June 25, 2019

तृप्ति -----mangopeople


                                                        सेठ जी हाथ में खीर पूड़ी और दो लड्डू लिए अब भी ऊपर पेड़ पर कौवो को खोज रहें थे , जिनकी आवाज तो आ रही थी लेकिन दिख नहीं रहे थे | सामने फुटपाथ पर पड़ा गोबर और थोड़ी घास बता रही थी कि रोज वहां अपनी गाय लाने वाली वाली अपनी गाय लेकर जा चुकी हैं |  अब मुंबई जैसे शहर में उन्हें कहाँ रास्ते में  घूमती गाय मिलेगी  | मन ही मन सोचने लगे क्या इस पितृपक्ष को मेरे पितर अतृप्त ही रह जायेंगे | यहाँ तो कोई जानवर पंछी  दिख ही नहीं रहा जो उनके पितरो तक उनका दिया भोजन पहुंचा सके | तभी किनारे खड़े दो बच्चो पर उनकी नजर गई शायद फुटपाथ पर रहने वालों के थे | एक पांच छह साल का दूसरा सात आठ साल का रहा होगा | उनके गंदे बदन पर फटी गंदी पैंट के सिवा कुछ ना था | उनकी नज़रे पेड़ के नीचे ढेर सारे पत्तलों में रखे तरह तरह के खानो पर थी जिन पर मखियाँ भिनभिना रही थी | सेठ जी ने एक नजर घड़ी पर डाली और अपना पत्तल भी वही उन पकवानो के ढेर के बगल में रख दिया और हाथ जोड़ आगे बढ़ने से पहले आँखों से उन बच्चो को घूर कर हिदायत दे दी की वो उस खाने को खाने के बारे में सोचे भी नहीं | जैसे ही वो आगे बढे एक तेज हवा का झोका ढलान पर रखे लड्डुओं को लुढ़का कर उन पकवानो से दूर कर दिया | सामने खड़े बच्चो ने एक नजर एक दूसरे को देखा और झट उन लड्डुओं को मुट्ठी में भींच पास की दिवार की ओट में छुप गयें  |  दिवार के पीछे दो तृप्त आत्माएं अपनी हथेलियों की मिठास के मजे ले रहीं थी |
#लघुकथा 

3 comments:

  1. बहुत अच्छा कटाक्ष , आपकी लघुकथा में छिपा संदेश सब तक पहुंचे यही कामना ....

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  2. बहुत ही मार्मिक पर सार्थक कथा प्रिय अंशुमाला जी | शायद दिखावे के दानी सज्जन इस कथा के मर्म को समझ लें और अतृप्त पितरों की तृप्ति किस में है ये समझ ले | कौवे , गौ , मछलियाँ जिमाते हम इंसानों के भूख को ही दरकिनार कर बैठे हैं | सस्नेह शुभकामनायें सखी |

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