उस  पर ध्यान नहीं देते है और वैसे ही बने रहते है | किसी को भी सजा देने का अर्थ केवल पीडिता को न्याय देना ही नहीं होता है बल्कि गलती करने वाले को सबक भी सीखना होता है ताकि आगे से वो उस गलती को ना दोहराये और सजा भी इस तरह की कि उसे एक सबक मिले, पर वास्तव में होता क्या है शायद ही कोई भी छोटी मोटी टक्कर के लिए टैक्सी  वालो को लेकर थाने जाता हो ज्यादातर तो उसे वही दो चार हाथ मार कर जाने देते है क्योकि उन्हें भी पता है की टैक्सी वाले से उसे शायद ही कुछ मिले उलटे पुलिस के चक्कर में अपना खुद का दिमाग और समय ख़राब होगा |  इस केस में भी उसने मेरे पति को कहा की साहब मारना है तो मार लो अब थाने क्या चलते हो,  तो पति ने कहा  तुम्हे ही शौक था थाने जाने का ना पीछे जो आ रही है वो तुमको किसी भी हाल में छोड़ने वाली नहीं है | हमारे साथ ये तीसरा केस था इसके पहले भी दो बार पति ने वही बेचारा गरीब है क्या देगा जाने दो कह कर छोड़ दिया था | जिसमे एक बार तो एक बाईक वाले ने पीछे से आ कर सिग्नल पर खड़ी हमारी गाड़ी को जोरदार टक्कर दे मारी थी आफिस की जल्दी में पतिदेव ने उस समय बस उसका मोबाईल लिया और उसे बाद में काल करने को कह  चले आये थे मैंने जब मोबाइल देखा तो सर पिट लिया उसकी कीमत तो कोई हमें सौ रु भी ना देता वो क्या कॉल करेगा  खर्चा हमारे सर पर था | किन्तु उस मोबाइल को भी वो अपनी गरीबी का रोना रो कर बाद में मेरे पतिदेव से ले कर चला गया कहा बाइक उसकी नहीं मालिक की है और वो अभी अभी मुंबई आया है | उस समय भी मैंने पति से कहा था की तुम्हे कम से कम उसका मोबाइल नहीं लौटना था उसे एक सबक तो मिलता इस तरह तो वो कभी भी नहीं सुधरेगा  | यही कारण था की इस बार मैंने तय कर लिया था की इस तरह की कोई भी वारदात होती है तो मै उसे पुलिस तक जरुर ले कर जाउंगी और उस पर बाद में कोई कार्यवाही हो या ना हो ,कम से कम उन सब में ये डर तो बैठे की हो सकता है की सामने वाला मुझे बस मार कर ना छोड़े और सच में मेरे खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दे और मुझे पुलिस के चक्कर में पड़ना पड़े इसलिए आगे से सावधानी से गाड़ी चलाऊ | ये हमारी अ- व्यवस्था का ही नतीजा है की यहाँ पीड़ित ही पुलिस से ज्यादा डरता है अपराध करने वाले की जगह , अपराधी ताव में कहता है की चलो चलो ले चलो थाने जैसे वो हमें डरा रहा हो कि तुम में ही हिम्मत नहीं है पुलिस तक जाने की,  वो अपराधी पीड़ित को ही पुलिस का डर दिखाता है जैसा मेरे साथ हुआ बार बार टैक्सीवाला ही मुझे घमकी देने के अंदाज में पुलिस स्टेशन चलने को कहा रहा था वो भी तब जबकि गलती उसकी थी |
                                                         
              ज्यादातर  हमें कहा जाता है की छोटी छोटी बातो को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए या उसे बड़ा नहीं बनना चाहिए उसे भूल जाने में ही ठीक है , किन्तु ये रवैया सही नहीं है , जब हम दूसरो की छोटी छोटी गलतियों को भूलते है तो अक्सर हम बड़ी गलतियों को करने की या उसी गलती को बार बार करने की सामने वाले को प्रेरणा देते है | फिर ये बात तो मेरे समझ के बिल्कुल बाहर है की क्या किसी को उसके गरीब होने के कारण उसके किये गए अपराध के लिए कोई भी छुट दे देनी चाहिए | क्या अमीर या गरीब के किये गए अपराधो में फर्क हो जाता है किसी अमीर को माफ़ी देने की बात उसे छोड़ देने की बात तो कभी नहीं की जाती है ऐसा क्यों है | क्या गरीब होना आप के अपराध के प्रभावों को कम कर देता है बिल्कुल भी नहीं अपराध कोई भी करे उससे प्रभावित होने वाले पर इस बात से कोई भी फर्क नहीं पड़ता है तो फिर सजा में उसे छुट देने या उस पर दया दिखाने का भाव क्यों जगाया जाता है |  कई बार ये भी देखा है की जब कोई चोर या हत्यारा अपनी गरीबी का  दुख भरी कहानी सुना देता है अपनी कोई मजबूरी बता देता है तो लोगों के मन में तुरंत ही उसके प्रति दया भाव जाग जाती है और कहने लगते है की बेचारे ने मजबूरी में ये किया सजा देते समय उसकी मजबूरी को भी ध्यान में रख कर उसे छुट दी जानी चाहिए ( कानून की नजर में भले सब एक हो मै यहाँ आम लोगों के भावना की बात कर रही हूं ) क्या यही भाव हम किसी अमीर के लिए ला सकते है | याद कीजिये सत्यम के मालिक राजू ( यदि मेरी यादास्त सही है तो यही नाम था फ़िलहाल यही उदाहरन याद आ रहा है ) वो भी बोले की मैंने जो किया वो कंपनी और उसे से जुड़े हर व्यक्ति के भले के लिए किया और मेरे किये से शायद ही किसी को कोई नुकशान हुआ हो हा फायदा जरुर मेरे कर्मचारियों का हुआ है तो क्या उसके द्वारा किये गये अपराध पर भी हम वही दया के भाव मन में ला पाएंगे,  नहीं , शायद ही किसी के मन में दया आये हा गुस्सा जरुर बढ़ जाता है और हम और कड़ी सजा की बात करते है | हद तो तब हो जाती है की जब हम अमीर के जायज बातो पर भी अपराधियों सा व्यवहार करने लगाते है है और गरीब के अपराध को अपराध तक मानने से इंकार कर देते है |  मुकेश अम्बानी अपने पैसे से अपना शानदार अपनी हैसियत के हिसाबा से रहने लायक घर बनवाते है तो हजारो लोगो को बुरा लगता है , किन्तु उससे भी ज्यादा कीमती और हजारो गुना बड़ी सरकारी और निजी जमीनों पर लोग अवैध झोपड़े कब्ज़ा कर बना कर रहते है उसके प्रति हम सब दया का भाव अपनाने लगाते है  ऐसा क्यों है की किसी अमीर के किये छोटी सी छोटी गलती पर भी हम कड़ा रुख अपनाने की बात करते है पर गरीब की बात आते ही हम में दया आ जाती है | ना भूलिए की अमीरों को अपराध करने की आदत नहीं होती है वो भी बस उसी अपने फायदे के लालचा में अपराध करते है जिस लालचा में कोई अन्य गरीब करता है जब अपराध करने का कारण एक है तो समाज का रवैया अपराधियों के प्रति अलग अलग क्यों होता है | क्या ऐसा कर के हम कही ना कही अपराध को ही बढ़ावा नहीं दे रहे है क्या हमें छोटे अपराधो और बड़े अपराधो को दो दृष्टि से देखना चाहिए ( लो जी इतनी बार "क्या क्या " लिखने के बाद सतीश पंचम जी की क्यावाद पोस्ट की याद आ गई ) |
                                                                 मै ऐसा नहीं मानती हूँ की हमें अपराध के पीछे जो मजबूरी है उस पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए किन्तु एक आम सी गलतियों और अपराधो पर जिसके पीछे कोई मजबूरी नहीं बल्कि लापरवाही या लालच हो उसे तो कतई माफ़ नहीं किया जाना चाहिए चाहे वो कोई गरीबा करे या अमीर | गरीबी कभी भी किसी अपराधी या गलती करने वाले को मिलने वाली सजा में छुट का कारण नहीं हो सकती है | जब तक हम अपराधी के गरीब होने के कारण उसकी गलती को नजर अंदाज करने की आदत और गलत करने वालो को सजा देना की शुरुआत नहीं करेंगे ये समाज और व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी |
                                                कई बार सुना है की क्षमा और माफ़ी देने से इन्सान का कद बढ़ जाता है पर मै कभी भी इस को सही नहीं मानती हूँ नीजि जीवन में भी मै ये मानती हूँ की पहली गलती को माफ़ कर हम हमेसा दूसरी गलती हो बढ़ावा देते है मेरी छोटी बेटी ही क्यों ना हो किन्तु कोई ना कोई साकेंतिक ही सही सजा उसकी गलती पर जरुर देती हूँ जो उसे सबक जैसा लगे | अपनी गलती मान ले तो छोटी सजा या पहले ही मुझे आ कर बता दे तो सख्त लहजे में आगे ऐसा ना करने की चेतावनी ही उसके लिए काफी है | वो अभी भले ही इस बात को ना समझे पर बड़ी होने के साथ ही वो उसे समझाने लगेगी | वैसे मै उसे सजा क्या देती हूँ :) आज पूरे दिन तुम्हारा चैनल नहीं लगेगा बड़ी गलती पर दो चार दिन तक तुम अपना चैनल नहीं देख सकोगी क्या करे उसके लिए तो यही सजा है सो व्यक्ति को सजा वही दी जानी चाहिए जिसे वो सजा माने |


चलते चलते
               कुछ चीजो को लेकर समाज और लोग हमें पहले से इतना डरा देता है की हम डर की बात ना होने के बाद भी डरने लगते है | कुछ साल पहले मेरा मोबाईल घूम गया था , नये सिम कार्ड के लिए हमें पुलिस स्टेशन में जा कर कुछ एन ओ सी जैसा लेना पड़ता है पतिदेव को पुलिस स्टेशन भेजते मुझे डर लगा रहा था क्या करे पुलिस स्टेशन की छवि ही ऐसी बना दी गई थी | किन्तु इस बार ना जाने क्यों एक बार भी मुझे इस बात का डर नहीं लगा की मै महिला हो कर पुलिस स्टेशन जा रही हूँ वहा का माहौल भी फ़िल्मी पुलिस स्टेशनों से अलग एक आफिस की तरह का था जहा एक कमरे में चार आलग अलग काउंटर जैसा था बस सब खाकी यूनिफार्म में थे पहले पुलिस ने मेरी बात ध्यान से सुना फिर कहा बस १० मिनट लगेंगे आप के कागजो से नंबर नोट करना है फिर आ पा जा सकती है दूसरे ने मेरी रिपोर्ट लिखी यहाँ तक की उसे निर्देश दिया गया की हमारे साथ छोटी बच्ची है जल्दी किया जाये और जब मै हड़बड़ी में अपनी कर का नंबर ठीक से बता नहीं पाई ( डर नहीं लगा थोड़ी हडबडाहट थी क्योकि घटना का ठीक से ब्यौरा देना था जो उसकी मराठी और मेरी हिंदी से गड़बड़ हो जा रही थी ) तो उसने आर सी बुक से देख खुद ही नोट कर लिया , सब ने ठीक से अच्छे से बात सुनी और अच्छे से बात की भी |  नहीं नहीं कोई जल्द बाजी ना कीजिये  आप लोग पुलिस स्टेशन के बारे में अपने कोई राय बनाने में क्योकि अभी घटना के बस दो दिन ही हुए है अभी आगे क्या होगा मुझे भी नहीं पता है मै तो वापस नहीं जाने वाली हूँ पर उधर से क्या होगा पता नहीं क्या पता फिर से एक पोस्ट लिखू की ये मैंने क्यों गलती कर दी पुलिस स्टेशन जा कर :( और हा मेरे साथ अच्छा व्यवहार कर रहे पुलिस वालो का रुख जरा टैक्सी वाले के प्रति देखिये "क्यों तेरा बैच  कहा है ' " साहब जेब में है " थोडा तेज आवाज में  " तुझे बैच जेब में रखने के लिए मिलता है क्या,  बाहर निकाल टांगने नहीं आता है क्या " मेरी दया कुछ जागने लगी थी | रिपोर्ट लिखवाने से पहले पति से कहा की जरा उससे पूछो नुकशान की भरपाई कर दे तो क्या रिपोर्ट लिखवाऊ जाने दो और पतिदेव ने क्या कहा वही  " अरे वो इतना गरीब है वो क्या देगा तुम देख लो क्या करना है " |  ऊफ ऊफ ऊफ हम सब ऐसे ही है पर हमें बदलना होगा रिपोर्ट तो मैंने लिखवा ही दी दिल पर बस छोटा सा कंकण रखना पड़ा |