October 17, 2012

जेम्स बॉन्ड अभिनेत्रिया भी भई नारीवादी --------mangopeople





एक खबर पढ़ी की जेम्स बांड फिल्मो में काम करने वाली अभिनेत्रियों को " बॉन्ड गर्ल" कहा जाता है किन्तु 23 वे बॉन्ड फिल्म में काम कर रही हॉलीवुड अभिनेत्रीया  बेनेरिस  मार्लो  और निओमी  हैरिस को इस नाम से परहेज है उनका मानना है उन्हें "बॉड गर्ल"  नहीं "वुमन"  कहा जाये । असल में  इन फिल्मो में काम कर रही अभिनेत्रियो को केवल एक  सेक्स बम की तरह पेश किया जाता है जबकि ऐसा नहीं है , महिला किरदार भी बॉड की तरह ही चालक समझदार और कई मौको पर एक्शन भी करती है और बॉड की जान तक बचाती है , उसके मुकाबले जिस्म दिखाने के दृश्य तो काफी कम होते है किन्तु उन्हें अपना खुबसूरत बदन दिखने वाली किशोरी की तरह सेक्स बम ही बना कर प्रचारिक किया जाता है जो गलत है  । इसी बात का विरोध किया जा रहा है और ये विरोध भी कोई पहला नहीं है जहा बॉड फिल्म में नायिका बनने के लिए होड़ मची रहती है वही कुछ अभिनेत्रियों ने इस किरदार को करने से ही मना भी किया है .क्योंकि उनका मानना है की जेम्स बॉड को महिलाओं के जज्बातों की क़द्र नहीं हैं वह अपने काम निकालने के लिए उन्हें मोहरा बनाता हैं और फिर उनसे किनारा कर लेता हैं यहाँ तक की वह अलग अलग देशों में जाता है और अपने अहम् की संतुष्टी के लिए कई महिलाओं के साथ बेड साझा करता हैं.( राजन जी के ब्लॉग से ) । अमेरिका जैसे देशो में भी महिला अभिनेत्रिया अपने सही स्थान की मांग कर रही है ।  भारत के लिए भी ये नया नहीं है अभी हांल में भी विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर ने खूब पैसा कमाया तो पत्रकार उनसे पुछने लगे की क्या अब उन्हें पैसा कमाने वाले खान अभिनेताओ की तरह विद्या खान कहा जाये तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया की क्यों विद्या खान क्यों किया जाये शाहरुख , आमिर और सलमान बालन क्यों न कर दिया जाये ( नीजि रूप से भी मुझे उनका ये जवाब बहुत ही पसंद आया ) । लिजिये अब तो अभिनेत्रिया भी नारीवादी बन गई वो भी किस देश की जहा पर ज़माने से महिलाओ के बराबरी की बात की जा रही है किन्तु विरले ही कोई पुरुष उनके किये को सम्मान की दृष्टि से देखता हो और बराबरी का बात करता हो । ऐसा नहीं है की कुछ उदाहरन है ही नहीं , आप को याद होगा एक अमेरिकी टीवी सीरियल " फ्रेंड्स " आता था पूरी दुनिया में काफी प्रसिद्द था उसमे 6 दोस्तों की कहानी थी जिसमे 3 महिला और 3 पुरुष थे जब वो धारावाहिक काफी प्रसिद्द हो गया तो महिला कलाकारों ने मांग की की उन्हें भी उतना ही पैसा दिया जाये जितना की पुरुष कलाकारों को दिया जाता है क्योकि उस धारावाहिक की सफलता में उनका बराबर का हाथ है , उनके उस कदम पर धारावाहिक के तीनो पुरुष कलाकार अपना अहम् सामने रखने  की जगह उनके साथ खड़े हो गए और बराबर पैसे देने की मांग करते हुए काम करने से इंकार कर दिया , नतीजा उन दिन से सभी को एक सामान पैसे दिए जाने लगे ( मतलब की महिलाओ के पैसे बढा  दिए गए पुरुषो के कम नहीं किये गए )। अन्तराष्ट्रीय महिला टेनिस खिलाडी भी महिला और पुरुषो को पुरुस्कारों  में मिलने वाले पैसो में बराबरी की बात करती रही है , उनकी बात को ये कह कर ख़ारिज कर दिया जाता रहा है की पुरुष 5 सेट मैच खेलते है और महिलाए 3 सेट ( ये भी कोई तर्क हुआ ) महिला खिलाडियों का   कहना है की लोग अच्छा खेल देखेने आते है न की यहाँ समय बिताने क्या पुरुषो के जो मैच तीन  सेट में ही ख़त्म हो जाते है तो उन्हें कम पैसे दिए जायेंगे । किन्तु बराबरी की ये सभी मांगों को नारीवादी सोच कह कर ख़ारिज किया जाता रहा है ।
    
                     समझ नहीं आता की नारी जब भी अपनी ,अपने अधिकारों ,बराबरी की बात करती  है तो उसे नारीवादी कह कर ख़ारिज क्यों कर दिया जाता है , किसी पुरुष की बातो को तो पुरुषवादी कह कर नहीं ख़ारिज किया जाता है यहाँ तक की कोई पुरुष नारी के बारे में लिखे तो उसे भी नारीवादी कह कर ख़ारिज नहीं किया जाता है बल्कि उसे तब संवेदनशील कह कर प्रसंसा की जाती है । कुछ दिन पहले देवेन्द्र जी के ब्लॉग पर मुक्ति जी के फेसबुक पर विवाह को लेकर एक टिप्पणी पढ़ी  " कल एक ब्लोगर और फेसबुकिया मित्र ने मुझे ये सलाह दी की मै शादी कर लू , तो मेरा आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगा :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा , तब से मै स्त्रियों द्वारा  " सुरक्षा " के लिए  चुकाये जाने वाले कीमत के विषय में विचार विमर्श कर रही हूँ और पुरुषो के पास ऐसा कोई विकल्प न होने के मजबूरी के विषय में भी :) इससे पहले मुक्ति जी के मित्र की बात का ही जवाब दे दूँ , जिस समाज में हम रहते है वहां आज भी स्त्रिया खुद से विवाह नहीं करती है बल्कि उनका विवाह किया जाता है पिता, भाई आदि आदि के द्वारा और कब करना है किससे करना है कैसे करना है आदि आदि का निर्णय भी वही करते है तो सलाह किस पिता भाई को ऐसी देने चाहिए की ,  पिता जी भाई जी अपने बहन बेटी का झट से विवाह कर दे ताकि उसकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का "बोझ" ( यदि वो ऐसा समझते  हो तो ) आप पर से उतर जाये , अब वो भाई और पिता उन्हें कैसे जवाब देते है ये तो इस बात पर निर्भर होगा की वो अपनी बेटी या बहन का विवाह क्या सोच कर करते है ( क्या आप को इसमे खाप पंचायत वाली सोच नहीं दिख रही है की बेटियों का बलत्कार हो रहा है तो उनका विवाह 15 साल में ही कर दो ताकि आप से उसकी सुरक्षा का झंझट छूटे और बला किसी और पर जाये )  स्त्री तो यहाँ कोई मुद्दा ही नहीं है क्योकि यदि मात्र सामजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए विवाह किये जाते है तो वो सब कुछ तो स्त्री को बिना कुछ भी किये अपने पिता के घर में मिल ही रही है उसके लिए उसे विवाह की क्या जरुरत है सोचना तो उस पिता को है की क्या वो अपनी जन्म दी हुई बेटी को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा नहीं दे सकता है उनका लालन पालना जीवन भर नहीं कर सकता है , और यदि  ये सलाह किसी स्त्री को दी जा है की वो शादी कर ले , मतलब की वो अपने विवाह के लिए फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है , तो ये बात भी ध्यान में रखनी चाहिए की हमारे समाज में जो स्त्री अपने विवाह के फैसले लेने के लिए स्वतंत्र  है उसे किसी और से सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की जरुरत नहीं है ।

                                    
                                                              दुनिया में सत्ता पाने उसे बनाये रखने का सबसे कारगर तरीका है डर पैदा करना , धर्म राजनीति से लेकर पुरुष भी स्त्री पर अपनी  सत्ता,  डर दिखा कर ही काबिज रखता है , जैसे की विवाह को सुरक्षा का नाम दे कर उसके अन्दर स्त्री पर सत्ता सिन रहना , अब जब की स्त्री को ये बात  समझ में आ रही है कि  एक तो विवाह मात्र सुरक्षा नहीं है दुसरे ये की अब कम से कम हम अपनी सामजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए किसी और पर निर्भर नहीं है , वैसे ये बात भी सोचने की है की जिस विवाह को स्त्री के लिए हर तरीके से सुरक्षा बताया गया वहां  वो सारी सुरक्षा उसे मिलती हो ऐसा भी नहीं है , घरेलु हिंसा के सामने आते मामले बता रहे है की वो शारीरिक प्रताड़ना से अपने ही घर और घरवालो से सुरक्षित नहीं है , यहाँ तक की महिलाए अपने ही घर में बलात्कार से भी सुरक्षित नहीं है , निम्न वर्ग, खेती बड़ी वाले गांवो, मुंबई जैसे शहरों में बड़ी संख्या में महिलाए आर्थिक रूप से घर में बराबर का सहयोग कर रही है तभी घर चल रहा है , फिर किस बात की सुरक्षा ये विवाह उन्हें प्रदान कर रहा है , फिर वो क्यों उस विवाह को अपनाये जो उन्हें मात्र गुलाम बनाने और अपनी जरूरतों को पूरा करने की सोच के साथ पुरुष करता है ( यहाँ मै सभी पुरुषो की बात नहीं कर रही हूँ पर जिनके विचार ऐसे है उनके लिए , किन्तु अफसोस की ज्यादातर के ऐसी ही है,  चाहे जानकर या चाहे अनजाने में  ) । अब जब नारी विवाह के "अर्थो" को बदलने की बात कर रही है तो कुछ पुरुषो के द्वारा एक नया डर  पैदा किया जा रहा है , लो जी नारी विवाह नहीं करेगी तो बच्चे कैसे होंगे  समाज कैसे चलेगा , दुनिया नष्ट हो जाएगी , समाज में आराजकता फ़ैल जाएगी ( एक स्त्री के लिए समाज हमेसा से  अराजक ही रहा है है गोवाहाटी कांड से लेकर हजारो उदाहरण पड़े है  )परिवार का नमो निशान मिट जायेगा और न जाने क्या क्या बकवास । कितनी अजीब बात है की स्त्री सिर्फ ये कह रही है की आज विवाह के मायने बदलने चाहिए , विवाह एक तरफ़ा समझौतों पर नहीं हो , बल्कि दो लोगो के आपसी समझ पर होनी चाहिए , विवाह में जब दो पक्ष होते है और कोई एक पक्ष के बिना विवाह नहीं हो सकता है तो फिर दोनों का स्थान भी बराबर होना चाहिए , एक विवाह में जितना महत्व पुरुष के शरीर की जरूरतों को दिया जाता है उतना ही महत्व स्त्री के मन भावनाओ को भी दिया जाना चाहिए , साथ ही माँ कब बनना है और कितने बच्चो की माँ बनना है इसका निर्णय भी वो खुद करेगी , अपवाद स्वरुप ही कोई महिला ये कहती हो की उसे कभी भी माँ नहीं बनना  है , साफ है की वो बस इतना चाहती है की उसे अब विवाह के लिए पति परमेश्वर की नहीं "जीवन साथी" की जरुरत है ( वैसे उम्मीद है की लोग "जीवन साथी" का मतलब तो समझते होंगे ) । किन्तु शोर मचाया जा रहा है की लो ये नारीवादिया दुनिया ख़त्म करने पर तुली हुई है  महिलाए विवाह की नहीं करना चाहती है और न ही बच्चे को जन्म देना चाहती है , हा ये ठीक है की आज विवाह न करने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ रही है क्योकि समस्या वही है की विवाह करने के लिए पति तो हजार मिल रहे है किन्तु कोई जीवन साथी नहीं मिल रहा है यदि वो विवाह नहीं कर रही है तो उसका सबसे बड़ा करना है की विवाह करने के लिए उन्हें कोई साथी ही नहीं मिल रहा है । अब जबकि वो आर्थिक और सामाजिक रूप से किसी और पर निर्भर नहीं है तो  वो पारम्परिक विवाह के उस रूप से बाहर आ चुकी है और विवाह के नए मयानो के साथ विवाह करना चाह  रही है किन्तु जिस रफ़्तार से स्त्री बदल रही है उस रफ़्तार से पुरुष नहीं बदल रहे है , ये बिलकुल ठीक बात है की आज विवाह के पारम्परिक सोच से पुरुष भी बाहर आ रहा है और वो भी मात्र  पत्नी की जगह हर कदम पर उसके साथ देने वाली जीवन संगनी की चाह रखता है ( कई बार उन्हें भी अपने लिए साथी खोजने में परेशानी होती है किन्तु शायद वो अपनी जरूरतों के आगे झुक जाते है और हार मान कर अंत में जो मिल जाये उसी से विवाह कर लेते है शायद कुछ महिलाए ये समझौते नहीं कर रही है इसलिए वो या तो देर से विवाह करती है या न करने का ही निर्णय ले लेती है , वैसे अपवाद हर जगह होते है  ) कुछ स्त्रियों के विवाह न करने से दुनिया नहीं ख़त्म होने वाली है और न ही समाज में आराजकता आने वाली है यदि आराजकता आज समाज में है और कभी ये बढ़ी तो उसका  कारण  पुरुष का चारित्रिक पतन होगा कोई स्त्री का विवाह न करना नहीं होगा।

                                                                                  दुख इस बात पर नहीं होता है की कुछ सिरफिरे दिमाग अपने चात्रित्रो के कारण  बेमतलब की चिल्ल पो करते है और चीजो को गलत ढंग से पेश कर लोगो को मुर्ख बनाने या डराने का काम कर रहे है , दुःख  इस बात का होता है की कुछ समझदार बिना बात को समझे उनकी बातो का समर्थन करने लगते है । विवाह एक बहुत ही नीजि सोच है हर व्यक्ति का अपना विचार होता है हर व्यक्ति के विवाह करने और न करने के अपने कारण  हो सकते है हमें उसमे हस्तक्षेप करने की या ये कहने की कोई आवश्यकता नहीं है की उनके लिए क्या सही या गलत है , कल को यदि वो जबरजस्ती विवाह कर लेते है और बाद में परिणाम तलाक होता है तो दो जिन्दगिया बर्बाद होती है उसका जिम्मेदार कौन होगा , क्या समाज इस बात से अच्छा बना रहेगा जिसमे ढेर सारे बेमेल, बे-मन से बने विवाह हो और वो सारा जीवन कुढ़ते हुए लड़ते हुए घुट घुट कर बिताये , क्या ऐसे विवाह वाले समाज बहुत अच्छे होंगे , एक बार कल्पना कीजिये की इस समाज में जन्म लेने वाले बच्चे कैसे होंगे , उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा । इसलिए जरुरी ये है की समय के साथ बदला जाये आज की जरूरतों को समझा जाये बदल रहे समाज के साथ लोग भी बदले और ये बात समझ ले की नारी भी बदल रही है बदल गई है और उसी के हिसाब से उसके आस पास की चीजो को भी बदलना होगा , और पुरुष को तो सबसे ज्यादा । ये बदलाव बहुत कठिन नहीं है बस आप स्त्री की जगह ये सोचिये की मेरी छोटी बहन या बेटी का मामला है देखिये ये  बदलवा आप में खुद ब खुद आ जायेगा , और बदलाव आ भी रहा है देखा है न जाने कितने ही पिताओ को जो अपनी बेटी के लिए समाज से पंगे लेते है , मुंह उठाये किसी से भी बेटी का विवाह नहीं कर देते है , कितने ही लड़को को इंकार कर देते है , सीना फुला कर बताते है की उनकी बेटी कितनी पढ़ी लिखी है और उसका वेतन कितना है , आज पिता बताते है की उन्हें कैसे वर की तलास है अपनी बेटी के लिए , बस ऐसे पिताओ  की संख्या कम है । किन्तु जैसे ही ये पुरुष पिता से पति के रूप में आता है इसकी भाषा बोली और सोच दोनों ही बदल जाती है इसलिए अब जरुरी है की पिता के बाद भावी पतियों की सोच में भी बदलाव आये नहीं तो वो सदा भावी पति ही बन कर रह जायेंगे ,क्योकि स्त्री को अपनी जरूरतों और भावनाओ को दबाना आता है वो उन्हें दबा कर विवाह न करने का तो निर्णय आसानी से ले लेगी और उसे निभा भी लेगी किन्तु किसी पुरुष के लिए ये करना मुश्किल होगा इसलिए नारी को ये बताने के बजाये की वो क्या करे और न करे अपने आप को बदलिए अपनी सोच को बदलिए , वरना हर स्त्री समाज की और लोगो की परवाह करना बिलकुल भी बंद कर देगी क्योकि अब घरो में बेटिया नहीं राजकुमारिया जन्म लेती है और याद रखिये की  राजकुमारिया कपडे नहीं धोती :)।



चलते चलते  

                    एक हमारा देश है जहा महिलाओ से जुड़ा शायद ही कोई मुद्दा कभी भी चुनावी मुद्दा बनता हो और एक अमेरिका है , राष्ट्रपति का चुनाव दुबारा लड़ने जा रहे ओबामा ने अपने प्रतिद्वंदी से बहस करते हुए बताया की  उन्होंने महिलाओ और पुरुषो को सामान वेतन दिलाये है , जरा देखिये और सुनिए की ये मुद्दा वहां का चुनावी मुद्दा भी है और खुद ओबामा भी इस बात का जिक्र कर रहे है । असल में वहा पर महिलाए वोट करती है मतलब अपनी सोच समझ के हिसाब से,  इसलिए वो भी वोटर है , जबकि भारत में महिलाए वोट देती है किन्तु वोटर नहीं है मतलब की ज्यादातर महिलाए अपने घर के पुरुष सदस्यों के कहने पर ही वोट दे देती है या उनकी बाते ही सुन कर उसी से प्रभावित हो कर वोट दे दिया , राजनीति में वो रूचि नहीं लेती है और अपना दिमाग नहीं लगाती है ज्यादा से ज्यादा सिलेंडर महंगाई को ले कर हाय तौबा मचा दिया बस , तो जरा अपनी वोट की शक्ति पहचानिए और वोटर बनिये।


70 comments:

  1. अपनी सोच को बदलिए , वरना हर स्त्री समाज की और लोगो की परवाह करना बिलकुल भी बंद कर देगी क्योकि अब घरो में बेटिया नहीं राजकुमारिया जन्म लेती है और याद रखिये की राजकुमारिया कपडे नहीं धोती :)।

    बिलकुल सच ..बहुत हो गया संस्कृति, लाज, परम्परा के नाम पर स्त्रियों के साथ मन माना व्यवहार. समय अब बदलने लगा है.अब अपनी जिंदगी के फैसले स्त्री स्वंम करती है.

    ReplyDelete
    Replies
    1. किन्तु कुछ लोगो को ये बात समझ में नहीं आ रही है ।

      Delete
  2. अंशुमाला जी,
    बाकी बातों पर कमेन्ट बाद में क्योंकि अभी आपकी पूरी पोस्ट बढ़ी नहीं है।मैंने बॉण्ड के विषय में ये कहा था कि महिलाएँ या नारीवादी महिलाएँ ये बात केवल बोण्ड के बारे में क्यों उठा रही हैं कि वह एक महिला विरोधी चरित्र है और उनके जज्बातो की कद्र नही करता जबकि ये महिलाएँ केवल प्रेम की वजह से बॉण्ड के पास नही आती बल्कि कुछ समय के लिए या तो आकर्षित होकर आती है या उसका राज जानने के लिए या उसके मिशन को फैल करने के लिए अपने जिस्म का इस्तेमाल करती हैं जेम्स बोण्ड भी जानता है कि यह कोई प्यार व्यार का मामला नहीं है और वह हिरोइन भी।फिर इसमे जज्बातो से खेलने वाली बात कहाँ से आ गई?हाँ केसिनो रॉयल में जरूर सच्चा प्यार दिखाया गया था लेकिन बॉण्ड भी उस लडकी से प्रेम करता है और उसे धोखा नहीं देता।बॉण्ड सीरिज में यह मेरी फेवरेट हैं।
    विद्या बालन वाले उदाहरण के बारे में यही कहूँगा कि महिलाओ की तुलना पुरुषो से इसलिए की जाती है कि कई क्षेत्रो में अब तक बस पुरुषों का ही दबदबा था अब महिलाएँ वहाँ पहुंचने लगी है तो कहा जाने लगा है कि पुरुषो की नकल कर रही है।

    ReplyDelete
    Replies


    1. राजन जी

      मैंने आप की पोस्ट से वो लाईन इसलिए उठाई है की बॉड के साथ काम करने के लिए जहा कई अभिनेत्रियों में होड़ होती है वहां कुछ ऐसी भी अभिनेत्रिया है जो उसके साथ काम नहीं करना चाहती है क्योकि उनकी सोच ऐसी है ,वही नारीवादी वाली , निश्चित रूप से वो उस फिल्म की नायिका की बात कर रही है, दुसरे बाकि अभिनेत्रिया तो काम कर रही ही है उनके विचार ऐसे नहीं है वो बस काम करना चाहती है , जैसे की समाज में बहुत सी महिलाए इस बात को सोचती ही नहीं है की महिलाओ का भी मान सम्मान और सोच होती है । पहले की फिल्मो में माँ का किरदार और आज की फिल्मो में माँ के किरदार को बदलते देखा है ना जो भूमिका निरूपा राय निभाती आ रही है वही भूमिका कभी राखी माँ के रूप में नहीं निभाती कितनी ही अभिनेत्रिय रोने धोने वाले रोल नहीं करती थी या आज भी कितनी ही अभिनेत्रिय किसी बड़ी फिल्म में शो पिस बन कर या आयटम नंबर नहीं करती है , सभी का अपना सोच है मै वही बता रही हूँ । उन सब का सम्मान करना चाहिए न की महज नारीवादी है कह कर ख़ारिज करना चाहिए देखिएगा वो समय भी आएगा जब बॉड फिल्मो में नायिकाओ का रूप बदलेगा । जहा तक हिंदी फिल्मो की बात है तो कितनी ही फिल्मो के चलने में नायिकाओ का बराबर का हाथ होता है लेकिन उन्हें उसका क्रेडिट नहीं दिया जाता है सारा क्रेडिट अभिनेताओ को ही दिया जाता है विद्या कोई पहली अभिनेत्री नहीं है कई अभिनेत्रियों ने अपने दम पर फिल्मे चलाई है और अभिनेताओ से अच्छी कलाकार भी रही है पर हमारी हिंदी फिल्म उद्योग पूरी तरह से पुरुष मानसिकता वाली है जहा अभिनेत्रियों पर फिल्मे बनती ही कितनी है विद्या की कहानी फिल्म तो बिना हीरो बिना ग्लैमर के ही चली किन्तु उसके लिए भी उनको क्रेडिट बाटना पड़ा डायरेक्टर कहानीकार के साथ ये सही भी है, किन्तु वही कोई अभिनेता होता तो सारा क्रेडिट खुद ले जाता । जरा टीवी देखिये किसका दबदबा है वहा पर उसे देख कर लगता है की महिलाए पैसा नहीं कमा सकती है या महिला प्रधान चीज लोगो को पसंद ही नहीं आती है ।



      Delete
  3. Jara Isse bhi Padhe....


    खापों की नई थिअरी, चाउमिन से बढ़ रहे हैं रेप के मामले

    टाइम्स न्यूज नेटवर्क | Oct 16, 2012, 11.15AM IST

    चंडीगढ़।। क्या रेप का चाउमिन से कोई रिश्ता है? पड़ गए ना चक्कर में? अरे भाई चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं, इसमें सचाई है! यह हम नहीं, हरियाणा के खाप पंचायत वाले कह रहे हैं। राज्य के जींद जिले के एक खाप पंचायत ने प्रदेश में बढ़ती रेप की घटनाओं के पीछे चाउमिन को जिम्मेदार ठहराया है। इन्होंने इसके पीछे तर्क भी दिया है। इनका मानना है कि चाउमिन खाने से हार्मोन्स का संतुलन बिगड़ रहा है और यह युवकों को रेप के लिए भड़का रहा है। दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि पहले लड़के-लड़की अगर हाथ पकड़कर चलते थे तो उनके पैरंट्स उन्हें डांट देते थे, लेकिन अब तो सब खुल्लम-खुल्ला हो रहा है। इससे भी समाज पर बुरा असर पड़ रहा है। रेप की घटनाएं बढ़ रही हैं। उन्होंने मीडिया पर भी तंज कसा और कहा कि नेगेटिव खबरें दिखाने से समाज पर बुरा असर पड़ता है इसलिए मीडिया को ऐसा नहीं करना चाहिए। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मीडिया उनके राज्य की गलत तस्वीर पेश कर रहा है।

    जींद के छत्तर गांव के रहने वाले और थाऊ खाप के लीडर जीतेन्दर छत्तर ने कहा है कि जहां तक मेरा मानना है, चाऊमीन खाने से हार्मोनल संतुलन बिगड़ रहा है। इसलिए समाज में रेप की घटनाएं बढ़ रही हैं। यही वजह है कि बुजुर्ग हमेशा ज्यादा मिर्च मसाले वाले खाने से बचने के लिए कहते रहते हैं।

    पिछले हफ्ते प्रदेश के एक खाप नेता सूबे सिंह ने कहा था कि रेप की बढ़ती घटनाओं पर रोक के लिए लड़कियों की शादी की उम्र 18 से घटाकर 16 कर देनी चाहिए। सूबे सिंह के इस तर्क का नेता विपक्ष ओम प्रकाश चौटाला ने भी समर्थन किया था।

    इससे पहले कांग्रेसी नेता धर्मवीर गोयत ने कहा था कि रेप के 90 फीसदी मामलों में दोनों पक्षों की सहमती होती है। गोयत ने रेप के लिए महिलाओं को ही जिम्‍मेदार ठहराया था। उन्‍होंने कि 90 फीसदी लड़कियां मर्जी से सेक्‍स करना चाहती हैं, लेकिन उन्‍हें पता नहीं होता है कि आगे चल कर उनका गैंग रेप भी हो सकता है, क्‍योंकि कुछ वहशी इसी ताक में रहते हैं। गोयत के बयान से कांग्रेसी पार्टी सकते में आ गई थी। पूरे देश में पार्टी की निंदा हुई। पार्टी ने गोयत के बयान पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा था कि यह उनका अपना विचार हो सकता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ये सही खबर है या बस मजाक है :)

      Delete
  4. जिस नारी ने भी अपने और अपनी साथी नारियों के अधिकार की बात कही। अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठायी ,दोयम दर्जे के स्थान से इनकार कर दिया, उन सबको नारीवादी का तमगा देकर ,अपनी ही साथी बहनों से अलग करने की साजिश है, कुछ पुरुषों द्वारा। कई बार कोई पुरुष भी अगर नारी के पक्ष में बोले तो उसे भी नारीवादी कहने से नहीं चूकते ,ये लोग।

    नारी को घर के चौखट के अन्दर रखो, उस से सिर्फ घर और बच्चे संभालने की अपेक्षा रखो और जब जी चाहे अपना फ्रस्ट्रेशन निकालने का जरिया मानो।तभी उनकी पुरुष सत्ता बची रह सकती है और इसीलिए प्राण पण से इसे बचाने में लगे होते हैं वे लोग।

    पर बहुत धीरे ही सही,हवा का रुख बदल रहा है। सारे पुरुष इसे जीतनी जल्दी पहचान लें उसी में उनकी भलाई है .

    ReplyDelete
    Replies
    1. @ सारे पुरुष इसे जीतनी जल्दी पहचान लें उसी में उनकी भलाई है .
      सही बात तो यही है किन्तु उलटा महिलाओ को क्या करना है क्या नहीं करना है की नसीहते दी जाती है

      Delete
  5. अभी तो ’विद्या बालन जिंदाबाद’ ही कह रहा हूँ, इस पोस्ट पर दोबारा आना होगा और टूर भी लेना होगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. उम्मीद है फुर्सत मिलते ही पढेंगे , आप की ही टिप्पणी का इंतजार है :)

      Delete
    2. फ़िर से एक बार ’विद्या बालन जिंदाबाद’ ( फ़िलहाल इस पोस्ट के संदर्भ में ही, न कि हर बात के लिये) वरना कभी किसी मसले पर VB के बारे कुछ अलग राय प्रकट करने पर इस कमेंट का लिंक क्वोट किया जा सकता है :)
      जिस लेवल का आत्मविश्वास उनके इस कथन से दिखता है, वो वाकई प्रशंसनीय है। और इसकी हकदार वो अपनी अभिनय प्रतिभा और अभिव्यक्ति के तरीके के कारण से है न कि सिर्फ़ इसलिये कि वो महिला वर्ग से हैं।
      किसी भी जायज बात को नारीवादियों की डिमांड कहकर खारिज किया जाना गलत है। उतना ही गलत है हर बात के लिये और हर स्तर पर पुरुषों को जिम्मेदार ठहराया जाना। बराबरी के भुगतान, बराबरी के सम्मान की अपेक्षा रखने वालों को हानि की स्थिति में या किसी गलती में भी इस बराबरी वाले सिद्धांत का पालन करना चाहिये। नारी-पुरुष के विभेद की जगह इसे मनुष्य के रूप में देखा जाये तो वह एक ज्यादा आदर्श स्थिति होगी, जैसा कि क्षमा जी ने अपने कमेंट में कहा है। बाहर की दुनिया में ही नहीं, इस ब्लॉगजगत में भी प्रखर, मुखर नारियाँ अमूमन हर अपराध, हर उत्पीड़न, हर शोषण की सारी जिम्मेदारी समाज के पुरुष वर्ग पर ही डालती दिखी हैं। क्षमाजी के कमेंट का आपका प्रत्युत्तर..:)
      इसके अतिरिक्त एक पहलू ये भी है कि खारिज करने वाले\वालियाँ क्या वाकई में यह अथारिटी रखते भी हैं? किसी मुद्दे पर अपनी राय या दृष्टिकोण बताने और उसे खारिज करने में बहुत अंतर है।
      विवाह के बारे में प्रस्तुत विचारों से एकदम सहमत। शिक्षा के प्रसार से महिलायें निश्चित रूप से आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो रही हैं और एक स्वावलंबी मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन को अपनी स्वतंत्रानुसार बिताने के लिये ज्यादा योग्य है, यह फ़ैसला उसी पर छोड़ देना चाहिये। विवाह के प्रति अरुचि अब शायद दोनों ही जेंडर महसूस कर रहे हैं।
      कमेंट बेशक थोड़ा ऐसा-वैसा किया है लेकिन सोच में बदलाव हम भी ला रहे हैं। राय-सलाह अब ज्यादा नहीं देते हैं, शुभकामनायें दे देते हैं।

      Delete
    3. पहले VB :) की बारे में ये वही है जिसके बारे में हर जगह बहन जी टाईप अभिनेत्री का टैग चपका था उनकी साड़ियो और सलवार कुर्तो का मजाक बनाया जाता था उनके ज्यादा अंग प्रदर्शन न करने पर कहा जाता की वो हिंदी फिल्मो में ज्यादा टिक नहीं पाएंगी , अभिनय की कोई बात ही नहीं करता था , आखिर फिल्मो में अभिनेत्रियों को कम कपड़ो में कौन देखना चाहता है , अभिनेत्रियों को महज बदन दिखाने का सामान कौन समझता है , यही ब्लॉग जगत में पढ़ा जिन्हें उनकी डर्टी पिक्चर बड़ी पसंद आई थी उन्हें उनकी कहानी बकवास लगी , क्यों , मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है लोगो की नीजि पसंद है की वो फिल्मो में क्या देखने जाते है । रही बात हानि की तो वहा पर अभिनेत्रियों को पूरा क्रेडिट दिया जाता है , अब देखिये रानी की फिल्मो का क्रेडिट उन्हें मिल ही रहा है ना , प्रीटी , तब्बू, रानी, न जाने कितनी ही अच्छी अभिनेत्रिया उसी हानि का पूरा क्रेडिट ले कर चली गई ( लगभग ) कोई अभिनेता इतनी जल्दी गायब होता है इतनी सी फ्लाप फिल्मो के साथ

      @ हर शोषण की सारी जिम्मेदारी समाज के पुरुष वर्ग पर ही डालती दिखी हैं।

      @ क्षमाजी के कमेंट का आपका प्रत्युत्तर..:)

      और ऊपर पोस्ट में जो मैंने लिखा है की पिता बदल गए है और कुछ पुरुष भी बदल रहे है बस उनकी रफ़्तार कम है उसका क्या । जिस बात के लिए जो जिम्मेदार है वो तो कहना ही होगा , नारीवादी शब्द पुरुषो के ही बनाये गए है और कम से कम मुझे इस ब्लॉग जगत में नारीवादी कह कर संबोधित करने वाला पहला व्यक्ति तो एक पुरुष ही था , (उसके पहले तक तो मुझे भी नहीं पता था की मै नारीवादी हूँ या बन गई हूँ या अब लोग मेरे बारे में ऐसा सोचते है ) और वो आप है :)

      हा ये आप ने सही कहा की उन्हें कोई अथारिटी किसने दी है यही बात हम भी पूछते है ।

      दुबारा आ कर पोस्ट पढ़ने के लिए और विवाह पर मेरी बात से सहमती के लिए धन्यवाद ।

      Delete
    4. बहुत समय तक मुझे सारी हीरोईन(आजकल की भाषा में एक्टर) एक सी ही लगती थीं, जब तक उन्हें पहचानना शुरू किया तब तक फ़िल्मों से फ़ोकस ही हट गया, इसलिये आप जो कह रही हैं वो सब बिना बहस के मान रहा हूँ। ऐसा है तो यह सच में शोध का विषय है।
      एक पोस्ट पर आपके अकाट्य तर्कों के जवाब में आपको नारीवादी कहा था बल्कि पक्की नारीवादी कहा था, ध्यान है। संतोष इस बात का रहा कि जिस भावना से आपको कहा था,यही लगा था कि आपने उसे उसी स्पिरिट में लिया। वैसे सच तो ये है कि तब तक मुझे भी नहीं पता था(परिभाषा के रूप में या थ्योरी के रूप में आज भी नहीं पता) :)
      अंशुमाला जी, हमेशा से मेरा मानना ये रहा है कि शिक्षा का जितना प्रसार होगा और वंचित वर्ग (चाहे वह महिला हो या दलित हो या गरीब हो) जितना जल्दी आत्मनिर्भर होगा, उतना ही अच्छा रहेगा। लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि सामर्थ्य आने के बाद वही गलतियाँ तो नहीं दोहराई जा रहीं जिनको गलत मानकर विरोध करते थे। ब्लॉग से बाहर की दुनिया में देखें तो व्यवहार में अधिकतर ऐसा ही होता है। बदलाव आ रहा है लेकिन इस दुनिया में हमेशा से हर तरह के लोग रहे हैं, बदलाव एक सतत प्रक्रिया है और चलती रहेगी।
      दोबारा तो आना ही था, कहा जो था। और यहाँ अपनी राय भी जरूर देनी थी।
      बाई द वे, मजाक में कही बात क्या रुख ले सकती है, मेरी आगामी पोस्ट इसी हल्के-फ़ुल्के विषय पर केन्द्रित है, ये नारीवादी वाली बात मैं तो भूला ही बैठा था।

      Delete
    5. @ जिस भावना से आपको कहा था,यही लगा था कि आपने उसे उसी स्पिरिट में लिया।
      ओ हो ! आप तो जरा सी बात पर गंभीर हुए जा रहे है :) जिस तरह हम सभी अपने जीवन की हर पहली बात याद रखते है उसी तरह पहली बार आप ने कहा था इसलिए मुझे याद था , उसके बाद तो किस किस ने यही शब्द गाली बना कर मेरे लिए कहा याद भी नहीं , जब आप ने कहा था तो नए नए ब्लॉग जगत में थे , मात्र एक गृहणी थे और है भी कोई विचारक चिन्तक साहित्यकार टाईप के तो थे नहीं तो आप का नारीवादी कहना बड़ा गर्व टाईप का महसूस हुआ था , बाद में पता चला की लो लोगो ने तो इस शब्दों को और उसके अर्थो का मतलब ही बदल दिया है । मुझे नहीं पता की आप ने किस भावना से कहा था ( मुझे तो इतना याद है की आप ने मुझसे कहा था भावना को मै नहीं जानती ) पर हा मैंने उसे बड़ी गर्व के साथ लिया था तब , क्योकि हमें खामखाह के गंभीर होने और दुखी होने की आदत नहीं है क्योकि मेरे ब्लड ग्रुप बी पाजिटिव है :))


      Delete
    6. गंभीर सहवाग कहीं न हुये जा रहे हैं, गर्व के साथ ले सकें उसी भावना से कहा था।
      भावना को जानना इतना आसान है भी नहीं, कई बार लोग गलती खा जाते हैं:)

      Delete
    7. कम से कम इतना तो बताइये की ये भावना है कौन , ब्लॉगर है या कोई और, है तो स्त्री लिंग ही न फिर समझने में कौन परेशानी है :)और ये बताने के लिए धन्यवाद की गलती को भी खाया जा सकता है आगे से भूख लगने पर कुछ न मिला तो तो पिटारे से एक गलती निकल कर खा लुंगी , अब तो गलतियों का पिटारा भी खूब भरा रहेगा आप ने ही कहा की है "कीप मिस्टेकिंग" :)))

      Delete
    8. @ है तो स्त्री लिंग ही न फिर समझने में कौन परेशानी है -
      इसीलिये तो परेशानी है:)

      और ’कीप मिस्टेकिंग’ कहा नहीं है, बल्कि अपने ही पूछे सवाल के विकल्प दिये हैं कीप मिस्टेकिंग होना चाहिये या क्विट.

      Delete
    9. ह्म्म्मम्म ! तो आप भी इस बात में विश्वास रखते है की औरतो को समझाना बड़ा मुश्किल है और औरतो को तो भगवान शंकर भी नहीं समझ पाए और क्या क्या :) एक हल्की फुल्की पोस्ट बन गई दिमाग में अगली फुरसत में लिखती हूँ :)

      हमारी बिटिया रानी है उनसे कहती हूँ की ये काम मत करो नहीं तो चोट लग जाएगी या सामान टूट जायेगा तो कहती है करने दो न मम्मी गड़बड़ी हो गई तो बाद में सॉरी कह दूंगी न , और मै उन्हें समझाती हूँ की तुम्हारी सॉरी न तो तुम्हारी चोट ठीक करेगी और न टुटा सामान जोड़ेगी , दूसरी बात सॉरी का मतलब होता है की गलती अनजाने में हुई अब दुबारा न होगी :) । गलतियों की इस तरह मांफी मिलती रही और किसी भी विकल्प में दुबारा गलती करने की छुट रहेगी तो मान कर चलिए की गलतिया होती ही रहेंगी कभी बंद न होंगी , इसलिए मेरी निजी राय है की इस तरह का एक भी विकल्प गलत है ।

      Delete
    10. समझने-समझाने में मुश्किल होने के लिये सामने वाले का मनुष्य होना ही पर्याप्त है, जब उसे जेंडर में बाँटकर देखा जाये वही परेशानी है। दिमाग में अगली फ़ुरसत का इंतजार रहेगा :)
      सॉरी को बारंबार गलती करने की छूट के रूप में इस्तेमाल करना एक चालाकी ही होती है, मैं भी यही मानता हूँ। विकल्प न देना अलोकतांत्रिक है. विकल्प हों और उनमें से सर्वोत्तम चुना जाये तो इसमें दोनों पक्षों की बड़ाई है। मैसेज यही निकलता है कि कुछ थोपा नहीं गया और चुनने वाले ने विवेक का इस्तेमाल करके सही निर्णय लिया। अब विवेक बोले तो स्त्रीलिंग पुल्लिंग वाला नहीं बल्कि.....:)
      कुछ महीने पहले एक वर्कशाप अटैंड करने का मौका मिला था जिसमें इस बात पर स्ट्रेस दिया गया था कि ’ये न करो, वो न करो’ के बदले जो करना चाहिये उसे करने के लिये कहा जाये तो नतीजे ज्यादा अच्छे निकलते हैं। बिटिया रानी को किसी काम से मना करना है तो उसके साथ मिलकर कुछ दूसरा काम करने का आह्वान कर देखिये, अच्छा लगेगा।
      वैसे तो ये महिला वर्ग का मामला था और अपने फ़ैसले खुद उन्हें ही करने देने चाहिये थे लेकिन हम नहीं सुधरेंगे, दे दी फ़िर से सलाह:)

      Delete
    11. @ है तो स्त्री लिंग ही न फिर समझने में कौन परेशानी है -
      इसीलिये तो परेशानी है:)

      अब इसका मतलब क्या समझा जाये , यदि हमने भावना को ------आपकी गलत समझा है तो तो अभी के अभी माफ़ी क्योकि दुनिया गोल है वाले सिद्धांत पर मै ज्यादा विस्वास नहीं रखती :)

      दो विकल्प तो साफ थे पहली की अपनी गलती मानी जाये और दिल का बोझ हल्का कर मित्र को फिर से पा ले , दूसरी की अपनी गलती न मानी जाये और मित्र को खो दे , ये तीसरा विकल्प कहा से आया की अपनी गलती यदि मान ली है तो ठीक है फिर से गलतिया करने की छुट है , तीसरे की तो जरुरत ही नहीं है दुनिया चालाक लोगो से भरा है हर व्यक्ति तीसरा विकल्प ही चुनेगा , और मै कह रही हूँ की इस तीसरे को ही हटा देते है , हा अनजाने में फिर से गलती होना स्वीकार है । और यदि मै आप की कही बात की सही भावना को नहीं समझ पा रही हूँ और अपनी बात ठीक से नहीं समझा पा रही हूँ तो उसकी भी अभी के अभी माफ़ी क्योकि मेरी यादास्त तो अभी ही जवाब दे रही है 15 साल बाद पता नहीं क्या हो :))

      और सलाह के लिए धन्यवाद गांठ बांध ली गई है , हम माँये इसी के दुसरे रूप का प्रयोग करते है जब बच्चो को चोट लग जाये या वो किसी बात की जिद करे तो उनका ध्यान दूसरी चीजो की तरफ भटका दिया जाये , अब इसे इस रूप में भी आजमा के देखेंगे ।

      Delete
  6. फिल्मफेयर अवार्ड में भी पहले बेस्ट ऐक्टर और बेस्ट ऐक्ट्रेस के लिए पुरस्कार दिए जाते थे.. लेकिन यह 'बायस' भी खतम हुआ जब बेस्ट ऐक्टर मेल और फीमेल की कैटेगरी बनायी गयी.. वैसे मुझे तो तब खुशी होगी जब दोनों को मिलाकर अवार्ड दिया जाए.. यानि अलग क्यों?? अगर विद्या बालन ने अपने प्रतिद्वंद्वी पुरुष अभिनेता से बेहतर अदाकारी दिखाई है तो अवार्ड विद्या को ही मिलना चाहिए.. आफ्टर ऑल, साल की एक बेहतरीन फिल्म और एक ही कई कैटेगरी हो सकती है तो एक बेहतरीन ऐक्टर क्यों नहीं!!
    बाकी तो सब रापचिक है जी!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. काफी पहले शबाना आजमी में मुंह से सुना था की मै एक एक्टर हूँ एक्टरेस नहीं , तब पहली बार पता चला की ये एक्टरेस शब्द भी मस्टराईन , डाक्टराईन जैसे हम भारतीयों का बनाया शब्द है , धीरे धीरे अब लोगो को बात समझ में आ रही है और बदलाव भी आ रहे है , एक दिन निश्चित रूप से ऐसा भी आएगा जब नायिकप्रधान फिल्मे में वैसे ही बनेगी जैसे आज ज्यादातर नायक प्रधान बनती है और अभिनेत्रियो को भी उनके कम के लिए महत्व दिया जायेगा ,उस दिन ये एवार्ड भी एक हो जायेगा और विश्वास कीजिये कोई भी महिला इस बात का विरोध नहीं करेगी ( बस उसमे पुरुष राजनीति शामिल न हो ) हा पुरुष अपने अहम आगे ला सकते है , जैसा की शाहरुख़ ने मजाक के अंदाज में दर्शील सफारी के बाल कलाकार की जगह मुख्य अभिनेता के तौर पर नामेनेट करने का उन्होंने विरोध किया था , जब तक ये अहम् पुरुषो के मन में रहेगा ये संभव नहीं हो पायेगा फिल्म क्या किसी भी क्षेत्र में ये बराबरी संभव नहीं हो पायेगा ।

      Delete
  7. अंशुमाला जी,मैंने जिस बात से वहाँ असहमति जताई वही यहाँ भी करना जरूरी था अन्यथा आपके पाठकों को लगता कि मैं भी जेम्स बॉन्ड को महिला विरोधी मानता हूँ।और कोई बात नही।अब बात मुद्दे की कि यदि किसी नायिका को बोन्ड गर्ल कहलाने या बोल्ड सीन याकिसी और कारण के चलते बोन्ड सीरीज की फिल्म में काम नहीं करने की वजह बनती है तो ठीक है ,इसमें क्या परेशानी है आप उन्हे नारीवादी सोच वाली महिला कहें मैं सहमत हूँ ।लेकिन इससे ये कैसे साबित हो गया कि बाकी नायिकाओ की सोच उनसे कमतर है?जबकि कई बोन्ड नायिकाओ ने इन फिल्मो में काम किया ही इसलिए है कि इनमें बाकी हॉलीवुड फिल्म्स की तुलना में महिला किरदार बहुत सशक्त होते है जो कि मुझे भी सही लगता है।एक दो नायिकाओ के इंटरव्यू मैंने भी सुने है क्या करेंगी आप यदि आपको पता लगे कि बॉण्ड फिल्मो में काम करने वाली नायिकाएँ स्त्री पुरुष समानता,नारीवाद आदि के प्रश्नो पर वैसी ही सोच रखती हो या उनसे भी ज्यादा समझदार है जिन्होने बॉण्ड फिल्मस् में काम करने से मना किया हो?फिर ये जबरदस्ती का वर्गीकरण क्यों कि काम नहीं किया तो नारीवादी वर्ना बाकी तो 'बस ऐसे ही काम किए जा रही है और कुछ सोच ही नहीं सकती'?
    वाह!

    ReplyDelete
    Replies
    1. मैंने कब कहा की कोई किसी से कमतर है , मैंने नीजि सोच की बात की है की कुछ लोग दुसरे तरीके से सोचते है चीजो को कुछ अलग नजरिये से देखते है , अब जैसे आप ने उस पोस्ट में कहा था की पत्रिका में छपी फोटो में कोई बुराई नहीं है , जबकि मैंने नियत पर सवाल उठा कर उसी फोटो को गलत कहा दोनो ही नारी की बराबरी की बात कर रहे थे किन्तु नीजि विचार अलग थे , किरदार खुद पर सूट करने की बात की है जैसे की कहा है निरूपा राय वाला रोल राखी पर न तो सूट करेगा और नहीं उन्होंने किया , इससे निरुपराय कमतर नहीं हो जाती है और वर्गीकरन मैंने नहीं किया है मै तो वही सवाल उठा रही हूँ की ये वर्गीकरण क्यों किया जाता है नारीवादी कह कर उनकी बातो पर गौर करने की जगह ख़ारिज क्यों कर दिया जाता है ।

      Delete
  8. चलिए और स्पष्ट करता हूँ।एक नायिका ने जेम्स बॉण्ड की फिल्म में काम करने से इसलिए मना कर दिया कि मैं एक ऐसे नायक की नायिका नहीं बन सकती जिसे अपने मिशन की कामयाबी के रास्ते में आने वाले निर्दोषो की जान लेने की भी इजाजत हो फिर चाहे ये मिशन अमेरिका की भलाई के नाम पर ही क्यो न दिखाया जा रहा हो(ऐसे तो हजार वजह निकल आएंगी इन फिल्मो में काम न करने की)।अब ये उनकी सोच थी और मैं मानता हूँ कि उनका नजरिया सकारात्मक है लेकिन ये नहीं मानता की दूसरी नायिकाएँ जो बोन्ड फिल्मो में आई है उनकी सोच निजी जीवन मे मानवाधिकारो को लेकर इनसे अलग रही है या बाकियो को भी इसी वजह से बॉण्ड फिल्मो में काम करने से मना कर देना चाहिए नही तो वे संवेदनशील नहीं हैं।आयशा टाकिया ने कभी कहा कि मैं किसी फिल्म में कभी बोल्ड दृश्य नहीं दूंगी चाहे जो हो जाए मेरी तरह कईयो को उनके ये तेवर नारीवादी लग सकते हैं लेकिन वहीं विद्या बालन जैसी सशक्त अभिनेत्री बल्कि सशक्त महिला ऐसे कई दृश्य पहले ही कर चुकी हैं शायद उन्हें इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती।ये दोनों के नजरिए का फर्क, लेकिन मेरी नजर में दोनों अपनी अपनी जगह सही है।एक को सही और दूसरी को गलत क्यों मानें ?

    ReplyDelete
    Replies
    1. किसी नेता और राजनैतिक पार्टी में सौ बुराईया हो सकती है और सभी अपनी बात रख सकते है किन्तु इसका ये मतलब नहीं है की किसी एक की बात को भी किसी कारण ख़ारिज किया जाये , गौर सभी पर किया जा सकता है । अभी जैसे विधवा विलाप शब्द पर बहस हुई तो एक ब्लोगर ने कहा की वो भी ये शब्द लिख चुके है क्योकि ये प्रचलन में है किन्तु उसके इस बुरे पक्ष की और ध्यान नहीं गया अब आगे से वो ये शब्द प्रयोग नहीं करेंगे जबकि बहुत से है जिन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा अपने नीजि सोच है । कभी कभी हम किसी बात को काम को आराम से करते जाते है किन्तु अचानक से कोई और इस बात पर ध्यान दिलाता है की इस इस के ये पहलू भी है तब हमें पता चलता है । वैसे आप को बताऊ एक अमेरिकी महिला ने भारतीय 80 के दसक तक की हिंदी फिल्मो में महिला किरदारों पर रिसर्च किया था और बताया की फिल्मो में महिलाओ की स्थिति बहुत ही बुरी है हर समय उन्हें रोता धोता , मजबूर और पीड़ित दिखाया जाता है जिसका समाज पर बुरा असर होता है , हल में ही फिक्की की महिला सदस्यों ने एकता कपूर पर महिलाओ का गलत रूप दिखने और समाज पर उसका बुरा प्रभाव का आरोप लगा चुकी है ( नीजि रूप से मुझे भी उनके धारावाहिक बर्दास्त के बाहर है या तो वो बहुत ही अच्छी होंगी या बहुत ही बुरी दोनों ही किरदार पचते नहीं है )

      Delete
  9. नायिकाओ को क्रेडिट इसलिए नहीं मिलता क्योंकि फिल्मों मे कुछ अपवादो को छोडकर शुरु से उनकी भूमिका पुरुषो की तुलना में बेहद कमजोर रही है वैसे ही जैसे समाज में उनकी स्थिति।लेकिन जैसे जैसे समाज में उनकी स्थिति थोड़ी सुधरने लगी है उनके रोल भी धीरे धीरे दमदार होने लगे हैं और दर्शक भी इसे थोडा थोडा स्वीकारने लगे है।आगे इसमें और परिवर्तन होगा ये भी हो सकता है कि केवल सफलता ही नहीं असफलता का क्रेडिट भी हिरोईन को भी मिलने लगे जो कि अभी तक ज्यादातर केवल हीरो को मिलता था।लेकिन ऐसा नहीं है कि नायको को सफलता का क्रेडिट साझा नहीं करना पड़ता।यदि ऐसा होता तो न मदर इंडिया के लिए नर्गिस को हम याद करते न सदमा के लिए श्रीदेवी को न जब वी मेट के लिए करीना को न इश्किया के लिए विद्या को(सोचिए मैंने खास ये ही उदाहरण क्यों लिए है)।तब तो महेश भट्ट यश चोपडा घई भंसाली ए आर रहमान प्रकाश झा लता मंगेशकर श्रेया घोषाल दीपा मेहता गुलजार जावेद अख्तर जैसे पर्दे के पीछे के कलाकारो का तो कोई नाम ही नहीं होता।पर फिर भी इस बात से सहमत हूँ कि बॉलीवुड का माहौल भी महिला विरोधी ही है।और यहाँ महिला के टेलैट की पुरुष जितनी कद्र नहीं होती।पर बदलेगा ये माहौल भी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. मैंने तो पहले ही कहा की क्रेडिट तो मिलता है किन्तु उसी फिल्म का जिसमे केवल उन्ही पर फिल्म हो जो उदाहरन आप ने दिए है , लेकिन जिन फिल्मो में महिला और पुरुष भूमिका बराबर होते है उनमे उन्हें वो क्रेडिट नहीं मिलता है , जो गलत है । बाकि सहमती के लिए धन्यवाद ।

      Delete
  10. अब actress शब्द के इजाद का क्रेडिट शबाना जी ने भारतीयो को क्यों दे दिया ये तो वही जाने लेकिन मेरे हिसाब से ऐसा कुछ नहीं है और न शबाना जी इसका विरोध करने वाली पहली महिला है,पश्चिम में शब्दों को लेकर बहस होती रही है।अलग अलग फील्ड में महिलाओं के आ जाने से कुछ कॉमन और जेन्डर न्यूट्रल शब्दो का इस्तेमाल होने लगा जैसे कैमरामैन की जगह कैमरापर्सन और चेयरमैन की जगह चेयरपर्सन या एक्ट्रेस की जगह एक्टर आदि।वैसे निजी रुप से कम से कम मुझे एक्ट्रेस शब्द में तो कोई बुराई नही नजर आती।पता नहीं क्यों इसका विरोध किया गया।
    पर चलिए अब ऑल्डफॅशन्ड ही हो गया तो एक्टर भी सही है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शबाना आजमी न ऐसा कुछ नहीं कहा है उन्होंने बस ये कहा था की वो एक्टर है एक्टरेस नहीं , तब मुझे पता चला की ये शब्द सही नहीं है , अब जैसे हम महिलाओ ने ब्लागरा शब्द का विरोध नहीं किया होता तो अब तक ये हमारे ब्लॉग जगत में प्रचलित हो जाता , और बहुतो को इसमे कोई भी खराबी नहीं नजर आई थी और बड़ी आसानी से नए शब्द को बना कर ब्लागरो का वर्गीकरण कर दिया गया होता ।

      Delete
    2. अब जैसे हम महिलाओ ने ब्लागरा शब्द का विरोध नहीं किया होता तो अब तक ये हमारे ब्लॉग जगत में प्रचलित हो जाता ,
      bilkul sahii kehaa aapne , virodh karna ati aavyak haen ,

      Delete
  11. ऐसा हैं अंशुमाला हिंदी ब्लॉग में कुछ लोग अपने पौरुष को सिद्ध करने के लिये बार बार एक ही बात को घुमा फिरा कर एक ही जगह ले आते हैं यानी स्त्री को क्या करना चाहिये , ये उनसे पूछना होगा . स्त्री विवाह करे क्युकी विवाह स्त्री के लिये जरुरी हैं , क्यूँ जरुरी हैं ताकि संसार चलता रहे . क्यूँ जरुरी हैं क्युकी स्त्री सुरक्षित हो जाती हैं विवाह करके , और ब्लॉग पर ये सब वही लोग ज्यादा लिखते हैं जो ब्लॉग पर अपने प्रेम प्रसंग डालते हैं , किस महिला ब्लॉग लेखिका से उन्होने क्या चैट की , उसको क्या नाम दिया , किस महिला ब्लोगर से उन्होने प्रेम किया इत्यादि इत्यादि इत्यादि . कभी कभी सोचती हूँ ऐसे लोगो से महिलाए मित्रता भी कैसे रख पाती हैं . कुछ हैं जो कहीं नहीं कमेन्ट करती पर वहाँ जरुर करेगी . कभी लगता हैं शायद कोई गहरा ब्लैक मेल का किस्सा हैं
    देर से आ पाई आप की पोस्ट पर , वर्ना बढ़िया बहस होती

    ReplyDelete
    Replies
    1. जिनकी सोच ही ऐसी है उनसे फर्क नहीं पड़ता है फर्क उससे है जब वो बातो को गलत रूप में रखते है और लोग बिना पूरी बात जाने उसका समर्थन भी करते है ।

      Delete
  12. जोरदार ढंग से आपने अपने विचार व्यक्त किये हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद । आप के विचार नहीं पता चले इस पर ।

      Delete
    2. मुझे लगा मेरी पोस्ट पढ़कर इस विषय में मेरे विचारों से आप अवगत हो चुकी हैं। सब मूड और वक्त की बात होती है। कभी खूब लिखता हूँ कभी वैसे ही चला आता हूँ। खैर..

      बच्चे इक दूजे से भेद नहीं रखते। युवाओं में एक दूसरे के प्रति आकर्षण रहता ही है। जब हम पुरूष शब्द का प्रयोग करते हैं तो वहीं स्त्री शब्द उससे चिपक जाता है। दोनो एक दूसरे के पूरक हैं, दोनो के बिना घर नहीं चलता लेकिन पशु प्रवृत्ति धारण कर एक दूसरे का शोषण करते हैं। प्रायः देखा यह जाता है कि जिसके पास अर्थ की लाठी है वही दूसरे को हाँकने लगता है। अभी यह लाठी पुरूषों के पास है इसलिए नारियों का अधिक शोषण दिखता है। ओशो ने कहीं कहा है..."अच्छी आत्माएँ वहीं जन्म लेती हैं जहाँ पति-पत्नी एक दूसरे से खूब प्रेम करते हैं।"... मुझे सही लगता है। अच्छी आत्माओं को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे जिनके घर जन्म लेने जा रहे हैं वे कारागार में हैं या राज सिंहासन पर बैठे हैं। कृष्ण का उदाहरण हमारे सामने है। इसलिए भलाई इसी में है कि हम वादी न बनकर प्रेमी बने।

      Delete

    3. @जिसके पास अर्थ की लाठी है वही दूसरे को हाँकने लगता है।

      बिलकुल सही कहा आप ने, एक पत्नी और माँ घर के अन्दर पुरुष के मुकाबले ज्यादा मेहनत करती है किन्तु बस अर्थ की लाठी उसके पास नहीं है तो वो घर में दोयम बन जाती है , जब दोनों के बिना घर नहीं चला सकता है तो दोनों को बराबरी का अधिकार क्यों नहीं दिया जाये , और रही प्रेम की बात तो मुझे लगता है की एक परिवार में प्रेम की ये धारा एक तरफ़ा थी पत्नी से पति की ओर अब पत्नी भी प्रेम और सम्मान की मांग कर रही है , जो कुछ लोगो को गलत लगता है ।

      Delete
  13. अंशुमाला जी, अब वर्गीकरण तो आपने किया है वो भी सोच के स्तर पर जो साफ साफ दिख भी रहा है आप चाहे तो न माने बल्कि मुझे तो यह भी लगा कि आपने उनकी तुलना उन महिलाओं से भी कि जो महिलाओं के मान सम्मान आदि के बारे में सोचती तक नहीं या नारीवादी मसलों पर कोई राय नही रखती सो मैंने जवाब में यही कहा कि ये वर्गीकरण गलत है।यदि में किसी ब्लॉगर 'क' की तारीफ में ये कहूँ कि मुझे आपके लेख ब्लॉगर 'ख' के लेखो की तुलना में बहुत अच्छे लगे तो कोई खास बात नहीं होगी लेकिन जब बात सोच पर आती है तो मामला बदल जाता है उदाहरण के लिए मैं 'क' से ये कहूँ कि आपके लेखों से लगता है कि क्या गजब सोच है आपकी पता नहीं क्यों 'ख' जी भी आपकी तरह हटकर और बेहतरीन नहीं सोच पाते और बस लिखने के लिए वही लिखे जा रहे है जो सब लिख रहे है।तो यह भी तो एक तरीका ही हुआ न 'ख' को वैचारिक रुप से कमतर जताने का।यदिसोच पर टिप्पणी करनी है तब पहले तो यही देखना चाहिए न कि उन्होंने जो लिखा उसके पीछे उनके अपने तर्क क्या हैं निजी रुप से आप किस बात से सहमत या असहमत होते हैं तो यह अलग बात है।फिर भी आप कहती हैं मैंने गलत समझा तो वह भी मान लूँगा क्योंकि शब्द और भावनाएँ तो आपके ही है

    ReplyDelete
    Replies
    1. राजन जी

      आप वही प्रतिउत्तर नहीं दे रहे है जहा मैंने लिखा है इसलिए मुझे थोडा समझने में मुश्किल हो रहा है की शब्द और बात पर असहमति जता रहे है इसलिए अपने अंदाजे से जवाब देने का प्रयास कर रही हूँ ।

      लेख में लिखा है "उन्हें नारीवादी कह कर ख़ारिज किया जाता रहा है" मैंने किसी को नारीवादी नहीं कहा है मैंने लोगो की सोच बताई है ।

      टिप्पणी में "वही नारीवादी वाली" मैंने ये शब्द लिखा है आप को क्या लगता है की ये व्यंग्य है या मै किसी वर्गीकरण को बना रही हूँ । मैंने तो साफ लिखा है की जब महिलाए अपनी बात करती है तो उन्हें नारीवादी कहा ही क्यों जाता है पुरुष को तो पुरुषवादी नहीं कह कर ख़ारिज किया जाता । दूसरी बात सोच की तो आप को बता दू की जो काम कर रही है वो अभिनेत्रिय ऐसा नहीं सोचती होंगी, नहीं कहा जा सकता है या जो महिलाए खुल कर अपनी बात नहीं करती है वो सोचती भी नहीं होंगी ऐसा भी नहीं है बस कुछ लोग समझते तो सब है किन्तु उनक विरोध नहीं करते या उस बारे में कुछ बोलते ही नहीं है बस जैसा चल रहा है वैसा ही करते जाते है । हा मै मानती हूँ की वर्ग विहीन समाज नहीं हो सकता है वर्गीकरण तो जरुर ही होगा किन्तु इस वर्गीकरण में किसी की भी बात को हम कोई वाद का नाम दे कर ख़ारिज नहीं कर सकते है , चाहे वो हो जो बोल रही है चाहे वो हो जो बोल नहीं पा रही है , किसी के भी बातो और सवालो को ख़ारिज नहीं करना चाहिए । अब देखिये हम यहाँ मुख्य मुद्दे पर जो की है महिलाओ को भी बराबरी मिले उनके काम की भी सराहना हो उन्हें भी उतना ही महत्व मिले की बात कम कर रहे है और नारीवाद क्या है क्यों है कैसे है कौन है पर ज्यादा बात कर रहे है जो कही से भी कोई मुद्दा है ही नहीं ।

      Delete
    2. अंशुमाला जी,जहां तक मुझे याद है संजय जी ने आपको आपकी गाली पुराण वाली पोस्ट पर नारीवादी कहा था आपने उसे सकारात्मक भाव से लिया लेकिन क्षमा जी को दीये आपके उत्तर से लगता है की आप इसे सही नहीं मानती खैर नारीवाद या नारीवादी शब्द पर ये मेरी आखिर टिप्पणी है इसके बाद इस पर चर्चा खत्म।कोई महिलाओ की जायज बात को नारीवाद कह कर खारिज कर रहा है तो इससे यह शब्द या अवधारणा गलत नहीं हो जाते।मेरे लिए नारीवादी का मतलब उन लोगो से है जो स्त्री पुरुष भेदभाव को खत्म करना चाहते हैं और इसके लिए अपने स्तर पर प्रयास भी कर रहे है लेखिका सिमोन द बोउवा ने तो कहा था कि हर लडकी को नारीवादी होना चाहिए ।आपको नारीवाद के बारे में ज्यादा जानना है तो मुक्ति जी का ब्लॉग पढना चाहिए ।यहीं पर देखा की नास्तिकता को कई नाराज भाई लोग बीमारी कहते हैं तो क्या इसलिए मैं खुद को नास्तिक कहलाना बुरा मानू? वाद की जरूरत अब तक वंचित रहे वर्गो को ही होगी जैसे महिला या दलित लेकिन पुरुष(मतलब पूरा पुरुष वर्ग ) इसमें नहीं आते।हाँ कोई निजी तौर पर अपने लिए कोई शब्द नहीं कहलवाना चाहता तो उसके लिए ऐसा न कहा जाए ।पर ये शब्द गलत नहीं।अब एक विशेष अवधारणा के लिए या उसमें विश्वास रखने वालों के लिए या फिर अपनी बात समझाने के लिए कोई तो शब्द प्रयोग करना ही पड़ेगा।आप मेरी टिप्पणी के जवाब में एक जगह 'महिला प्रधान चीजे' शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं,अब ये क्या होता है?

      Delete
    3. किसी भी विषय पर चर्चा तभी होती है जब उसे सार्वजनिक किया जाता है।निजी रुप से कोई अभिनेत्री जेम्स बॉण्ड की फिल्म में काम न करना चाहे न करे कोई खुद को एक्टर कहलवाना चाहे कोई बात नहीं केवल इस पर तो कोई विरोध नही होगा लेकिन ये या इनके समर्थक ये कहते है कि नहीं जेम्स बॉण्ड का चरित्र और फिल्म तो महिला विरोधी है या एक्ट्रेस शब्द गलत है तब तो बहस होगी ही।तब कुछ लोग आपका समर्थन करेगे प्रशंसा करेंगे तो कुछ असहमत भी होंगे और विरोध भी करेंगे।आप ये चाहती है कि किसी महिला के निजी फैसले का विरोध न किया जाए तो ठीक है लेकिन आप ये क्यों चाहती है कि हम आपकी तरह ये भी मान लें कि जेम्स बॉण्ड की फिल्मे गलत है या नारीवाद शब्द गलत है या एक्ट्रेस शब्द गलत है ।हमारे पास भी तो अपने तर्क है।या तो आप ऐसे मुद्दो को पब्लिक डोमेन में मत लाइये और अगर लाते हैं तो असहमति रखने वालो के बारे में ये मत कहिए कि वो आपको खारिज कर रहे हैं।हाँ पुरुश्वाद शब्द प्रयोग नहीं किया जाता लेकिन कई बार पुरुषों की बात पसंद न आने पर महिलाएं भी उसे पुरुषवादी मानसिकता कह देती हैं भले ही उसके तर्क सही हों, पूर्वाग्रह तो जहां भी हो वो गलत हैं.

      Delete
    4. हाँ मुझे आपकी टिप्पणी में 'वही नारीवादी वाली' से भ्रम हुआ क्योकि मुझे इसमें व्यंग्य जैसा कुछ नजर नहीं आया लेकिन यदि आप भी एक बार देख लें कि आपके ही लिखने के तरीके में तो कोई गड़बड़ नहीं है तो भी कोई बुराई तो नही।आपकी पोस्ट के शीर्षक और पोस्ट में मैं बिल्कुल समझा कि आप लोगों की सोच बता रही हैं लेकिन मेरे जवाब में आपकी टिप्पणी से भ्रम हुआ इसीलिए तो कनफ्यूजन शब्द का इस्तेमाल किया।लेकिन आपको क्या लगता है कि सोच में वर्गीकरण की बात क्या मैंने इसी आधार पर की होगी?आपके शब्द थे-"बाकि अभिनेत्रिया तो काम कर रही ही है उनके विचार ऐसे नहीं है वो बस काम करना चाहती है , जैसे की समाज में बहुत सी महिलाए इस बात को सोचती ही नहीं है की महिलाओ काभी मान सम्मान और सोच होती है " ये अलग बात है कि अब आप इसे नहीं मान रही।और कह रही हैं
      "कुछ लोग समझते तो सब है किन्तु उनक विरोध नहीं करते या उस बारे में कुछ बोलते ही नहीं है बस जैसा चल रहा है वैसा ही करते जाते है"
      यह भी बिलकुल सच है लेकिन कई बार ये भी तो होता है की जब हम इसके पीछे उनकी सोच पता करते हैं तो उनका काम भी हमें सही लगने लगता है आप कहें तो उदाहरण द्वारा और स्पष्ट करूँ?बल्कि कई बार हमारी सोच भी उनके विचार जानने के बाद बदल जाती है.लेकिन आपका ही डायलोग मैं जरा विरोध करने वालों पर भी चेप दूं जैसे की हर पुराने विचार का विरोध करने वाले भी बस खुद को दूसरों से अलग दिखने के लिए या केवल प्रचार पाने के लिए या बस दूसरों की देखा देखी ही ऐसा कर रहे हैं तो क्या आप इसे स्वीकार कर लेंगी? किसीके निजी फैसले का विरोध करने का अधिकार तो किसीको नहीं है पर हाँ किसीके निजी विचारों से असहमति तो हो ही सकती है ठीक है हम आपको नारीवादी न कहें लेकिन फिर आप भी हमारी सोच को पुरुषवादी सोच मत कहिये(सिर्फ इसलिए की किसी ख़ास मुद्दे पर आपसे विचार नहीं मिल रहे ) . निवेदन है की अब इस टिप्पणी को निजी रूप से अपने ऊपर मत ले लीजियेगा ये हर किसी के लिए नहीं कहा गया है.जो करता है उस पर लागू .

      Delete
    5. अंग्रेजी का मेरा ज्ञान इतना नहीं है की इस बात को बता सकू अपनी तरफ से की एक्टरेस शब्द वाकई है या उसे भी ब्लॉगरा जैसा बनाया गया, पहले लोगो ने अपना लिया और अब जब बात समझ में आ रही है तो उसे अस्वीकार कर रहे है । अमिताभ कहते है की उन्हें बॉलीवुड कहना पसंद नहीं है ये तो सीधे सीधे हॉलीवुड की नक़ल कर बनाया गया है जबकि हम नक़ल नहीं है और सीधे हिंदी फिल्म उद्योग कहिये, अब आप बताइए की इसका नाम कब बॉलीवुड रखा गया , नाम ही गलत था नक़ल कर बनाया गया और लोगो ने अपना लिया किन्तु अब धीरे धीरे लोग उसे सही कर रहे है । जेम्स बॉड अभिनेत्री अपने लिए नहीं वो इस फिल्म की सभी महिला किएदारो के लिए सम्मान की मांग कर रही है समाज से और लोग उनकी बात को नारीवादी कह कर ख़ारिज कर रहे है ( मैंने किसी को नारीवादी नहीं कहा है खबर में नारीवादी लिखा था )और ये उनका बस नीजि मसाला नहीं है । मैंने ये नहीं कहा की आप किसी भी बात से असहमत न हो या अपने तर्क न रखे मैंने कहा है की बस एक शब्द की कौन नारीवादी है कौन नारीवादी नहीं है यदि कोई नारीवादी है तो क्यों है जैसी बातो पर हम बहस क्यों कर रहे है , मुद्दा है स्त्री के लिए समानता न की नारीवादी शब्द , तो उसी पर ज्यादा बात करे ।

      Delete
    6. @ जी,जहां तक मुझे याद है----------- शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं,अब ये क्या होता है?

      नहीं संजय जी ने मेरी नहीं अपनी पोस्ट पर कहा था , बात राजन जी नियत की है की कौन किस नियत से किस रूप में किसी शब्द का प्रयोग कर रहा है , फिर उसे लिया भी उसी रूप में जायेगा ,याद है आप ने भी एक मुद्दे पर नियत की बात कही थी , कई बार कुछ लोग वाद के नाम पर मुद्दों को दबा देते है चाहे वो कोई भी वाद हो नक्सल वाद , नारीवाद , अंध राष्ट्रवाद , साम्यवाद इस तरह के सभी वादों में उठे जायज सवालो को फलाना वादी कह कर दबा दिया जाता है , जो गलत है ।जहा तक बात मेरी निजी राय है किसी भी वाद के लिए वादी कहलाने के लिए जरुरी है की आप जमीन पर उतर कर कुछ काम कीजिये समाज के लिए दूसरो के लिए तब तो आप कोई वादी होंगे , जो मै सच बोलिए तो नहीं कर रही हूँ इसलिए ये सम्मान रूपी शब्द मै अपने लिए नहीं मानती हूँ , और मुझे आपत्ति है उन लोगो से भी जो मेरे उठाये सवालो को गली के रूप में वादी कह कर ख़ारिज करे । मै भगवान में भी विश्वास नहीं करती हूँ किन्तु खुद के लिए नास्तिक ( बड़ा कठोर सा लगता है ये शब्द क्योकि इस शब्द को लोग भगवान का अपमान करने वाला समझते है ))शब्द भी प्रयोग नहीं करती हूँ ज्यादातर आम लोगो के बिच यही कहती हूँ की मै पूजा पाठ से या मूर्ति पूजा से जरा दूर ही रहती हूँ , क्योकि ज्यादातर लोग भगवान का आदर करते है और मै उस भावना को भगवान की जरुरत को समझती हूँ इसलिए प्रयास करती हूँ की भगवान पर सवाल करने की जगह बस आडम्बर का ही विरोध करू ।

      Delete
    7. @ हाँ मुझे आपकी टिप्पणी में 'वही नारीवादी वाली' से



      कई बार हम अपनी सोच समझ और टोन से लिखते है टोन को तो पढ़ा नहीं जा सकता है इसलिए छोटे शब्दों को ध्यान देना चाहिए जैसे गंभीरता से लिखा जाता तो "वही" "वाली" न लिखा होता ।

      कन्फ्यूजन , हा वो तो है पता नहीं दुसरे नारीवादी शब्द को किस रूप में कह रहे है , सम्मान दे रहे है या मजाक उडा रहे है, पता करना मुश्किल होता है कई बार ।

      Delete
    8. @अंग्रेजी का मेरा ज्ञान इतना नहीं है की इस बात को बता सकू अपनी तरफ से की एक्टरेस शब्द वाकई है या उसे भी ब्लॉगरा जैसा बनाया गया, पहले लोगो ने अपना लिया और अब जब बात समझ में आ रही है तो उसे अस्वीकार कर रहे है
      एक्ट्रेस शब्द बिलकुल सही है.ऐसे तो कोई न कोई शब्द कभी न कभी तो बनाया ही गया होगा.हम क्यों जबरदस्ती मुर्गी और अंडे वाली बहस में पड़ें की क्या कब बना होगा.आप कहेंगी की लेखिका शब्द लेखक की नक़ल से बनाया गया है ,इसलिए यह गलत है तो ये कोई बात नहीं हुई.वो तो केवल एक पहचान के लिए शब्द है और कोई इसका गलत मतलब नहीं है.अंगरेजी में और भी तो एक दुसरे के जेंडर ऑपोजिट शब्द प्रयोग किये जाते हैं जैसे tiger और tigress या poet और poetess या फिर god goddess ,master mistress आदि.हालांकि कवियित्री के लिए poetess शब्द का प्रयोग अब लगभग बंद हो चूका है ऐसे ही हिंदी में भी महिला नेताओं के लिए नेत्री शब्द प्रयोग आम बोलचाल की भाषा में नहीं किया जाता.ये शब्द कोई गलत होने के कारण नहीं छोड़े गए हैं बल्कि ऐसे ही आउट ऑफ़ फैशन हो गए यही एक्ट्रेस शब्द के साथ हो रहा है.केवल इसलिए महिलाओं को भी एक्टर कहा जा रहा है क्योंकि डॉक्टर,राइटर,journalist जैसे दुसरे अंगरेजी के शब्दों में महिला पुरुष के लिए अलग अलग शब्द नहीं है.लेकिन जो शब्द महिलाओं के लिए अलग बना हुआ है उसे हटाने की तो कोई जरुरत ही नहीं थी.यदी किसी शब्द से ये पता भी पड़ता है की महिला की बात की जा रही है तो इसमें गलत क्या है.आज भी तो मेल डॉक्टर और फीमेल डॉक्टर जैसे शब्द प्रयोग किये ही जा रहे हैं सिर्फ इसलिए ताकि बात समझ में आ सके.और वैसे भी डॉक्टर पत्रकार ड्राईवर जैसे काम महिला करे या पुरुष कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन अभिनय में महिलाओं के किरदार बस महिला ही निभा सकती हैं और पुरुष के केवल पुरुष इसलिए अलग अलग शब्द हैं तो भी कोई दिक्कत नहीं हैं.मैं अपनी सोच बता रहा हूँ बाकी जिसे जो सही लगे वो माने.
      @ अमिताभ कहते है की उन्हें बॉलीवुड कहना पसंद नहीं है ये तो सीधे सीधे हॉलीवुड की नक़ल कर बनाया गया है जबकि हम नक़ल नहीं है और सीधे हिंदी फिल्म उद्योग कहिये, अब आप बताइए की इसका नाम कब बॉलीवुड रखा गया , नाम ही गलत था नक़ल कर बनाया गया और लोगो ने अपना लिया किन्तु अब धीरे धीरे लोग उसे सही कर रहे है ।
      बोलीवुड शब्द तो वैसे ही बन गया जैसे ब्लॉगजगत बन गया.आप फिर से वैसा ही उदाहरण दे रही हैं मास्टरनी डोक्टरनी या ब्लोगरा जैसा जबकि मैं कह चूका हूँ की ये किसी भाषा के शब्द हैं ही नहीं.वैसे तो इनका भी कोई गलत मतलब नहीं है लेकिन भाषा की दृष्टी से ये शब्द गलत है. और आपको बता दूँ की एक्ट्रेस शब्द का विरोध हर कोई नहीं कर रहा है.होलीवुड की ही कई अभिनेत्रियाँ हैं जिन्हें ये नहीं पता की इस शब्द का विरोध क्यों किया गया वो खुद को अभी भी एक्ट्रेस ही कहती हैं.और अमिताभ ऐसा कई बार कह चुके हैं की हमारी अलग पहचान है हम होलीवुड की नक़ल नहीं हैं इसलिए हम अलग शब्द इस्तेमाल करेंगे लेकिन आप तो उल्टा ही कर रहे हैं जो महिलाओं के लिए अलग शब्द था उसे ही त्याग रहे हैं.इससे तो अच्चा होता यदी fire fighter (फायरमैन की जगह) जैसा कोई अलग और कोमन शब्द चुन लिया जाता,एक दो उदाहरण मैंने पहले भी दिए हैं.पर ठीक है यदी किसीको एक्ट्रेस शब्द सही नहीं लगता तो न किया जाए इसका प्रयोग.
      @जेम्स बॉड अभिनेत्री अपने लिए नहीं वो इस फिल्म की सभी महिला किएदारो के लिए सम्मान की मांग कर रही है समाज से और लोग उनकी बात को नारीवादी कह कर ख़ारिज कर रहे है ( मैंने किसी को नारीवादी नहीं कहा है खबर में नारीवादी लिखा था )और ये उनका बस नीजि मसाला नहीं है
      यही तो मैंने भी कहा की अब ये मसला निजी नहीं सार्वजनिक बहस का हो जाता है.इस पर तो कोई बहस है ही नहीं की किसी महिला को सम्मान मिलना चाहिए या नहीं,बल्कि इस पर है की आप मान सम्मान का प्रशन बना किसे रहे हैं(खासकर तब जब आपका फैसला केवल आपके बारे में नहीं हैं) इस पर सबके विचार अलग अलग हो सकते हैं(मैंने भी अपने विचार दिए बांड की फोल्म या नारीवादी शब्द के बारे में आप आराम से असहमत हो सकती हैं.) और असहमत होने का मतलब ये नहीं होता की किसीको खरिज किया जा रहा है.आपने जो खबर पढी यदी अभिनेत्री का विरोध किया गया होगा तो लेखक ने अपनी तरफ से जरूर कुछ तर्क या कुतर्क दिए होंगे.आप उन्हें रख देती तो उन पर ही बात हो जाती ये शब्द बीच में आता ही नहीं.और यदी केवल नारीवादी शब्द का प्रयोग किया गया है(वो भी लेख में नहीं किसी खबर में) तो उससे ये नहीं पता चलता की ख़ारिज किया जा रहा है कई बार बस बात समझाने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है.आपके लिए नारीवादी का जो मतलब है जरूरी नहीं दुसरे भी ऐसा ही समझे.

      Delete
    9. @मैंने कहा है की बस एक शब्द की कौन नारीवादी है कौन नारीवादी नहीं है यदि कोई नारीवादी है तो क्यों है जैसी बातो पर हम बहस क्यों कर रहे है , मुद्दा है स्त्री के लिए समानता न की नारीवादी शब्द , तो उसी पर ज्यादा बात करे ।
      मैंने इस पर ज्यादा बात तो तभी की जब आपने क्षमा जी के उत्तर में टिप्पणी की.वैसे मैंने और भी बातों पर कमेन्ट किये जैसे एक्ट्रेस शब्द,अभिनेत्रियों को क्रेडिट क्यों नहीं मिलता,विद्या बालन का कथन आदी.


      Delete
    10. @नहीं संजय जी ने मेरी नहीं अपनी पोस्ट पर कहा था , बात राजन जी नियत की है की कौन किस नियत से किस रूप में किसी शब्द का प्रयोग कर रहा है , फिर उसे लिया भी उसी रूप में जायेगा ,याद है आप ने भी एक मुद्दे पर नियत की बात कही थी
      मैंने तो बता दिया की उन्होंने कब ऐसा कहा था.समय मिलने पर आप देख सकती हैं,उन्होंने मजाक में ये बात कही थी.अब इससे पहले उन्होंने कब ऐसा कहा मुझे नहीं पता क्योंकि मैंने संजय जी का ब्लॉग कुछ तीन चार महीने पहले ही पढना शुरू किया है.
      और ये तो मैं कह ही नहीं रहा की यदी कोई गलत नीयत से किसी शब्द का इस्तेमाल कर रहा हैं तो आप उसे कुछ मत कहिये.यदी कोई गलत नियत से कुछ भी कह रहा हैं तो ठीक हैं,आप उस व्यक्ति के लिए चाहे जो कहें कौन आपको रोक रहा हैं/कौन रोक सकता है? लेकिन आप ऐसा कहाँ कर रही हैं?आप तो उलटे नारीवादी शब्द को गलत बता रही हैं इसलिए मैंने इसके पक्ष में लिखा.फिर भी आपको पूरा अधिकार की आप मेरी बात से असहमत रहें.
      @जहा तक बात मेरी निजी राय है किसी भी वाद के लिए वादी कहलाने के लिए जरुरी है की आप जमीन पर उतर कर कुछ काम कीजिये समाज के लिए दूसरो के लिए तब तो आप कोई वादी होंगे , जो मै सच बोलिए तो नहीं कर रही हूँ इसलिए ये सम्मान रूपी शब्द मै अपने लिए नहीं मानती हूँ , और मुझे आपत्ति है उन लोगो से भी जो मेरे उठाये सवालो को गली के रूप में वादी कह कर ख़ारिज करे
      आपको क्या लगता है की महिलाओं और दलितों की समस्या क्या कोई कानूनी समस्या है या ये समस्याएँ समाज की सोच से जुडी हुई है?अंशुमाला जी सारी समस्या तो मानसिकता से जुडी हुई हैं यदी उसमें ही कोई परिवर्तन नहीं आया तो कोई समस्या हल नहीं होगी.और विचरों को बदलने के लिए दुसरी तरह के विचारों और उनके प्रसार की ही जरुरत होती है.ये काम जमीन पर उतर कर नहीं किया जा सकता.कोई किसीसे लड़ाई थोड़े ही करनी है और न कोई हल चलाना है अगर ऐसा होता तो इस तरह की समस्याएँ कबकी हल हो चुकी होती लेकिन विचार कैसे बदले जाएँ?आप अपने को किसी वाद से न जोड़ें आपकी मर्जी हैं लेकिन जैसे किसीके विचार सांप्रदायिक हो सकते हैं,धार्मिक हो सकते हैं वैसे ही नारीवादी भी हो सकते हैं.जिन्हें खारिज करना हैं उनके पास तो कई और तरीके हैं.
      @मै भगवान में भी विश्वास नहीं करती हूँ किन्तु खुद के लिए नास्तिक ( बड़ा कठोर सा लगता है ये शब्द क्योकि इस शब्द को लोग भगवान का अपमान करने वाला समझते है ))शब्द भी प्रयोग नहीं करती हूँ ज्यादातर आम लोगो के बिच यही कहती हूँ की मै पूजा पाठ से या मूर्ति पूजा से जरा दूर ही रहती हूँ ,
      अब ये तो ऐसा विषय है की जवाब देने लगा तो पूरी पोस्ट ही बन जायेगी पर इतना जरूर कहूँगा की नास्तिक शब्द कठोर नहीं है बल्कि बना दिया गया है इसका शाब्दिक अर्थ वही होता है जो हम सब जानते हैं अब हो सकता है कोई इसकी भी व्याख्या लेकर आ जाये लेकिन जो प्रचलित अर्थ है आज तो सभी के लिए वही मायने रखता है.वैसे भी कोई नास्तिक कभी भगवान् का अपमान नहीं करता लेकिन जो भगवान् को मानने वाले हैं उन्हें तो आपकी ये ही बात भगवान् का अपमान लगेगी की आप भगवान् में विश्वास नहीं करती(मेरे साथ अक्सर होता रहता है).तो क्या अब लोगों से ये कहना भी बंद कर देंगी?कोई किसी बात को जबरदस्ती मान अपमान से जोड़ दे तो इसमें कहने वाला क्या कर सकता है जबकि उसकी भावना गलत नहीं है.ऐसे तो हम कब तक बचते रहेंगे.
      वैसे सच्ची श्रद्धा हो तो मैं मुर्तीपुजा को गलत नहीं मानता.

      Delete
    11. @कई बार हम अपनी सोच समझ और टोन से लिखते है टोन को तो पढ़ा नहीं जा सकता है इसलिए छोटे शब्दों को ध्यान देना चाहिए जैसे गंभीरता से लिखा जाता तो "वही" "वाली" न लिखा होता ।
      व्यंग्य को लेकर मेरी ज्यादा समझ नहीं हैं.मैं और धयान दिया करूँगा.लेकिन शब्दों की वजह से गलतफहमी उतनी नहीं होती बल्कि जब आप कोई गंभीर बात कहते हुए अचानक व्यंग्यात्मक लहेजे में बात करने लगे या मजाक करते हुए बीच में ही कोई गंभीर बात कह दें तो कई बार गलतफहमी हो जाती हैं.सामने बैठकर बात कर रहे हों तो हो जाती हैं फिर यहाँ तो सिर्फ शब्द दिख रहे हैं.

      Delete
  14. नारीवादी शब्द को लेकर आप कनफ्यूजन खुद क्रिएट कर रही हैं पहले आप मुझे जवाब में दी गई टिप्पणी में खुद ही कहती हैं कि बॉण्ड फिल्मस् में काम न करने वाली महिलाओं की सोच नारीवादी है लेकिन जब मैं अगली टिप्पणी में आपकी ही बात दोहराता हूँ कि आपने इनको तो नारीवादी माना लेकिन बाकियो को नही जो जेम्स बॉण्ड की नायिका बनना चाहती है तब आप मेरे जवाब में टिप्पणी में ये कह देती हैं कि उन्हें नारीवादी कह खारिज न किया जाए ।
    खैर जो भी हो लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूँ और आपकी इस बात से भी बिल्कुल सहमत हूँ कि यदि कोई नायिका बॉण्ड फिल्म में काम नहीं करना चाहती तो उसका भी फैसला बिल्कुल सही है(वो नारीवादी है या नहीं इस जगह ये उतना बड़ा मसला है ही नहीं) और सभी को उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए व्यक्तिगत रूप से कोई इस फैसले के पीछे उनके तर्को से सहमत न हो तब भी।किसी भी अन्य को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार बिल्कुल नहीं होना चाहिए और यदि कोई ऐसा करे तो उसका भरपूर विरोध किया जाना चाहिए।

    ReplyDelete
  15. Mujhe naariwaad is shabd ke badle manavtawaad ye shabd adhik uchit lagta hai.Humanism....not feminism...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिलकुल सहमत हूँ ये शब्द तो पुरुषो के दिए है ताकि नारी के सवालो विरोधो के इस वाद के निचे दबा दिया जाये ।

      Delete
  16. हमारे यहाँ ऐसी फिल्मों की संख्या उँगलियो पर गिनने लायक है जिनमे नायक नायिका की भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण हो(उम्मीद है आप इस समानता का मतलब रोल की अवधि का समान होना भर नहीं मानती होंगी)।लेकिन फिर भी कुछ ऐसी फिल्मे थी जिनमे दोनों के रोल समान थे और इनमें से कुछ बकौल आपके नायिकाओं ने 'अपने दम पर' चलाई ।तो जाहिर है उनके काम को दर्शकों ने हीरो से ज्यादा सराहा भी होगा तभी तो फिल्म केवल हिरोईन के दम पर चली।दो उदारण तो ऊपर मैंने भी दिए जब वी मेट और इश्किया।ये दोनों फिल्में नायिका प्रधान नहीं थी(जैसे मेरे दिए बाकी दो उदाहरण) बल्कि इनमे नायको के रोल भी उतने ही महत्वपूर्ण थे पर चूँकि नायिकाओ ने अभिनय ज्यादा अच्छा किया तो उन्हें क्रेडिट भी ज्यादा मिला।पर आपका ये कहना भी सच है कि फिल्म उद्योग के पुरुष प्रधान होने के कारण बडी हिट के बावजूद नायिका को कोई खास फायदा नहीं होता।न उनकी फीस हीरो की तरह बढाई जाती है और न उन्हें आगे अच्छी फिल्मे मिलती है।इसमें बदलाव होना चाहिए पर पुरुष ऐसा चाहते नहीं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. मेरी मूल बात को समझने के लिए धन्यवाद ।

      Delete
  17. यदि शबाना जी को खुद को एक्टर कहलाना ही ठीक लगता है तो ठीक है उनके फैसले का सम्मान होना ही चाहिए हालाँकि मैं निजी रूप से इस बात से सहमत नहीं हूँ कि यह शब्द कोई महिलाओं के लिए अपमानजनक है या उनका महत्तव कम करता है।इसलिए मुझे सचमुच समझ नहीं आया कि इसका विरोध क्यों किया गया होगा।शायद अंग्रेजी में जैसे पुरुष और महिला दोनो के लिए ही doctor teacher या writer जैसे जेन्डर न्यूट्रल शब्द होते है वैसे ही अभिनेता और अभिनेत्री के लिए केवल actor के प्रयोग पर जोर दिया जाने लगा हो।पर इसकी कोई जरूरत नही थी नहीं तो इस हिसाब से तो mr. और miss या he और she के लिए भी कोई एक कॉमन शब्द प्रयोग कर लिया जाना चाहिए ?
    चलिए डॉक्टरनी या मास्टरनी या ब्लॉगरा आदि शब्द तो अंग्रेजी के शब्दो को जबरदस्ती हिन्दी में बिगाडकर प्रयोग किया जा रहा है इसलिए वो गलत है लेकिन actress तो अंग्रेजी का ही शब्द है इसमे क्या गलत है? हाँ कोई इसे बिगाडकर एक्टरनी कर रहा हो तो विरोध किया जाए तो समझ में भी आता है।
    खैर चलिए अब महिलाएँ नकारने लगी हैं तो शायद कुछ समय बाद इसका प्रयोग बिल्कुल बन्द हो ही जाएगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. actor भी जेन्डर न्यूट्रल शब्द है इसलिए उन्हें आपत्ति है अभी अभी हॉलीवुड की एक बड़ी अभिनेत्री का साक्षात्कार देख रही थी वो भी अपने लिए एक्टर शब्द ही बोल रही थी ।

      Delete
    2. actor शब्द जेन्डर न्यूट्रल तो नहीं है लेकिन चूँकि actress शब्द का प्रयोग अब धीरे धीरे कम होने लगा है इसलिए इसे ही जेन्डर न्यूट्ल की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है।वर्ना actor और actress में वही अंतर है जो हिन्दी के अभिनेता और अभिनेत्री मे है।नायक और नायिका भी अलग अलग शब्द है।पर जब इस्तेमाल न करने के कारण शब्द ही धीरे धीरे चलन से बाहर हो जाता है तो लोग उसका प्रयोग खुद ही बन्द कर देते है।लेकिन जिन्हें आपत्ति नहीं हैं वो करते भी रहते हैं.

      Delete
  18. अंशुमाला जी,
    माफी चाहता हूँ कि पोस्ट के एक दो बिन्दुओ पर ही इतनी टिप्पणियाँ हो गई और उम्मीद है कि आपने मेरी किसी बात को अन्यथा नहीं लिया होगा।आपके मन्तव्य से कोई असहमति नहीं है।
    और पोस्ट में कई ऐसे बिन्दू है जिन पर आपसे सहमति और कुछ पर असहमति है पर कभी और इन सब विषयों पर भी चर्चा होगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी हा ढेर सारी टिप्पणी हो गई हर टिप्पणी दो बार की है आप ने, मेरे स्पैम भर गया है :) आप एक बार टिप्पणी करके छोड़ दे वो स्पैम में जा रहा है ।

      Delete
    2. रिप्लाई ऑप्शन का प्रयोग किए बिना टिप्पणी करने में मुझे भी आनंद नहीं आ रहा वर्ना तो जैसा मैंन कहा आपकी पोस्ट पर कहने के लिए और बहुत कुछ है।पहले मुझे लगा यह समस्या सिर्फ मेरे साथ हैं लेकिन यहाँ पता चला दो तीन और लोगों के साथ यही हो रहा है ।मैं कोशिश कर रहा हूँ पर टिप्पणी हो ही नहीं पा रही लेकिन अब देखिये अब सही जगह टिप्पणी कर पा रहा हूँ.।आमतौर पर अपने डिफाल्ट ब्राउजर के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं अपनाता पर आपके ब्लॉग पर वह सब भी करके देखा पर कोई फायदा नहीं।और मुझे अपने मेल से पता चल जाता है कि आपके पास दो टिप्पणिया पहुँची हैं लेकिन ये भी मैं जानबूझकर नहीं कर रहा क्योंकि मुझे पता है आजकल कमेन्टस स्पैम में चले जाते है।आपको और पाठको को हुई असुविधा के लिए खेद है।

      Delete
    3. ये समस्या मुझे भी आ रही थी किन्तु ब्लॉग को बंद कर दुबारा खोलने पर ठीक हो जा रहा था । असल में अलग जगह टिप्पणी करने पर बातो की तारतम्यता टूट जा रही थी इसलिए समझाना मुश्किल हो रहा था और हम लगातार बात कर नहीं रहे थे घंटो और दिन का फर्क आ रहा था इसलिए मुद्दा और लिखी और उस समय दिमाग में आई बाते भी चली जा रही थी , इसलिए जवाब में थोड़ी परेशानी हो रही थी , और कोई बात नहीं है ।

      Delete
  19. नारीवाद और पुरुषवाद के स्‍थान पर परिवारवाद को बढ़ावा देने पर ही सारी समस्‍या से निजात मिलेगी। कई दिनों बाद पोस्‍ट को पढ़ पायी हूं, अत: क्षमा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अजित जी

      बिल्कुल सही कहा एक ऐसा परिवार जहा दोनों सदस्य बराबर अहमियत रखते हो ।

      Delete
  20. यहाँ तो टिप्पणियाँ आलेख से ज्यादा लम्बी हैं :)
    एनिवेज, हमें आपका ये आलेख बहुत पसंद आया!!

    ReplyDelete
  21. यकीन मानिए आपकी ये पोस्ट मैंने अभी तक नहीं पढ़ी है लेकिन इतने सारे कमेंट्स देखकर पढने का मन कर गया है.... बुकमार्क किये जा रहा हूँ, फिलहाल आपको एक लिंक देने आया था...
    ___________________
    शुक्रिया ज़िन्दगी...
    ___________________

    और पोस्ट मैं ज़रूर पढूंगा, वायदा है मेरा... :-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. कोई बात नहीं मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी , पर मैंने आप की पोस्ट पढ़ ली , जब सब पता ही है बंधू तो काहे ये कटी पतंग का गाना गाते हो :) , मुझे लगता है दुःख और दर्द भूल जाने के लिए होते है याद रखने के लिए नहीं और ख़ुशी हर समय याद रखने के लिए होती है ।

      Delete
  22. काफी जोशीले तरीके से अपने अपनी बात रखी, इसके लिए आप बधाई के पत्र हो...
    यह सच है कि भारत ही नहीं दुनिया में स्त्री के साथ भेद भाव हुआ है,.. अपेक्षाकृत भारत के बाहर ही स्त्री के साथ अधिक अन्याय हुआ है...
    लेकिन अब एक चीज़ देखने में आ रही है कि स्त्री हर वह काम कर रही है जो पुरुष करता आ रहा है, चाहे वो सही हो या गलत.. मजे कि बात ये है कि स्त्री उसे ये कह कर सही ठहराती है कि पुरुष वो काम कर सकता है तो स्त्री क्यों नहीं.. अरे भाई पुरुष तो गलत कर ही रहा है तुम क्यों गलत करने कि जिद कर रही हो... अपने हक अपनी आज़ादी का सदुपयोग करो दुरूपयोग नहीं...

    ReplyDelete
    Replies
    1. @ अपने हक अपनी आज़ादी का सदुपयोग करो दुरूपयोग नहीं..

      बिलकुल सहमत किन्तु ये बात केवल स्त्री के लिए ही क्यों यही बात पुरुषो के लिए भी लागु होती है , जब बात समानता की करे तो कोई भी बात दोनों के लिए कहे , गलत काम करने पर ये क्यों कहा जाये की तुम स्त्री हो इसलिए ये मत करो कहना चाहिए की ये काम गलत है इसलिए मत करो ।

      Delete