देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को बार बार ये कह कर ख़ारिज कर देता है की वो संसद के खिलाफ है एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में संसद ही सर्वोच्च है | लोग सभी को संसद की सर्वोच्चता समझा रहे है और इस आन्दोलन को लोकतंत्र विरोधी कहने में भी पीछे नहीं हट रहे है | देश में अराजकता फैलने, विदेश पैसे , विदेशी हाथ के साथ साथ ट्रैफिक की व्यवस्था तक ख़राब होने की बात कर रहे है ( ६४ साल तक देश में अराजकता रही उसकी फिक्र नहीं है उसे हटाने के लिए किये जा रहे आन्दोलन से अराजकता दिख रही है , अमेरिका से समझौते के लिए परमाणु बिल के लिए अमेरिका से पैसे आ रहे थे सांसद ख़रीदे जा रहे थे तो ठीक था , मंत्रियो को बनाने में भी अमेरिकियों का हाथ की बात सामने आई अब वही गन्दगी इन्हें सब जगह दिख रही है ) | पूरे आन्दोलन में कई तरह की बाते करके लोगों को भटकाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे ये संविधान के खिलाफ है और जो संविधान के खिलाफ है वो अम्बेडकर के खिलाफ है और जो अम्बेडकर के खिलाफ है वो दलित के खिलाफ है | दूसरा देश के एक समुदाय विशेष को ये कहा जा रहा है की ये सरकार के खिलाफ है और उसे बदलने के लिए है, जिसका फायदा विपक्षी "सांप्रदायिक" पार्टी को मिलेगा तो तुम्हारा क्या होगा , दूसरी तरह राष्ट्रवाद का झंडा लिए हिंदूवादी लोग भी है जिन्हें तकलीफ है की जब फला बाबा ने विरोध किया तो लोगों पर असर नहीं हुआ सभी ने उसका ऐसा साथ नहीं दिया तो अब हम भी इस आन्दोलन में साथ नहीं देंगे जब हमारी पसंद वाले बाबा जी विरोध करेंगे तो ही साथ देंगे ( ये कैसा राष्ट्रवाद है जो राष्ट्र से ऊपर किसी बाबा को बना रहा है ) यानी इस तरह के कई कारण है जो इस आन्दोलन का विरोध किया जा रहा है | तो उन सभी से मेरे दो सवाल है
पहला सवाल ये है की कल को एक ऐसी पार्टी सरकार बनाती है, संसद में पूर्ण बहुमत ले कर आती है जिसके मेनोफेस्टो में ही ये है की वो सभी के ऊपर समान कानून लागु करेगी किसी भी धर्म को विशेष अधिकार नहीं देगी सभी पर एक ही कानून लागु होगा और उनके धर्म का विशेषाधिकार ख़त्म कर देती है बाकायदा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत संसद में कानून बदल कर, तो क्या वो तब भी ये कह कर चुप रहेंगे की लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च होता है और हम सभी को इसे मान लेना चाहिए चुपचाप और यदि वो इसका विरोध करेंगे तो कैसे ?
दूसरा सवाल दूसरे लोगों से यदि कल को सरकार एक समुदाय विशेष का वोट पाने की लालच में कश्मीर को स्वायत्ता और आजादी के नाम पर पाकिस्तान को परोस दे, क्या वो तब भी संसद को सर्वोच्च मान कर चुप रहेंगे या कोई भी उनके पसंद की पार्टी गोली और डंडो के डर से बाहर नहीं आई तो वो उसका विरोध किसी अन्य के साथ नहीं करेंगे और अपनी पसंद के लोगों के आगे आने का इतजार भर करेंगे ?
पहला सवाल ये है की कल को एक ऐसी पार्टी सरकार बनाती है, संसद में पूर्ण बहुमत ले कर आती है जिसके मेनोफेस्टो में ही ये है की वो सभी के ऊपर समान कानून लागु करेगी किसी भी धर्म को विशेष अधिकार नहीं देगी सभी पर एक ही कानून लागु होगा और उनके धर्म का विशेषाधिकार ख़त्म कर देती है बाकायदा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत संसद में कानून बदल कर, तो क्या वो तब भी ये कह कर चुप रहेंगे की लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च होता है और हम सभी को इसे मान लेना चाहिए चुपचाप और यदि वो इसका विरोध करेंगे तो कैसे ?
दूसरा सवाल दूसरे लोगों से यदि कल को सरकार एक समुदाय विशेष का वोट पाने की लालच में कश्मीर को स्वायत्ता और आजादी के नाम पर पाकिस्तान को परोस दे, क्या वो तब भी संसद को सर्वोच्च मान कर चुप रहेंगे या कोई भी उनके पसंद की पार्टी गोली और डंडो के डर से बाहर नहीं आई तो वो उसका विरोध किसी अन्य के साथ नहीं करेंगे और अपनी पसंद के लोगों के आगे आने का इतजार भर करेंगे ?
मुझे सवाल का जवाब दीजिये या ना दीजिये किन्तु एक बार अपने आप से जरुर पूछियेगा क्या वास्तव में संसद ही लोकतंत्र में सर्वोच्च होती है और वास्तव में क्या राष्ट्रवाद में राष्ट्र से बड़ा कोई हो सकता है राष्ट्र का भला किसी के भी द्वारा हो क्या उस पर ध्यान देना चाहिए |
जनता की चुनी सरकार, जनता के लिए सरकार, जनता की सरकार...
ReplyDeleteलोकतंत्र में लोक यानि जनता ही सुप्रीम है...और इसी लोकतंत्र के क़ानून ने लोक की भलाई के लिए ही संसद बनाई है...ये संसद लोक की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रही...भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों के सरकारी खजाने को लूटने पर भी कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही , इसीलिए अन्ना की जनसंसद ने जनलोकपाल का सवाल खड़ा कर देश को उद्वेलित किया है...यहां तक ठीक है...हम सरकार को चेता रहे हैं कि वो जनता की सेवक है...उसे राजधर्म याद रखना चाहिए...लेकिन क्या सारे दायित्व सरकार और सांसद-विधायकों और जनप्रतिनिधियों पर आकर खत्म हो जाते हैं...जनता की खुद की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है...उसे बस अपने अधिकार ही याद रखने चाहिए, अपने कर्तव्य नहीं...जिस तरह का प्रैशर अब हम गलत चुन कर आ गए सांसदों या विधायकों पर बना रहे हैं...क्या चुनाव के वक्त हम ऐसा प्रैशर नहीं बना सकते....उस वक्त या तो हम वोट डालने ही नहीं जाएंगे...वोट देने जाएंगे भी तो देखेंगे कि कौन से उम्मीदवार से अच्छी जान-पहचान है, जो वक्त पड़ने पर अपने काम (निजी प्रायोजन) आ सकता है...वही घिसे-पिटे चार-पांच राजनीतिक दलों में से ही किसी न किसी के नाम पर बटन दबा आएंगे...यही काम उम्मीदवार बदल-बदल कर करते रहते हैं...राइट टू रीकाल की बात हम कर रहे हैं कि हमने गलत व्यक्ति चुना, इसलिए उसे वापस बुला लिया जाए....लेकिन एफर्ट टू गुड पिक की बात हम क्यों नहीं करते...पार्टी लाइन को गोली मार कर क्यों नहीं हम इलाके के किसी ईमानदार, बेदाग रिकार्ड वाले व्यक्ति को खड़ा कर देते...फिर उसे जी-जान से जिताने के लिए लग जाते...व्यवस्था या सिस्टम सिर्फ पार्टियों के भरोसे नहीं बदलेगा...उसके लिए हमें ही कमर कसनी होगी...झाडू़ अपने-अपने इलाकों से ही लगेगी तब जाकर सही सफ़ाई होगी...और सबसे ज़रूरी हमें खुद भी पाकसाफ़ रहना होगा...
जय हिंद...
संसद, सांसद, मंत्री आदि को याद रखना चाहिये कि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया "लोक-प्रतिनिधित्व" के गिर्द घूमती है जिसमें किसी की भी तानाशाही/सुप्रीमेसी आदि के लिये कोई स्थान नहीं है। सांसद जन-प्रतिनिधि मात्र हैं, यह बात उंके ध्यान में बनी रहे तो बेहतर है। और इस जन/लोक में अनपढ से प्रबुद्ध तक, निर्धन से धनाढ्य तक अनुसूचित से अनारक्षित तक सभी आबाल-वृद्ध, नर-नारी समाहित हैं। राष्ट्र के नागरिकों के जीवन स्तर के उत्थान के लिये क्या ठोस कार्यक्रम है संसद के पास?
ReplyDeleteपहली बात तो ये कि आपकी स्पष्टवादिता पसंद आयी और दूसरी ये कि आपकी 'दूरदर्शिता' अपने सवालों से लाजवाब कर रही है.
ReplyDeleteमैं एक बात कहता हूँ.... 'कोई भी क़ानून बने, उसे कोई भी बनाए, उसके लिये कोई भी संघर्षरत हो .. क़ानून में यदि सर्व-कल्याण की भावना निहित होगी तो वह सभी निर्दोष लोगों को अच्छा लगेगा."
चुने हुए प्रतिनिधि भूल गए हैं कि वे जनता ने अपने लिए चुने हैं न कि उन्हें इसलिए चुना है कि वे अपनी मर्ज़ी चलाएं
ReplyDeleteआप कह रही है राष्ट्रवादियो की ये तकलीफ है कि बाबा के आंदोलन का ऐसा असर नही हुआ.
ReplyDeleteतो आपको बता दू कि ये बाबा के ही लाठी खाने का नतीजा है.
कि अन्ना लाठी खाने से बचे हुये है.
और इतना प्रेमपूर्वक बर्ताव हो रहा है.
वरना कांग्रेस अन्ना का रस गत्रे की तरह निचोड़ देती.
और वैसे भी अन्ना टीम की वीरता तो उसी दिन साबित हो गयी थी. जब वो सुप्रीम कोर्ट की शरण मे गये थे कि उनके 16 अगस्त के अनशन मे पुलिसिया तांडव न हो.
एक तरफ कहते है हम लाठी खाने को तैयार है.
दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट जाते है कि आंदोलन मे पुलिसिया तांडव न हो.
बात पचती नही है.
और जहाँ तक बात है सड़को पर हुजुम निकलने की.
वो किसी अन्ना का असर नही है.
क्यो कि अनशन तो अन्ना ने 4 अप्रेल को भी किया था. तब कितनी भीड़ निकली थी?
ये भीड़ निकली है उस गुस्से के कारण जो 4 जून के पुलिसिया तांडव से लेकर 16 अगस्त तक कांग्रेस के तानाशाही रवैये और बयानो से जनता के मन मे पनप रहा था.
और आधी भीड़ तो भीड़ देखकर ही निकल रही है.
विरोध केवल इतना है
ReplyDeleteकि जिस व्यक्ति का मिशन पूरे भारत की व्यवस्था परिवर्तन का है. अन्ना या अन्ना की टीम उस व्यक्ति के मिशन को अपने बयानो या क्रियाकलापो से कमजोर न करे. बाकि ये कुछ भी करे. कोई फर्क नही पड़ता.
यद्यपि इस प्रकार के अतिवाद की बात अभी कल्पना ही कही जा सकती है,आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न अवश्य ही विचारणीय हैं। न्यायपालिक को संसद के क़ानूनों की व्याख्या का ही नहीं,समीक्षा का अधिकार भी है। इसलिए,हमारे यहां वास्तविक स्वतंत्रता न्यायपालिका की है,संसद की नहीं।
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख , बहुत ही उम्दा प्रश्न रखे हैं आपने, 'लोकतन्त्र' ये जो शब्द है वो खुद ही कह रहा है की मेरा मतलब क्या है, लोक मतलब जनता तंत्र मतलब व्यवस्था जो की जनता ने बनाई है, देश मे वही होना चाहिए जो जनता चाहती है। और जनता चाहती है की जन लोकपाल बिल पास हो।
ReplyDeleteanshumala ji,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने.आज खुशदीप जी के ब्लॉग पर भी नज़र पडी वहाँ आपके कमेंट देखकर तबीयत खुश हो गई.पर यहाँ आपसे एक शिकायत है आपने कट्टरपंथियों की तो खबर ली पर उन कथित सेकुलर वामपंथी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों को क्यों छोड दिया जो सबसे ज्यादा चिल्ला रहे है.अभिव्यक्ति की आजादी की पराकाष्ठा को समझने वाले इन लोगों को वास्तव में कोई फर्क नहीं पडेगा यदि कश्मीर भारत से आजाद हो जाए बल्कि इसके लिए तो इन्होने वैचारिक अभियान छेड रखा है क्योंकि इन्हें राष्ट्र नाम की किसी अवधारणा में यकीन ही नहीं है और इन्हें लगता है कि कश्मीर पर भारत का कोई हक नहीं बनता.इस मुद्दे पर आपकी जब पहले पोस्ट आई थी तब भी मैंने कहा था सबसे बडे कट्टरपंथी ही ये लोग है क्योंकि ये केवल पाकिस्तान या मायावती की किसी गलत बात का विरोध करने पर भी आपको अल्पसंख्यक या दलित विरोधी ठहरा सकते है.और जहाँ तक मेरी जानकारी है अंबेडकर का नाम लेकर ये इस आंदोलन को दलित विरोधी या कुछ और नहीं बता रहे (मैं गलत भी हो सकता हूँ)बल्कि इसलिए बता रहे है क्योंकि इस आंदोलन को बीजेपी के साथ ही उन संगठनों का समर्थन मिल रहा है जो ब्राह्मणवादी,अल्पसंख्यक विरोधी या महिला विरोधी माने जाते है(जो कि बहुत हद तक सही भी है).और इन्हे लगता है कि ये संगठन इस बहाने जनता में पैठ बनाने में कामयाब हो जाएंगे.लेकिन ये लोग यह समझ पाने में असफल है कि जनता केवल भ्रष्टाचार का विरोध कर रही है उसे किसी संगठन से कोई मतलब नहीं है.और इस विरोध में दलित अल्पसंख्यक महिलाएँ सब शामिल है.वैसे आपकी पोस्ट से मेरी पूरी सहमति है.
जनता से ऊपर कोई नहीं है....और ये तो आजकल की गतिविधियों से पता चल ही रहा है......संसद में भी जनता के प्रतिनिधि ही हैं....
ReplyDeleteदलीलें तो बहुत सी दी जा रही हैं....पर उनके मायने खो गए हैं...
sarthak prastuti .aabhar .ye bhi dekhen
ReplyDeleteअंशुमाला जी को हमारी ओर से बधाई
दोनों सवाल एकदम सटीक है....... सच में इन हालातों में कौन चुप बैठेगा ..... वैसे क़ानून और जनप्रतिनिधियों का काम ही जनोपयोगी कार्य करना है यह इन्हें समझना चाहिए
ReplyDeleteवास्तव में आज होना यह चाहिए था कि सभी राजनैतिक दल एक साथ बैठकर अन्ना के जन लोकपाल पर विचार करते और इसे संसद के मानसून सत्र से अलग रखने का निर्णय भी करते.
ReplyDeleteदेर से आयी हूँ इसलिए सभी की टिप्पणी नहीं पढ़ पा रही हूँ। जब से होश सम्भाला है तब से राजनैतिक घटनाओं को बेहद करीब से देखा है लेकिन ऐसा विचार पहली बार सुनने में आ रहा है कि जनता से बड़ी संसद है। आज तक यही सुनने में आता था कि हम जनप्रतिनिधि हैं। मुझे याद आ रहा है शाहबानो प्रकरण, जिसके अन्तर्गत जनता की मांग पर संविधान से परे जाकर निर्णय किया गया था। ऐसे कितने ही प्रकरण है। देश में प्रतिदिन आंदोलन होते हैं और उनकी मांगे मानी भी जाती है लेकिन इस बार जो भाषा बोली जा रही है उससे राजशाही की बू आ रही है। आपका कथन बिल्कुल सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति श्रेय किसे मिलेगा इस बात पर चिंतित है लेकिन देश को किस बात से लाभ होगा इस बात की चिन्ता नहीं है। मैं मुद्दा उठाऊँ तो ठीक तू उठाए तो गलत, आज यह मानसिकता देश के लिए हानिकारक है।
ReplyDeleteहमें संसद का आदर करना चाहिए इस पर एक व्यक्ति की यह उक्ति मुझे बड़ी पसंद आई कि हम सनासाद का आदर करते हैं, लेकिन (भ्रष्ट) सांसदों का आदर करने को बाध्य नहीं हैं.
ReplyDeleteयह जनता की चुनी सरका र है.. बड़ा अच्छा लगता है सुनकर. मगर सारे लोग कृपया चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाईट पर जाकर पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देख लें और बस ज़रा सा विश्लेषण करके देख लें तो समझ में आ जाएगा कि ये सरकार किसने चुनी है...
इसलिए अब जब जनता को और आने वाली सरकारों को यह सोचना चाहिए कि एक बड़ा वर्ग वह भी है जो प्रतिनिधियों को "नहीं चुनता" है... एक बार यह हो गया तो जब सारी जनता चाहे कि धार्मिक स्वतन्त्रता, कश्मीर स्वायत्तता तो हो जाने दो.. लेकिन पहले ऐसी सरकार लेकर आओ..
है कोई जवाब इस मीठ्ठे-मीठ्ठे गप और कड़वे-कड़वे थू का..........
ReplyDeleteवाह! आपका सुन्दर सार्थक लेख और उसपर हुई टिप्पणियों को पढकर मन गदगद हो गया.
ReplyDeleteआपने मेरे ब्लॉग पर अपनी एक सुन्दर झलक दिखलाई,इसके लिए आभारी हूँ आपका.
हमें ईमानदारी से सोच-समझ कर चलने की जरुरत है.
मुझे तो सभी विवादों को छोड़ कर अन्ना का साथ निभाने में ही भलाई दिखती है.
जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.
bahut hypothetical sa question aapne kah diya:)
ReplyDeleteरोहित के कमेंट में लिखी बात "आपको बता दू कि ये बाबा के ही लाठी खाने का नतीजा है. कि अन्ना लाठी खाने से बचे हुये है.
ReplyDeleteऔर......" से अपनी भी सहमति है।
गिरिजेश जी ने अपने ब्लॉग पर लिखा था कि ऐसे मुद्दे कोई गिरहकट भी उठायेगा तो उसे समर्थन मिलना चाहिये, अपने को बहुत ठीक लगा था। कुछ न करने से बेहतर तो यही है कि जो कर रहा है उसके मिशन को sabotage न किया जाये।
कल के एक दैनिक अखबार में मिर्च मसाला कालम के अंतर्गत कुछ अंदर की बातों की तरफ़ इशारा था, पढ़कर काफ़ी कुछ अंदाजा लगता है कि विरोध करने वाले क्यों विरोध कर रहे हैं। सबके लिये बेशक यह सत्य न हो लेकिन कुछ लोगों के लिये तो है ही।
@ संजय जी
ReplyDeletehttp://mangopeople-anshu.blogspot.com/2011/08/mangopeople.html
बाबा के बारे में तो ज्यादा कुछ नहीं कहूँगी वरना मुद्दा भटक जायेगा हा बाबा पर चली लाठी का क्या मतलब था ये आप ऊपर दिये लिंक में जा कर मेरे विचार पढ़ा सकते है |
अंशुमाला जी ! धन्यवाद ...इस विचारपूर्ण आलेख के लिए.
ReplyDeleteअट्टकुल के वज्जीसंघ में प्रजा को यह अधिकार था कि वह राजा को पदच्युत कर सके....और नए राजा का चुनाव कर सके. लिच्छिवियों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था से विश्व को प्रथम बार परिचित कराया था. यह गौरव बिहार को जाता है. आज जो यथास्थितिवादी लोग संसद को जनता से ऊपर मानते हैं उन्हें भारत की प्राचीन आदर्श व्यवस्था के आलोक में पुनर्विचार करना चाहिए. देश की संसद यदि जनता के हितों के प्रति उदासीन हो तो उसे रहने का कोई अधिकार तो नहीं ही है बल्कि जनता का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वह संसद को बदल दे. यहाँ संसद उदासीन ही नहीं निरंकुश शोषक हो गयी है. अन्ना का आन्दोलन कई भ्रमों को मिटाने में सफल रहा है. बाबा जी पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा.