October 24, 2011

हिंदी ब्लॉग जगत घुटन भरे जीवन से बाहर निकालने के लिए धन्यवाद - - - - mangopeople


                                                                          कहते है की दुनिया में सबसे ज्यादा अंदर से दुखी सबसे बड़ा हंसोडा होता है बाहर से वो भले हँसता मुस्कराता दिखता है पर अंदर बहुत दुःख घुटन भरा होता है और जब वो घुटन अपनों को द्वारा हो तो कष्ट कुछ और भी बढ़ जाता है | कुछ ऐसा ही था मेरे भी साथ,  आज भले ही हर बात पर एक मज़ाक करती टिप्पणी और उसके साथ इस्माइली लगा देती हूँ किंतु ब्लॉग में आने के पहले ऐसा नहीं था | जीवन में वो कुछ भी नहीं था जो मैंने जीवन से चाह था,  जिस तरह के परिवार से मैं आई थी,  ससुराल पति उससे कही ज्यादा विपरीत थे,  ऐसा नहीं था की विवाह के पहले कुछ मालूम ही नहीं था,  ससुराल के परिवार के बारे में जानकर कुछ तो अंदाजा था और ये समझौता तो अपनी ख़ुशी से मैंने ही किया था |  किंतु कहते है ना की समझौता तो समझौता ही होता है अपनी ख़ुशी से किया जाये या मज़बूरी में वो मन में कही ना कही सालता ज़रुर है | जीवन के सात कीमती साल मैंने बस कस्मसाते हुए गुजार दिए | आज व्यंग्य करती मज़ाक करती अंशुमाला को देख कर आप में से शायद ही किसी को कभी इस बात का अंदाजा हुआ हो की मैं अंदर से कितनी दुखी और परेशान थी |
                                     इन सब की शुरुआत तो विवाह के छ सात दिन बाद ही हो गया था जब पति देव की असलियत मेरे सामने आ गई ( वो अलग बात है की सदा उनकी बुराईयो को छुपा उनकी अच्छाई ही सब जगह कही है ) हमारी छोटी सी बहस को मैंने जब झगड़े का रूप दे दिया पर पति देव तो बस चार बार मुझे जवाब देने के बाद एक दम से- - - -- --  - - ---- - - -- - -- - - - - - चुप ही हो गए और मेरी बात मान कर कहा की अब इसे यही खत्म करो, उनका ये व्यवहार  मेरे लिए ये किसी आघात से कम नहीं था,  मैंने कहा की क्या बस इतना ही क्या आप को झगड़ा करना नहीं आता तो उन्होंने साफ मना कर दिया नहीं मुझे नहीं आता | आप तो अंदाजा भी नहीं लगा सकते की उस समय मुझ पर क्या गुज़री , विवाह के पहले ही पता था की मेरी सास नहीं है दिल को मना लिया की चलो झगड़ा करने और मोहल्ले भर में किसी और की बुराई बढ़िया लुंगी , ननदे जिठानी मुझसे दूर रहती थी तो क्या जब फोन पर बाते होंगी या कभी मिले तो उन्हें ताने मार लिया करुँगी कभी व्यंग्य बाण चला लिया करुँगीरोज न सही कभी कभी ही सही,  पर पति तो पास होगा झगड़ा तो हर दूसरे दिन कर खाना पचा लिया करुँगी , पर मेरी फूटी किस्मत की पति देव को झगड़ा ही नहीं करने आता था , हद तो तब हो गई जब मेरे सटायर , व्यंग्य तक पर प्यार से मुस्करा देते थे, हाय ! तब पता चला की इन्हें तो ये भी समझ नहीं आता है,  मुझे ही ये बताना पड़ता है की अजी मैंने आप पर ताना कसा है सटायर मारा है,  तो कहने लगे अच्छा मुझे तो पता ही नहीं चला | बोलो अब ऐसे लोगो के साथ जीना भी कोई जीना है बंधुओं | ये सब यही ख़त्म नहीं हुआ दर्द तब और बढ़ गया जब इमारत की सभी महिलाओ ने अपनी सास ननद निंदा समूह से मुझे दो महीने में ही बाहर निकाल दिया कहने लगी की ये नहीं चलेगा की हमारे ससुराल वालो की बुराई खूब रस ले ले कर सुनो और अपनी कुछ भी न कहो | जीवन बिना झगड़े , बिना किसी का मज़ाक, व्यंग्य किये , बिना सटायर,  बातों को उलटा बोले चल सकता है | अरे इन सब के बिना भी जीना कोई जीना था और वो भी मेरे जैसी लड़की ( अरे तब मैं तो लड़की ही थी ना,  वैसे भी आप क्या जाने इस उम्र में खुद के लिए लड़की लिखा जाना कितना सुहाता है )  के लिए जो उस परिवार से आई थी जहा बिना किसी भेद भाव , रंग रूप जाति पाति धर्म रिश्ता देखे सभी का एक सुर में मज़ाक उड़ाया जाता है सभी मिल कर किसी किसी की टाँग खीचते है | बचपन से ये देखती आई थी,  ये सब तो मेरे खून में था सोचा था बड़ी हो विवाह होगा तो अपने घर के ये महान काम को और आगे ले जाउंगी दूर दूर तक फैलाऊँगी , किंतु सब ख़त्म हो गया | 
                     पर कहते है ना भगवान के घर देर और अंधेर दोनों ही है, मेरी जोड़ी ऐसे व्यक्ति के साथ बना कर अंधेर करने वाले भगवान ने भी देर से ही सही मुझे इस घुटन से आज़ादी दिला दी और एक दिन मेरा परिचय हिंदी ब्लॉग जगत से करा दी | लगा जैसे कोई अपना सा मिल गया,  यही है वो जिसको मुझे वर्षो से इंतजार था |   हर तरफ लोगो के भड़ास बिखरे पड़े थे , मेरी तरह ही घुटे हुए लोगो की घुटन खुल कर बाहर आ रही थी , हर तरफ झगड़े विवाद चल रहा था | लगा जैसे मेरा ही परिवार, मेरा ही शहर यहाँ हो, वही खुद को सभी से समझदार समझना , वही सारी बुद्धि का ठेका खुद लेकर बैठे होने का दावा करना , वही दूसरों पर व्यंग्य कसना , वही किसी की टाँग खिचाई करना,  वही मिल कर किसी एक का मज़ाक उड़ाना ,नहा धो कर किसी के पीछे पड़ जाना , वही बस अपनी ही हर बात पर अड़े रहना , वही हर बात पर बहस करना , वही ताने कसना और ये कहना की हम महिलाओ की बड़ी इज़्ज़त करते है बस वो महिलाएँ मेरे घर की हो बाकी बाहर की महिलाओ को हम महिलाओ की गिनती में नहीं रखते है यदि वो हमारे खिलाफ या कहे की वो बोलने की भी हिम्मत करेंगी तो उनकी तो हम बीप बीप बीप ( श्री श्री अमिताभ बच्चन के मुख कमलो से लिए गए शब्द जहा आप अपने स्तर और स्वभाव जानकारी के अनुसार अपनी पसंद की गाली जोड़ कर पढ़ सकते है ) कर देंगे | धनभाग हमारे की हम हिंदी ब्लॉग जगत से जुड़े यहाँ आकर जिन जिन गलियों को हमने लिपि बध रूप में पढ़ा और अपने गालियों का ज्ञान बढाया वो कही और संभव नहीं था | क्या है की बचपन तो बनारस में गुजरा जहा परिवार में तो कोई गाली नहीं देता था किंतु आस पास सभी के मुख मंडल से प्रेम पूर्वक जो गाली रूपी पुष्प गिरते थे वो ठीक से समझ नहीं आते थे एक तो बिलकुल ठेठ भाषा की समस्या आती दूसरे उच्च स्वर में शुरू हुई गाली पता नहीं क्यों बाद में निम्न स्वर में आ जाती थी, जिससे गाली आधी की समझ आती थी यही कारण  था की हमारा गाली ज्ञान उतना अच्छा नहीं था | किंतु भला हो हमारे ब्लॉग जगत का जहा बाक़ायदा हर शब्दों का अच्छे से पढ़ने का मौका मिला बल्कि कई नई गलियों का भी ज्ञान हुआ धन्यवाद ब्लॉग जगत |  उसके बाद जो कलम ( असल में तो उंगलिया चली कहते तो कलम ही है ना ) चली की पूछो ही मत | कभी प्रवचन तो कभी जहर बुझे व्यंग्य के तीर , तो कभी लंबी लंबी हाकना पोस्ट तो पोस्ट टिप्पणियों की लम्बाई भी लंबी , तो कभी तीखे सटायर , तो कभी किसी की हर बात की ही आलोचना करते रहना हा कहे तब भी ना कहे तब भी ,  और लोगो को टिप्पणी देने का ऐसा चस्का लगा की पोस्ट भी लिखने की सुध नहीं रहती कभी कभी | ज्यादातर लोग तो मुझे टिप्पणीकार के रूप में ही जानते होंगे बजाये एक ब्लॉगर के | टिप्पणियों का अपना मजा है जा कर किसी के अच्छे खासे लेख का बेडा गर्क कर दो,  मेरे आने के पहले जिस पोस्ट में सब आप से सहमत है लिख कर जा चुके हो वह टिप्पणी में ऐसी बात लिख मारो की सब लेखक को छोड़ मुझे से ही सहमत हो कर चले जाये और लेखक जल भुन जाये  , या लेख का दिशा ही बदल दो कोई नई बात लिख कर की लोग पोस्ट के बजाये टिप्पणी पर ही वाह वाह कर बैठे , या पोस्ट पर ऐसा विवाद खड़ा कर दो टिप्पणी दे कर  की लेखक भी बार बार सोचे की आखिर विवाद हुआ क्यों था ,  जहा दिखे की पोस्ट लिखने वाला खुद को ज्यादा विद्वान समझ रहा है वहा पर कई पोस्ट पर विपरीत बाते लिख अपनी विद्वानिता झाड़ देती हूँ की बेचारे ब्लॉगर को अंत में मुझे विद्वान मान अपना पिंड छोड़ने के लिए कहना पड़ जाये और जहा पर ब्लॉगर की बड़ी बड़ी उच्च कोटि की हिंदी समझ ना आये तो टिप्पणी भी ऐसे कर दे की जब बात में मई खुद ही पढ़ो तो खुद ही समझ ना आये की आखिर इसका मतलब क्या है |   मतलब ये की जीवन में जो करने की इच्छा थी सब यहाँ पूरा होने लगा |
                                                  यहाँ आ कर मेरे मन को जो सुख चैन मिला वो सात सालों की घुटन को कुछ ही समय में भुला दिया | अब बुराई करने के लिए किसी सास की जरुरत नहीं इतने ब्लॉगर और उनकी करनी( पोस्ट ) है की आप बुराई करते करते थक जाये, पर ना तो  ब्लॉगर खत्म होंगे ना बुराई करने के लिए पोस्टे,  खुद का विषय सोचने की जरुरत ही नहीं है बस दूसरे की पोस्टो की बुराई लेकर बैठ जाइये देखिये कैसा पाठक खींचा चला आता है आप के पास निंदा रस का रस और बढ़ाने ले लिए , ताने कसने व्यंग्य बाण चलाने के लिए ननद , जिठानी की या नीचा दिखने के लिए किसी गरीब रिश्तेदार की जरुरत नहीं है लोगो के पोस्टो का विषय ही काफी है किसी का भी मज़ाक उड़ाने के लिए और नीचा दिखने के लिए हिंदी का ज्ञान ही काफी है |  वर्तनी से लेकर भाषा अलंकार समास आदि आदि जो मिले उसी की धज्जी उड़ा दे अच्छी खासी पोस्ट को हिंदी का निम्न स्तर की लेख बता दे और आगे बढे और ब्लॉगर को हिंदी ब्लॉग जगत का कलंक भी बताने से ना चुके  ,  और जलने के लिए किसी पड़ोसी की जरुरत नहीं है, हाय उसके ब्लॉग पर मेरे ब्लॉग से ज्यादा टिप्पणियाँ कैसे आती है , फलाने ब्लॉगर तो बस उन्ही को टिप्पणी करते है हमें नहीं , अजी वो महिला है ना इसलिए , अरे नहीं ये तो टिप्पणीकार ही फ़र्ज़ी है आदि इत्यादि |
                                                                        हिंदी ब्लॉग जगत को देख कर लगा की जैसे ये बस मेरे जैसो के  लिए ही तो बना है जो जीवन में सपने तो कई देखते है पर करते कुछ नहीं है , बाते बड़ी बड़ी और काम एक भी नहीं,  जो ज़मीन पर कुछ करने के बजाये बस लोगो के सामने लंबी लंबी फेंकने में उस्ताद होते है | काहे की जो काम करता है वो तो मैदान में जा कर लड़ा रहा होता है अपना सपना पूरा कर रहा होता है ना,  उसके पास दूसरों को सुनाने के लिए ना इतना कुछ होता है और ना ही इतना समय होता है बकबकाने के लिए |तो भाइयों और बहनों , जैसे की हर धार्मिक कथा के अंत में कहा जाता है,  की जैसे ब्लॉग मैया हमारा दुख दूर की हमें घुटन से आज़ादी दिलाई वैसे ही ब्लॉग मैया सभी का बेडा पार करे सभी को सुख चैन दे और सारा धन धान्य हमरे घरे भेज दे |
                                          ये सब आज क्यों ? 
 क्या आज मेरे ब्लॉग का साल पूरा हुआ है ?  अरे नहीं जी वो तो कब का हो गया , 
तो क्या सौ वी दोसौवी पोस्ट है ? लंबी लंबी उबाऊ टिप्पणी लिखने से फ़ुरसत मिले तब तो सौ पोस्ट लिखे |
 क्या ब्लॉग छोड़ कर जा रही है, और टंकी पर चढने वाली है ? अरे मालूम है की कोई टंकी से उतारने ना आएगा उलटा टंकी के नीचे लगा सीढ़ी भी हटा देंगे की कही उससे उतर कर वापस ब्लॉग जगत में ना आ जाये |
      तो फिर ??
               जी आज मेरा हैप्पी वाला बड्डे  है ,  सोचा पिछली बार आप लोगो से तोहफे की मांग की थी पर किसी ने ( राजेश जी की एक कविता को छोड़ ) कुछ नहीं दिया था ,एक सौ एक रुपये की तरह एक टिपण्णी थमा कर     १००० रुपये वाली प्लेट का खाना  खा के चल दिए थे !!  हूं  :)))  | किंतु उसके बाद एक साल में लगा की लोगो ने कितना कुछ दिया है मुझे  हिंदी ब्लॉग जगत का प्लेटफॉर्म दिया बकबकाने के लिए  , टिपियाने और अपनी भड़ास निकालने के लिए कितनी पोस्टे दी , मेरी पोस्टो पर आ कर मेरी हर उल जलूल लेखनी की वाह वाही की क्या ये किसी तोहफे से कम है तो सोचा इस  जन्मदिन पर आप सब के दिए तोहफे के लिए आप सभी का धन्यवाद कर दू
      तो हिंदी ब्लॉग जगत मुझे मेरे घुटन भरे जीवन से बाहर निकालने के लिए धन्यवाद !!!!!!
 

         अब मेरे जन्मदिन पर आये है तो केक का हक़ तो बनता है आप लोगो का |
                 


                                              


        
                                                                     

October 18, 2011

औरत है न इसलिए ज्यादा चिल्लाती है - - - - - mangopeople



"औरत है न इसलिए ज्यादा चिल्लाती है "
निश्चित रूप से ये सुनने के बाद मेरे अंदर की औरत या कह लीजिये नारीवाद को जागना ही था | मैंने भी जवाब दिया की "औरत यू ही नहीं चिल्लाती है ज़रुर कोई तकलीफ़ होगी तभी चिल्ला रही है , क्या भूखी है "
"नहीं मैडम खाना तो खा चुकी है"
"तो ज़रुर उसके बच्चे से अलग किया होगा"
" तो क्या करे ,सारे दिन  बच्चे के पास ही बैठी रहेगी तो फिर आप लोगो को घूमने कौन ले जायेगा |
देखा मैंने कहा न ज़रुर कोई तकलीफ़ होगी तभी वो चिल्ला रही है उसके बच्चे से उसे अलग करोगे तो क्या वो चिल्लाएगी नहीं |
अभी हाल में ही राजस्थान गई थी तो वहा जा कर ऊंट की सवारी तो करनी ही थी ,  मेरे बैठने के बाद जब पति देव अपने ऊंट पे बैठने लगे तो वो जोर जोर से चिल्लाने लगी और दोनों ऊँटो के मालिक हाथों से उसका मुंह बंद करने लगे जब मैंने कहा की ये क्यों चिल्ला रही है तो उसके जवाब में बड़े बे फिकरी से और हंसते उसने हमें बताया की वो औरत है इसलिए ज्यादा चिल्लाती है ( वो हमें बताना चाह रहा था की ये मादा ऊंट है ) गलती उसकी नहीं है असल में हजारों वर्षो से महिलाओ के लिए ऐसे ही सोच समाज द्वारा बना दी गई है की महिलाएँ बस बिना कारण बोलती और चिल्लाती है उनकी बातों को ज्यादा सुनने या महत्व देने की जरुरत नहीं है और ये महत्वहिन होना उनकी बातों से चला तो उनके अस्तित्व तक आ गया , अब उनके होने को ही महत्वहीन बना दिया गया है | यही कारण था की जब मैंने ऊंट के मालिक से सवाल किया की भाई तुम्हारे गांव में कल और आज दो दिन में मैंने लड़के ही लड़के देखे है लड़की तो मुझे बस एक ही दिखी तो जवाब में उसने कहा की होती तो है पर लड़कियाँ न कमजोर होती है बचतीं कहा है गांव है यहाँ कौन डाक्टर मिलेगा तो मर जाती है |
"मर जाती है या मार दिया जाता है | '
" अरे नहीं अब पहले जैसा नहीं है अब तो बहुत कम लोग ही मारते है | "
मेरे सवाल पर उसके द्वारा बड़े आराम से सहज स्वीकृति मेरे लिए आश्चर्य जनक था मुझे विश्वास नहीं हो रहा था की वो इस बात को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेगा,  उसे तो जरा भी झिझक नहीं हुई ये मान लेने में की आज भी लोग बेटी को जन्म लेने के बाद मार देते है | थोड़े देर बाद फिर पूछा की
" तुम्हारे यहाँ तो सरकार बेटी होने पर पैसे देती है |"
" जब बच्चे अस्पताल में होंगे तब ना यहाँ तो सब बच्चे घर में ही होते है |"
" तो क्या यहाँ सरकारी अस्पताल नहीं है क्या "
" है तो लेकिन वहा डाक्टर कहा होते है सुबह कुछ घंटे के लिए आते है फिर चले जाते है "
" यदि किसी की ज्यादा तबियत ख़राब हो गई तो "
'तो फिर गाड़ी करके शहर ले जाते है "
 " तब तो वहा तो १४०० रु मिलते होंगे ना बेटी होने के फिर क्यों मार देते हो "
वो थोड़ी देर चुप रहा फिर कहा " १४०० रु में क्या होता है इतने में क्या बेटी पल जायेगी लालन पालन दहेज़ सब १४०० रु में होता है क्या '
जी तो किया की पूंछू की बेटे कैसे पलते है क्या उन्हें पालने में पैसे खर्च नहीं होते है क्या उनके विवाह में पैसे खर्च नहीं होते पर जाने दिया जानती थी की उसके पास मेरे बातों का कोई सही जवाब नहीं होगा फिर उसने तो ये परंपरा बनाई नहीं है वो तो बस बिना दिमाग लगाये उसे आगे बढ़ रहा होगा | जब हम घूमने के बाद ऊंट से उतारे तो बच्चों के झुंड ने फिर हमारे करीब आ कर खड़े हो गए और लड़कों का झुंड लड़की से कुछ खुसुर फुसुर करने लग तभी लड़की आगे बढ़ी और हमारी बिटिया रानी से पूछी " वॉट इस योर नेम " उसे बिना झिझक आगे बढ़ अंग्रेजी में सवाल करता देख बिटिया से पहले मैंने उससे पूछा स्कूल जाती हो तो उसने ना में सर हिला दिया तो वो सारे लड़के जाते है क्या तो उसने धीरे से कहा हा | समझ गई की बिना स्कुल के ही वो वहा आने वाले पर्यटकों से सुन सुन कर सिख गई होगी इन प्रतिभाओ को दुसरे कब समझेंगे पता नहीं |
                           आप पढ़ने वालो सोच रहे होंगे कि बेचारा सही कह रह है बेटियों के दहेज़ को लेकर माँ बाप में चिंता तो होती ही है यही कारण है की बेटिया मार दी जाती है गरीब लोग और क्या कर सकते है फिर अनपढ़ भी था इसलिए सब बोल गया तो जरा रुकिए ये लेख अभी ख़त्म नहीं हुआ है | अब राजस्थान गये है तो बिना बड़े बड़े महलों किला राजा महाराजो की बातों के बिना पूरी थोड़े ही होती है | ऐसे ही एक महल घुमाते हुए गाइड हमें दिखाने लगा की देखिये ये सोने चाँदी के बने पालने इनमें हमारे राजकुमार सोते खेलते थे हर राजकुमार के लिए एक अलग शानदार पालना होता था बाकी के लिए साधारण होते थे |  मैंने कहा की बाकी के कौन ? वही जो रानियों से अलावा होते थे उसने जवाब दिया | तो ये सारे पालने रानियों से हुए राजकुमार राजकुमारियो के लिए थे मैंने पूछा | नहीं नहीं ये बस राजकुमारों के लिए थे राजकुमारिया तो साधारण लकड़ी के बने पालनो में रहती थी | मन ही मन सोचा की  वाह जी वाह क्या बात है राजकुमारियो की स्थिति राजाओ के नाजायज आलौदो के बराबर थी बहुत खूब यहाँ कौन सी गरीबी का वास है यहाँ किस लालने पालने की कमी है फिर भी अपनी ही बेटी और बेटों के साथ इतना भेद,  नाजायज औलदो की तरह ही बेटी के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं क्या जा रहा है | मैंने फिर उससे पूछ तो फिर कितनी बेटी थी राजा को जरा जवाब सुनिए अरे बेटिया बचतीं ही कहा थी | इस बार ये सुन कर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ इस बारे में भी सुन चुकी थी की कई बार राजाओ के घर भी बेटिया मार दी जाती थी ताकि विवाह के समय दूसरों के सामने सर ना झुकाना पड़े,  राजशी परिवार से थे किसी के सामने सर नहीं झुका सकते थे और जो नहीं मारते थे वो बेटियों के प्रयोग वस्तु की तरह राज्य की सुरक्षा,  सम्बन्ध बनाने के नाम पर एक दूसरे को विवाह के नाम पर दे देते थे | फिर उससे भी मैंने आज के हालत पर सवाल किया " तो आज कल भी बेटिया ऐसे ही नहीं बचतीं है ना यहाँ, या आज भी बेटिया मार देते है "
 " नहीं ये सब अब यहाँ कहा होता है अब लोग ऐसा नहीं करते है " उसने तुरंत जवाब दिया |
"  पर लड़कियों की संख्या तो राजस्थान में बहुत ही कम है " जानती थी ये इतनी जल्दी स्वीकार नहीं करेगा पर उसने भी स्वीकार करने में जरा भी देरी नहीं की दूसरे सवाल के बाद ही मान गया |
" शहरों में एक आध लोग करते होगें हा गांवो में होता है ये सब शहरों में नहीं | "
 अब बोलिए गाइड अनपढ़ गावर नहीं था और ना ही मैं किसी गरीब के घर में खड़ी थी फिर भी बेटियों को लेकर वही सोच | ये सोच बस बेटियों को ही लेकर नहीं था ये सोच पूरी महिलाओ के लिए था | राजा का रंग महल दिखाते हुए गाइड सीना फूला कर बताता है की फला राजा की ३६ रानिया थी राजा को सभी को खुश करने के लिए अफ़ीम खानी पड़ती थी | 
"तो राजा फिर इतनी शादियाँ करता ही क्यों था " जवाब मालूम था फिर भी पूछ लिया |
" उस समय राजा शादी तो राज्य के लिए करता था राज्य को सुरक्षित बनाने के लिए | पर आज कौन करता है आज तो एक अकेली ही १३६ के बराबर होती है | "
मैंने जवाब दिया की " ज़रुरी भी है यही एक अकेली १३६ के बराबर ना हो तो आज भी लोग ३६ शादियाँ ना करने लगे और ये बताओ की फिर रानियों के अलावा भी उसके दूसरे बच्चे क्यों होते थे , उसकी क्या जरुरत थी राजा को | वो ना करता तो शायद अफ़ीम कम खानी पड़ती और ज्यादा ध्यान राज काज पर देते और ना इतने पैसे इन रंग महलों पर बहाते और ना देश में बाहरी आक्रमण से ये हालत होती | " मालूम था की इस बात का कोई जवाब उसके पास नहीं होगा एक गाइड ही था कोई इतिहास कार नहीं | वो बस मुस्करा कर इतना ही कह पाया की राजा लोगो को सब करना पड़ता था |
                                                           असल में समाज के लिए महिलाओ को अस्तित्व उपभोग की वस्तु से ज्यादा की नहीं थी |  बेटियों को मार देना और राजाओ के ढेर सारी पत्नियों के बाद भी अन्य स्त्रियों से रिश्ता रखना  उनकी सोच को दर्शाता है और अपनी रानियों को सौ पर्दे में रखना की बाहरी पुरुष उसकी एक झलक भी ना देख पाए ,हा शायद डरते हो की मेरी तरह ही ये भी महिलाओ को बस भोग की वस्तु समझता है और इसकी गंदी नजर कही मेरी महिलाओ पर ना पड जाये | उफ़ इतना पर्दा की महारानियो को बाहर देखने के लिए ढंग की खिड़किया तक नसीब नहीं थी जालीदार झरोखे होते थे जिसमे से रानिया बाहर देखती थी ( विश्वास कीजिये उसमे से ढंग से बाहर का कुछ भी नहीं दिखता था ) ताकि कोई बाहर का उन्हें ना देख ले महल के बाहर तो छोडिये महल के अंदर भी पर्दा था | देख लगा की क्या इस जीवन को देख कर कोई भी कहेगा की वो किसी महारानी का जीवन जीना चाहती है,  तौबा कोई भी नहीं जीना चाहेगा इस जीवन को |
                                                      रानी पद्मावती के "जौहर" करते हुए की पेंटिंग दिखाते हुए गाइड उनके शौर्य उनके हिम्मत और सुंदरता की गाथा गा रहा था उसे देख कर लगा की काश ये हिम्मत किसी और रूप में दिखाई गई होती काश की समाज का रूप कुछ और होता काश की महिलाएँ दुश्मन से अपनी रक्षा के लिए "जौहर प्रथा " की जगह कोई और जौहर दिखाती, काश की आत्महत्या करने की जगह वीरो की तरह पुरुषों के साथ तलवार ले युद्ध के मैदान में निकल जाती,  मरना तो यहाँ भी था और वहा भी | कम से कम मरने से पहले अपने राज्य और उसकी प्रजा के लिए कुछ कर जाती, कुछ दुश्मनों की गर्दन ही उड़ा देती क्या पता हार को ही बचा लेती | कुछ नहीं तो कम से कम महलों में घुसे दुश्मनों के ही सर तलवारों से उड़ा कर लड़ते हुए वीरगति को पा जाती , तो शायद "खूब लड़ी मर्दानी वो तो-----  " जैसी कोई कविता कही पहले कवी चन्द्र वरदाई द्वारा लिख दिया गया होता | शायद हमारे समाज का रूप और देश का इतिहास भूगोल ही कुछ और होता | काश की समाज में महिलाओ को उपभोग का सामान ना समझा जाता काश की महिलाओ को अपनी रक्षा के लिए जौहर प्रथा को ना अपनाना पड़ता | इस प्रथा के बारे में सोचती हूँ तो लगता है जैसे महिलाएँ उपभोग की वस्तु भर थी और उनका उपभोग बस उसका मालिक ही कर सकता था कोई दुश्मन उसका उपभोग ना कर सके इसलिए उन नारी रूपी वस्तुओ में एक खुद को नष्ट करने वाला एक बटन ( जैसे की फिल्मों में कोई  वैज्ञानिक अपनी खतरनाक अड्डे या मशीनों में लगा देता है ताकि उसे कुछ हो जाने पर किसी और के हाथ वो ना लगे और नष्ट हो जाये )  जौहर प्रथा के रूप में लगा दिया गया था की मालिक के कुछ होते ही वस्तु अपने आप नष्ट हो जाये |
                                                            ये प्रथाए ख़त्म नहीं हुई है चाहे जौहर प्रथा हो या पर्दा प्रथा आज भी जारी है भले किसी और रूप में ,  बलात्कार होने पर शर्म से लड़की ने आत्महत्या कर ली , छेड़ छाड़ से परेशान लड़की ने आत्महत्या कर ली , गरीब माँ बाप की बेटियों ने दहेज़ के कारण विवाह ना होने पर एक साथ आत्महत्या कर ली , दहेज़ के कारण ससुराल वालो ने जला दिया या खुद ही अत्याचारों से तंग आ कर आत्महत्या कर ली ताकि माँ बाप की इज़्ज़त बची रहे आदि आदि कितनी ख़बरे हम पढ़ते है ये क्या आप लोगो को आज भी जौहर प्रथा के होने का एहसास नहीं कराती है | क्या आज भी हम नहीं चाहते की लड़कियाँ अपने साथ रेप ना होने दे भले उनकी जान चली जाये,  कितनी वीरता से बताते है की लड़की ने जान दे दी पर अपनी इज़्ज़त (क्योंकि किसी ने उसके शरीर को ज़बरदस्ती छू दिया तो अब वो इज़्ज़त के लायक नहीं होती है ) नहीं जाने दी | हम आज भी चाहते है की लड़कियाँ जौहर कर ले और सीना फुला कर कहते है की जी हम तो उस देश के रहने वाले है जहा नारी अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए अपनी जान भी दे देती है | मतलब की उस महान देश के वासी है जहा पीड़ित , जिस पर अपराध हुआ है वही मौत को गले लगा लेता है और अपराध करने वाला बाइज्जत घूमता है | सोचती हूँ ना जाने कितने बेटों ने अपनी और अपने माँ बाप की इज़्ज़त उतारी होगी अपने महान कामों से,  कभी किसी माँ बाप या समाज ने सोचा है की इस बलात्कारी , रिश्वतखोर , चोर, डाकू बेटे को अपनी जान दे देनी चाहिए अपनी इज़्ज़त के लिए या सुना हो किसी बेटे ने अपनी या घर की इज़्ज़त के लिए जान दे दी हो | नहीं जी बेटों तो इज़्ज़त के नाम पर जान लेने के लिए होते है जान देने का काम हमने तो बेटियों पर रख छोड़ा है बिलकुल वैसे ही जैसे हमने समाज के दूसरे काम नर और नारी में बाँट रखा है | पर्दे का भी नया रूप है आज लड़कियों के लिए पढाओ उतना ही जितना की विवाह के लिए ज़रुरी है , नौकरी मत करने दो ,शालीनता ,संस्कृति सलीके से कपड़ों के नाम पर सौ पाबंदियाँ लगा दो , जितना हो सके उसे घर में बंद करके रखो और अपनी इज़्ज़त और संबंधों के लिए उनको कही भी खूंटे से बाध दो विवाह के नाम पर और कहो की जब तक जीवित है यही बंधी रहे | कुछ भी तो नहीं बदला है बस किसी अन्य रूप में समाज में आज भी मौजूद है ये प्रथाये |
                                                       
                                                                                                 हमारी बिटिया तो वहा गई थी ख़ुशी ख़ुशी प्रिंसेस को देखने और उनके महलों को देखने बचपन से कहानियाँ सुनते आ रही थी,  मैं यही बोल कर उन्हें ले गई थी पर बेचारी को ज्यादातर जगहों पर तो ना तो प्रिंसेस दिखी और ना ही उनसे जुड़े सामान ही, ज्यादातर जगह  उनका नामो निशान भी नहीं दिखा | यहाँ आ कर मुझ पर गुस्सा किया और झूठ बोलने का आरोप लगा दिया अब क्या बताऊ की कैसे और क्यों हमारी राजकुमारिया ग़ायब होती जा रही है |
 
               स्पष्टीकरण -- -- उम्मीद है राजस्थान  के लोग इस लेख को अपने राज्य की,  की  जा रही बुराई के तौर पर नहीं देखेंगे ये बात पूरे देश के लिए कही गई है | ये संयोग है की मैं राजस्थान गई और वहा ये बाते आई ये विचार आया इसलिए इसे यहाँ लिख रही हूँ | शायद हरियाणा जाती तो ये सवाल पूछने पर कोई ताऊ लठ्ठा ले मेरे पीछे पड़ जाता या पंजाब में ये सवाल करने पर मुझे माँ बहन की गलियों से नवाज दिया जाता या फिर दिल्ली में सरकारी बाबू लड़कियों की इस हालत को मानने से ही इंकार कर देता और मुझसे कहता की आँकड़े दिखाइये |



October 15, 2011

भारतीय क्रिकेट टीम का माइंड सेट कुछ तस्वीरों की जुबानी - - - - - -mangopeople

Ganguly: Do or die. 

Sehwag: Do before you die.

Dravid: Do until they die.

Tendulkar: Do that will never die.

Laxman: Do when everyone else dies.

Dhoni: Do everything before luck dies.


Sreesanth: Die but never do...!!!

Bajji : Slap till they die

Zahir : Die when doing    

                                  Yuvraj: Do, die, reborn, do, die, reborn (repeat)....
Yuvraj: Do,

die,

reborn  

   ई मेल से प्राप्त                                                      

October 13, 2011

विरोध के दो तरीके , हमला , और राजनीतिक चालबाजिया - - - - - -mangopeople



                                                             कल एन डी टीवी पर विनोद दुआ प्रशांत भूषण पर हुए हमले की निंदा करते हुए कह रहे हे की विरोध के ये तरीके गलत है आप दूसरों को विचार भिन्नता के कारण पीट नहीं सकते है विरोध के तरीकों का विरोध करते हुए उन्होंने अन्ना और बाबा राम देव की भूख हड़तालो को भी विरोध करने के तरीकों को गलत बताया और कहा की सरकारों पर भीड़ का दबाव डाल कर आप काम नहीं करा सकते है इस तरह से आप दूसरों से अपनी बात नहीं मनवा सकते है | 
                                                       
                                                                 प्रशांत भूषण क्या किसी पर भी वैचारिक भिन्नता के कारण इस तरह हमला करना गलत है |  दूसरे क्या किसी के किसी बयान से आहत हो कर उस पर हमला कर देना उसे सरे आम पीट देना और किसी कानून की मांग के लिए , भ्रष्टाचार के ख़ात्मे और भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए आम जनता द्वारा किसी तरह का आन्दोलन करना या सत्याग्रह करना , सरकार पर दबाव डालने को हम क्या एक श्रेणी का विरोध कह सकते है | मुझे उनकी कोई भी बात समझ नहीं आई जनता के किसी शांतिपूर्ण आन्दोलन को विरोध का गलत तरीका बताना समझ से परे है | क्या ये बुद्धिजीवी टाईप के लोग बताएँगे की यदि जनता को किसी बात का विरोध करना हो तो उसे कौन से तरीके से करना चाहिए | हड़ताल , तोड़ फोड़ सड़क जाम जैसे तरीके गलत है हम सभी उसका विरोध करते है इससे सरकार के साथ आम आदमी को भी परेशानी होती है किंतु यदि किसी स्थान पर लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे है सत्याग्रह कर रहे है तो उसमे क्या बुराई है, क्या जनता वोट दे कर सरकारें बदलने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकती है,  वो भी करने के लिए उसे पञ्च साल का इतंजार करना होगा,  क्या तब तक उस सरकारों की हर ज़्यादती सहते रहना चाहिए और हाथ पर हाथ धरे चुपचाप बैठ कर अव्यवस्था को खुद को लुटता हुआ देखते रहना चाहिए | और तब क्या करना चाहिए जब सरकार बनाने वाली हर राजनीतिक पार्टी ही एक जैसी हो और सामान रूप से काम करती हो | तब तो जरुरत व्यवस्था परिवर्तन की ही आ जाती है और इसके लिए एक शांतिपूर्ण सत्याग्रह से अच्छा कौन सा तरीका हो सकता है | क्या उसे हम एक चर्चा के लिए भूखे असभ्य लोगो के हिंसक मार पीट के  तरीके से जोड़ सकते है बिल्कुल भी नहीं |  दुआ जी ये कहने का प्रयास कर रहे थे की जिस तरह अन्ना की टीम ने विरोध के गलत तरीक़े को अपनाया सरकार को ब्लैकमेल किया उस पर दबाव बना कर अपनी बात ज़बरदस्ती मनवाने का काम किया अब वही उनके साथ भी हो रहा है | उनसे भी दूसरे लोग ज़बरदस्ती अपनी बात मनवाने अपनी बात कहलवाने के लिए एक गलत तरीके का प्रयोग कर रहे है  जैसे के साथ तैसा हो रहा है | ऐसी बुद्धिजीवियों की सोच पर तरस ही खाया जा सकता है |
                                                         
                                                                  जहा तक बात प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिए बयान और उन पर हुए हमले की बात है तो ये राज तो अभी काफी अंदर है की पूरा मामला क्या है और शायद ही कभी बाहर आये | क्योंकि कहा नहीं जा सकता है की ये बस एक आम सी बात है या बिल्कुल सोच समझ कर की गई चालबाजी है ताकि अन्ना और उनकी टीम के मुद्दों से ध्यान हटा कर किसी और मुद्दे की तरफ लोगो का ध्यान खीचा जाये भ्रष्टाचार की जगह अन्य मुद्दों पर जनता को बहस करने के लिए मजबूर किया जाये  | ये बात किसी से ज्यादा छुपी नहीं है की प्रशांत भूषण की राय कश्मीर को ले कर क्या है वो अरूंधती के वकील भी है | ऐसे समय पर जब वो अन्ना टीम के बड़े सदस्यों में से एक है उनसे अन्ना के मुद्दे पर सवाल न करके कश्मीर के मसले पर सवाल किया गया क्या ये महज संयोग है ? ये सवाल उनसे ही क्यों किया गया अरविन्द , किरण आदि से ये सवाल क्यों नहीं किये गए ? प्रशांत ने कभी भी कश्मीर को पाकिस्तान को देने की बात नहीं कही किंतु हमलावर बार बार टीवी चैनलों से कह रहा था की उन्होंने कश्मीर पाकिस्तान को देने की बात की इसलिए उन पर हमला किया गया और वो अन्ना टीम के सदस्य है इसलिए ये बयान अन्ना का भी माना जाये या अन्ना से भी कश्मीर पर उनकी राय ली जाये | अन्ना को और उनकी टीम को जानबूझ कर कश्मीर से जोड़ा जा रहा है जिसका कोई मतलब ही नहीं है | 
             
                                                                         अन्ना टीम के कांग्रेस के विरोध में खड़े होने से पूरी कांग्रेस तिलमिलाई हुई है और उसे इसके पीछे आर आर एस , बीजेपी और कांग्रेस विरोधियों की चाल लग रही है और अन्ना टीम के साथ सबसे ज्यादा युवा शक्ति जुड़ीं है और ये सभी कश्मीर को लेकर बड़े संवेदनशील है और युवाओं को कश्मीर का नाम ले कर राष्ट्रवाद के नाम पर बड़ी आसानी से अन्ना टीम के खिलाफ भड़काया जा सकता है उनसे अलग किया जा सकता है | सरकार इस समय बुरी तरीके से भ्रष्टाचार के मुद्दे से घिरी हुई है एक तरफ अन्ना टीम है तो दूसरी तरफ अब तक सोई पड़ी हासिये पर जा चुकी विपक्ष है जो नींद से जाग गई है और मौके का फायदा उठाने के लिए अपने भाग्य से छिका टूटने का इंतजार कर रही है और हर तरफ से परेशान सरकार के लिए लोगो का ध्यान हटाने के लिए इससे अच्छा क्या मुद्दा होगा |
                                                                   इसलिए सभी से निवेदन है की दिखावे पर न जाये अपनी अक्ल लगाये बेकार के मुद्दों पर न उलझ जाये और न ही किसी के खिलाफ कुछ भी कहना शुरू कर दे अन्ना टीम का विरोध करने से पहले ये समझ ले की प्रशांत ने कल एक बात और कही थी की ये सिर्फ और सिर्फ उनका विचार है न की अन्ना टीम का और अन्ना टीम कश्मीर के लिए नहीं भ्रष्टाचार के लिए लड़ रही है और हमें उसी पर ध्यान केन्द्रित करना है |
                                         
                    जम्मू-कश्मीर को बल के ज़रिए देश में रखना हमारे लिए घातक होगा...देश की सारी जनता के लिए घातक होगा...सिर्फ वहां की जनता के लिए नहीं पूरे देश की जनता के हित में नहीं होगा...मेरी राय ये है कि हालात वहां नार्मलाइज़ करने चाहिए...आर्मी को वहां से हटा लेना चाहिए...आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर एक्ट को खत्म करना चाहिए...और कोशिश ये करनी चाहिए कि वहां की जनता हमारे साथ आए...अगर उसके बाद भी वो हमारे साथ नहीं है...अगर वहां की जनता फिर भी यही कहती है कि वो अलग होना चाहते हैं...मेरी राय ये है कि वहां जनमत संग्रह करा के उन्हें अलग होने देना चाहिए... खुशदीप  जी  के  ब्लॉग  से  लिया  बयान
                                   
                                                      प्रशांत भूषण का वो बयान जो उन्होंने वराणसी में दिया इसे हम इस तरीके से भी देख सकते है--- इस बयान में कभी भी कश्मीर को पाकिस्तान को देने की बात नहीं कही गई है   हा उन्हें आजाद करने की बात कही गई है किन्तु उसके पहले ताकत की जगह प्यार से उनके दिलो को जितने का प्रयास करने के लिए कहा गया उसके बाद भी यदि कश्मीरी अलग होना चाहे तो उन्हें अलग कर देने को कहा गया है वो भी इसलिए क्योकि ये कश्मीर के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए घातक होता जा रहा है , वो भी तब जब जनमत संग्रह में बहुमत अलग होने का राय दे | और इस विषय में मेरी राय की हमें जनमत संग्रह की जरुरत ही नहीं है हमें आम लोगो के दिल जीत लेने तक काम करते ही जाना है कूटनीति से राजनीति करने वालो को हरा देना है उसके बाद किसी जनमत संग्रह की या उसे अलग करने की कोई बात ही नहीं बचेगी |


October 11, 2011

जाने वाला चला गया , पीछे छोड़ गये का दुःख - - - - -mangopeople


                                                         दो साल पहले की ही बात है शायद २००९ की जब अखबार में एक खबर पढ़ी थी की चित्रा सिंह के पहले पति से हुई बेटी  ने आत्महत्या कर ली, पढ़ कर चित्रा सिंह के लिए बहुत दुःख हुआ ,  अपनी संतान खोने का ये दूसरा दुःख था उनके लिए | इसके पहले वो अपने बेटे को एक सड़क दुर्घटना में खो चुकी थी और वो दुःख इतना बड़ा था उनके लिए की उन्होंने गाना गाना ही छोड़ दिया | उसके बाद एक और संतान की फिर से आकाल मृत्यु एक माँ के लिए असहनीय जैसा होगा | इस बात से फर्क नहीं पड़ता की बच्चों की आयु क्या थी माँ के लिए उसके बच्चे बस बच्चे होते है |  पति देव से उनके दुख की चर्चा करते हुए कहा था की ये दुख उनके लिए बर्दाश्त करना  बड़ा मुश्किल होगा अब तो उनकी दोनों ही संताने चली गई , अब एक ही सहारा है उनके पास जीने के लिए जगजीत सिंह और अब जो दुःख जगजीत सिंह के इस तरह अचानक चले जाने से उन्हें हो रहा होगा हम उसका अंदाजा लगा सकते है |
                                                                       कुछ समय पहले लता जी के जन्मदिन पर उनका एक साक्षात्कार देखा जिसमे वो बता रही थी की संगीत के लिए अपने जुनून के कारण कभी उन्हें अपने अविवाहित होने को "मिस" नहीं किया | कहते है संगीत आप को कई दुखों परेशानियों और तनाव से बाहर निकालने का काम करता है किंतु चित्रा सिंह ने तो उससे ही परहेज का लिया था | मुझे लगता है की यदि वो गाना गा रही होती संगीत से जुड़ीं होती तो निश्चित रूप से वो उन्हें उनके दुख से बाहर निकालने का काम करता उन्हें जीने का हौसला देता किंतु उन्होंने उससे ही मुंह मोड़ लिया | देखा है मैंने कई बार महिलाओ को किसी क़रीबी अपने के जाने के बाद सारे सुख आनंद को त्याग करते और अपने दुखों को पालते हुए उन्हें अपने सिने से लगा हर समय जिंदा रखे हुए | मेरी परिचित थी उनका जवान विवाहित बेटे की दुर्घटना में मौत हो गई इधर बहु ने अपने सारे श्रृंगार त्यागा उधर उन्होंने भी सब त्याग दिया बस एक सिंदूर ही धारण करती थी | सब उनकी वाह वाह करते थे पर मुझे वो अच्छा नहीं लगता था लगा की जैसे वो अपने दुख को हर समय जिंदा और अपने सामने रखना चाहती है न केवल अपना बल्कि अपनी बहु और उसकी एक मात्र बेटी के भी दुखों को | क्या अच्छा ये नहीं होता की वो अपना क्या अपनी बहु का भी श्रृंगार त्यागने न देती बस सिंदूर और बिझिया जैसे विवाहित होने की निशानियो को ही छोड़ देती ,  उसे भी जीने का हौसला देती और अपने भी एकलौते पुत्र के मौत को भुलाने का प्रयास करती और पोती को भी एक खुश हाल जीवन देती | आखिर क्यों महिलाएँ अपने दुखों को संजो कर रखती है,  क्यों नहीं उसे छोड़ देती है |
 चित्रा सिंह ने भी  वही किया, किसी कलाकार के लिए उसका कला ही उसको सबसे ज्यादा आनंद देता है जो उसे दुनिया के तकलीफों परेशानियों से उबरता है उनसे दूर करता है और उन्होंने उससे ही छोड़ दिया | कभी सोचती हुं की जगजीत सिंह ने उनसे फिर से गाने को नहीं कहा होगा, शायद कहा होगा हो सकता है कई बार मनाया भी होगा,  पता नहीं वो मना नहीं पाए या वो मानना ही नहीं चाहती थी | पुरुष के साथ मजबूरी है कई बार अर्थोपार्जन की तो कई बार दुनियादारी की की वो दुःख को कुछ समय जीता है फिर उसके आगे निकल जाता है या उसे हर समय याद नहीं रखता दिल के कोने में छुपा कर रखता है | एक जगह चित्रा सिंह का साक्षात्कार पढ़ा जहा उन्होंने कहा की जगजीत सिंह का दुख भले न दिखता हो पर वो भी काफी दुखी थे बेटे के जाने से और कई बार रात में उठ कर रियाज़ करने लगते थे | वही संगीत उनका जुनून जिसने उनका साथ दिया उस दुःख तकलीफ़ से बाहर आने में उससे लड़ने में पर चित्र सिंह वो नहीं कर पाई या नहीं करना चाहा |
                                                 जिस दिन सुना की जगजीत सिंह ब्रेन हैमरेज के कारण अस्पताल में वेंटिलेटर पर है , ( ब्रेन हैमरेज और वेंटिलेटर इन दो शब्दों से अच्छे से परिचित हूँ दो अपनों को खोया है इन शब्दों के साथ )  समझ गई की अब वो वापस घर नहीं आयेंगे | उसी समय ज्यादा दुख चित्रा सिंह के लिए हो रहा था | दो दिन पहले ही अपनी एक रिश्ते की मौसी के दुखद मृत्यु की खबर मिली थी | पता चला की तीन महीने पहले ही मौसा जी की कैंसर से मृत्यु हो गई थी तब से ही बिलकुल मानसिक संतुलन खो बैठी थी खुद का कोई होश ही नहीं था अपनी आवश्यक जरूरते भी वो खुद से नहीं कर पा रही थी | कारण था मौसा जी से उनका बेहद लगाव क्योंकि दोनों लोगो को कोई संतान नहीं थी और जीवन में लगभग ५० वर्ष दोनों ने बस एक दूसरे के सहारे एक दूसरे के साथ जी कर ही बिताये थे | भाई के बच्चे को अपने बच्चे की तरह पाला किंतु बड़ा होते ही वो उन्हें छोड़ लड़ झगड़ अपने माँ बाप के पास चला गया | आ कर किसी ख़ुशी का चला जाना दुख को कई गुना बढ़ा देता है इस दुख ने दोनों को और भी करीब ला दिया था ,  दोनों में से किसी एक का जाना वही हाल करता जो अंत में मौसी का हुआ , वो तीन महीने भी उस दुःख को बर्दाश्त नहीं कर पाई | अपने आप को संभालने के लिए किसी को उन्होंने मौक ही नहीं दिया समय ही नहीं दिया |

                                                जाने वाला तो चला गया खुद को सभी तकलीफों तनावों से आज़ाद कर गया , किंतु  जिसे पीछे छोड़ गया है उसके दुख को सहने के लिए जो पहले ही जीवन से निराश हो चला हो उसके बारे में सोच एक चिंता सी होने लगती है | बार बार मन में ख्याल आ रहा है की क्या हालत होगी उनकी क्योंकि जगजीत सिंह की मृत्यु भी आकाल मृत्यु है , जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था उनके लिए एक बड़ा झटका है | बस उम्मीद करती हूँ  की आज जो भी उनके आस पास होगा उन्हें अच्छे से हौसला दे रहा होगा इस दुख से उन्हें उबरने में मदद कर रहा होगा उन्हें अच्छे से संभाल रहा होगा |
                                            

October 07, 2011

आलोचना ,विपरीत विचार, असहमति या खिंचाई इसका फर्क ब्लॉगर को समझना चाहिए - - - - -mangopeople

                   



                                       ब्लॉग जगत में इस बात को ले कर कई बार बहस हो चुकी है की लोगो को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती है लोग आलोचनात्मक टिप्पणियों को पचा नहीं पाते है अक्सर उन्हें या तो प्रकाशित नहीं किया जाता या फिर हटा दिया जाता है | कई बार तो लोग आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाले को ही भला बुरा कहने लगते है | किंतु क्या कभी किसी ने इस बात पर भी ध्यान दिया है की आलोचना है किस बला का नाम क्योंकि यहाँ तो यदि कोई आप की बात से असहमत हो जाये या आप की विचारों के विपरीत विचार रख दे,  जो उसके अपने है तो लोग उसे भी अपनी आलोचना के तौर पर देखने लगते है , जबकि वास्तव में कई बार ऐसा नहीं होता है है कि दूसरा ब्लॉगर आप को कोई टिप्पणी दे रहा है जो आप के विचारों से मेल नहीं खा रहा है तो वो आप की आलोचना ही करना चाह रहा है | कई बार इसका कारण ये होता है की वो बस उस विषय में अपने विचार रख रहा है जो संभव है की आप के सोच से मेल न खाता हो , कई बार सिक्के का दूसरा पहलू भी दिखाने का प्रयास किया जाता है | इसका कारण ये है की अक्सर हम अपनी पोस्टो में वो लिखते है जो हमारे विचार है जो हमने अपने आस पास घटते देखा है या हमने किसी चीज के बस एक ही पहलू का देखा है और वही पोस्ट में लिख दिया,  परिणाम स्वरूप पाठक बस विषय के उसी रूप को देख कर अपने विचार रखने लगते है ,  जबकि कुछ विषयों में सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है जो हो सकता है जाने अनजाने में लेखक नहीं लिख सका  | दूसरे ब्लॉगर कई बार ऐसी जगहों पर सिक्के का दूसरा पहलू भी वहा टिप्पणी के रूप में दे देते है ताकि अन्य पाठक दोनों बातों को समझ ले फिर अपने विचार रखे संभव है की दोनों पहलुओं को देख कर पाठक अपना सही विचार बना सके भले टिप्पणी में वो लेखक की "वाह वाह"  करके चले जाये  |  हमारे जो भी विचार या सोच होती है वो एक दिन में नहीं बनती है कई बार उसे बनने में सालों लगते है और उसके लिए जिम्मेदार होते है हमारा परिवेस जिसमे हम बड़े होते है,  उसमे उन लोगो के विचार और व्यवहार का भी मिश्रण होता है जो हमारे आस पास होते है , और हम वही लिखते है जो हम देखते है किंतु इसका ये अर्थ नहीं होता की जो हमने देखा नहीं जो हमने सोचा नहीं वो है ही नहीं और यदि  किसी ने वो पहलू हमारे सामने रख दिया तो वो हमारी आलोचना कर रहा है या हमारी खिचाई कर रहा है | मैं ऐसा नहीं मानती की ये कही से भी आप की आलोचना है इसलिए कई पोस्टो पर मैं विषय के दूसरे रूपों को टिप्पणी के रूप में देती आई हूँ | 
                                              
                                               उसी तरह असहमतियो को भी अपनी आलोचना के तौर पर देख लिया जाता है | किसी के विचारों से असहमत होना कई बार उसकी आलोचना करना नहीं होता है बल्कि हम जब उन विषयों को खुद के तर्क की कसौटी पर कसते है और वो हमें सही नहीं लगता है तो हम लेखक से असहमत हो जाते है किंतु इसके ये अर्थ नहीं है  कि लेखक के विचार गलत ही है,  उसने विषय को अपनी नजर से अपने तर्क से देखा है और दूसरे ने अपनी विचार और तर्क से और एक ही विषय में दो लोगो के दो विचार हो सकते है जो दोनों ही अपनी जगह सही भी हो सकते है और उन विचारों को रखना कही से भी दूसरे की आलोचना करना नहीं होता है | हिंदी ब्लॉग जगत में ज्यादातर जगह टिप्पणियों के लेने देने का खेल होता है लोग अक्सर लेखक के विचारों से अपने विचार मेल न खाने के बाद भी "वाह वाह" "बहुत अच्छा लिखा"  लिख कर चले जाते है , कुछ के पास समय नहीं होता और वो बहुतों को पढ़ना चाहते है सो एक लाइन की भी टिप्पणी दे कर चले जाते है | किंतु कुछ ब्लागरो के लिए हिंदी ब्लॉग इन सब से अलग भी बहुत कुछ है जो टिप्पणी टिप्पणी खेलने की जगह इसे  विचारों के आदान प्रदान की जगह मानते है और जो पढ़ते है उस पर अपने निजी सोच अवश्य रखते है वो लेखक के विचारों से मेल भी खा सकता है और नहीं भी ,  पर ये ज़रुरी नहीं है की उसमे टिप्पणी कर्ता लेखक की आलोचना ही करना चाह रहा है | आलोचना, असहमति, विपरीत विचार और खुद की खिंचाई का फर्क लोगो को समझना चाहिए और जिस तरह लोग ये कहते है की हम आलोचना का स्वागत करते है तो उन्हें ये भी समझना चाहिए की हर बार आप की आलोचना नहीं की जा रही है दूसरे के विपरीत विचारों को भी एक विचार की तरह सम्मान से देखना चाहिए न की हर बार उसे अपनी आलोचना समझ कर उसके प्रति कोई ये विचार बना लेने चाहिए की फला मेरा आलोचक है या वो हर बार मेरी खिंचाई कर के जाता है | इस तरह के विचार उन ब्लोगरो के लिए ठीक नहीं है जो हिंदी ब्लॉग जगत को एक स्वस्थ बहस,  एक विचारों के आदान प्रदान की जगह मानते है इस तरह तो निश्चित रूप से वो आप के भी ब्लॉग पर अपने विचार खुल कर रखना छोड़ देंगे | वैसे ये भी संभव है की कुछ लोग हिंदी ब्लॉग जगत में  अपने विचार रखने अपने विचार दूसरों के साथ बांटने भर आये है वो इस तरह के किसी भी संवाद विचार विमर्श या बहस का हिस्सा नहीं बनाना चाहते है या उनके पास ये सब करने का समय ही नहीं है |  जिन ब्लोगरो को ये पसंद नहीं है जो नहीं चाहते की इस तरह का कोई भी काम उनके ब्लॉग पर हो तो उन्हें खुल कर ये कह देना चाहिए की उन्हें इस तरह की टिप्पणियों की आवश्यकता नहीं है और वो इस तरह का कोई संवाद कायम नहीं करना चाहते है जब तक आप कहेंगे नहीं तब तक मुझे नहीं लगता ही की किसी को भी आप के विचार इस सम्बन्ध में पता चलेगा इसलिए दूसरा बेचारा ब्लॉगर तो अपनी इच्छा का करता ही जायेगा और आप को बुरा भी लगता जायेगा अच्छा है की उसे समय रहते उसे बता दे और सबसे अच्छा तरीका तो होता है टिप्पणी बाँक्स के ऊपर साफ लिख दे की कैसी टिप्पणियाँ आप को चाहिए |
                                                              
                                                         ये सच है की हिंदी ब्लॉग जगत में ऐसे कई लोग है जो किसी को निशाना बना कर हर बार उसकी आलोचना ही करते है , या कुछ ऐसे भी है जो बस आलोचना करने के लिए ही किसी किसी के ब्लॉग पर जाते है या जानबूझ कर आप की आलोचना करते है या आप की टाँग खिचाई करते है या आप को अपमानित करते है ऐसे लोगों के होने से इनकार नहीं क्या जा सकता है लेकिन सभी में फर्क करना तो ब्लॉग स्वामी का काम है और ये बात उसे ही समझनी होगी की कौन टिप्पणी के रूप में क्या लिख कर जा रहा है और उसका क्या इरादा है | पर ये फर्क टिप्पणी की भाषा से आसानी से पहचानी जा सकती है आलोचना करने वाले की भाषा तीखी व्यंग्य करती होगी और विपरीत  विचार वाली बात बस सीधे शब्दों में अपनी बात कहने वाली होगी पर इसका अंतर कारण तो ब्लॉग स्वामी को ही होगा यदि ब्लॉगर ये करने में असमर्थ होते है तो ये कही से भी हिंदी ब्लॉग जगत के लिए ठीक नहीं है फिर ये भी अपने मान की भड़ास निकालने की जगह भर बन कर रहा जाएगी जहा सभी अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग छेड़ रहे होंगे और कुछ भी सार्थक निकाल कर यहाँ से नहीं आयेगा |


                                                                        अपनी कहूँ तो मैं स्वयं ये कई जगह ऐसा करती आई हूँ बिना ये सोचे की मेरी टिप्पणियों को ब्लॉग स्वामी अपनी आलोचना या अपनी खिचाई के रूप में ले रहा है | एक ब्लॉगर ने इस बारे में मुझे मना किया था की उसे ऐसी टिप्पणियाँ नहीं चाहिए तो मैंने उन्हें टिप्पणी देना बंद कर दिया क्योंकि ये ब्लॉग स्वामी का अधिकार है की वो बताये की उसे कैसी टिप्पणियाँ चाहिए | अत: किसी अन्य को मेरे टिप्पणी देने का तरीका पसंद ना हो तो खुल कर कह दे क्योंकि बिना कहे मुझे कुछ सुनाई नहीं देता है और जब तक कोई कहेगा नहीं मैं अपना तरीका बदल नहीं सकती हूँ  :) 
 

October 04, 2011

उपवास -२ ( खबरों की बाढ़ , उससे होते फायदे नुकसान और फ़िल्टर करने की आवश्यकता ) - - - - - - - -mangopeople

                                                                                 समय बदला और हमारे सामने आया टीवी और इसने हमें दिखाना शुरू किया दुनिया की हलचल,  वो भी घर बैठे और अब ये हालत है की केवल अपनों की ही क्यों आज तो हम देश दुनिया की खबर जानने के लिए भी हमेशा उत्सुक रहते है और इसके लिए सबसे अच्छा माध्यम बना टीवी | आज के समय में शायद ही कोई घर होगा जहा टीवी की पहुँच नहीं होगी जो हमें दुनिया के लगभग हर खबर से जोड़े रखता है किंतु जब टीवी नहीं था तब लोग कैसे खबरों से जुड़े रहते थे शायद तब उतनी दूर तक की खबरों में लोगो की उतनी दिलचस्पी नहीं होती होगी जितनी अब है | आज जितनी ख़बरे लोगो को मिलती है लोगो में उतनी ज्यादा उत्सुकता बढ़ती जाती है और जब नहीं मिलती थी तो बस क़िस्से कहानियाँ होती थी और लोग उसे ही सच मानते थे | कोई व्यापारी या कोई विदेश घूम कर आया जो कह देता वही सच हो जाता | वैसे तो हमारे देश में एक समय तो समुद्र पार जाना ही पाप माना जाता था तो फिर वहा की खबरों में लोगो की कितनी रूचि होगी ये समझा जा सकता है | एक समय बाद अखबार तो आ गया था किंतु लम्बे समय तक उसमे भी राजनीतिक ख़बरे और स्थानीय अपराध की ख़बरे ही ज्यादा होती थी देश के हर कोने की खबर उसमे भी कम से कम तुरंत तो नहीं ही होती थी फिर दूसरे देश की खबरों की तो बात ही क्या,  कोई बहुत बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम हो जाये तब ही शायद अखबारों में छपता होगा | वैसे तब भी सभी के घरों में अखबार नहीं आता था और बहुत सारे लोग तो पान,चाय  की दुकान पर अखबार पढ़ने ही जाते थे ( और कुछ तो इसके लिए भी पड़ोसियों के घर जाते थे ) यही कारण था की पान और चाय की दुकानों पर काफी राजनीतिक बहस बाजिया और चिन्तन होता था और कई बार लोग उन्ही के आधार पर किसी राजनीतिक दल और घटनाक्रम के प्रति अपनी राय भी बनाते थे,  राजनीतिक सामाजिक विचारको, चिंतको का अड्डा होता था चाय पान की ये दुकानें  | धीरे धीरे अखबारों के पन्ने बढ़ते रहे और खबरे भी किन्तु तब भी उसने लोगो के बिच खबरों की वो भूख नहीं पैदा की जो अब है |  उसके बाद दूर दर्शन का जमाना आया कहने के लिए वो था तो वीडियो दिखाने के लिए,  पर समाचारों में वहा प्रधानमंत्री और सरकारी कार्यक्रमों के अलावा शायद ही कोई अन्य वीडियो दिखाया जाता हो, यानि समाचार दिखाया नहीं सुनाया जाता था  और समाचार भी दिखाने का एक निश्चित समय होता था,  आज की तरह नहीं की अपनी सुविधानुसार जब समय मिला तब टीवी खोला और समाचार देख लिया | तब उन समाचारों में ज्यादा रूचि  पुरुषों की ही होती थी (वैसे अक्सर वो महिलाओ के रसोई में होने का समय होता था | ) हा उससे एक फायदा तो था वो ये की भारत की एक बड़ी निरक्षर जनता भी समाचारों को बिना किसी परेशानी और किसी और के सहयोग से जान सकती थी किंतु वो भी सरकारी भोपू  से ज्यादा कभी कुछ नहीं बन सका आज भी उसका वही हाल है |

                                        उसके बाद आया निजी समाचार चैनलों का जमाना और तब तक तो दुनिया से हमारी दूरी लगभग ख़त्म जैसी हो गई,  अब ख़बरे सिर्फ देश नहीं देश के बाहर दुनिया हर कोने  की जानकारी हम तक आने लगी  थी और हम उसे ग्रहण करने के लिए भी तैयार थे हमारी जिज्ञासा और रूचि भी थी उन्हें जानने में  और ये इच्छा केवल युवाओं में ही नहीं है | मुझे याद है मदर टेरेसा की पहली पुण्यतिथि थी तो मेरी दादी ने कहा की एक हफ्ते बाद प्रिंसेस डायना की भी पुण्यतिथि आयेगी मुझे आश्चर्य हुआ की मेरी दादी न केवल दोनों लोगो को जान रही है बल्कि एक साल पहले हुए उनकी मृत्यु भी उन्हें याद है , अभी मार्च में कजन की शादी में गई थी हम सभी बारात में मस्त थे और ताऊ चाचा लोगो में किसी और ही बात पर चर्चा चल रही थी तो पता चला की जापान में भूकंप और सुनामी आ गया जैसे जैसे लोग देर से आ रहे थे वो भी चर्चा में शामिल होते जा रहे थे और नई खबरों को उसमे जोड़ते जा रहे थे जो वो टीवी पर देख कर आ रहे थे |  मतलब ये की न केवल अब सभी तरह के लोग हर तरह की खबरों से जुड़ना चाह रहे है बल्कि उसको याद भी रखते है और अपडेट भी करते रहते है | लोग ओबामा में रूचि तो लेते है साथ की क्लिंटन की प्रेम कहानियो की भी खबर में भी रूचि लेते है , क्रिकेट के देश में टाइगर वुड्स को जानने वाले भी कम नहीं है और उनके निजी जीवन को रस ले कर जानने वालो की भी कमी नहीं है | हर तरह की जानकारियों की बाढ़ आ रही है |  कोई केवल अपनी पसंद की खबरों को देखता है तो कोई हर खबर पर नजर रखता है तो कोई बस सरसरी नजर से ही देख लेता है पर हा देखते सभी है | वजह भी है समय के साथ सब बदल गया , पहले कहा जाता था जिस गांव जाना नहीं उसका रास्ता क्या पूछना अब तो न केवल हर गांव का रास्ता जानने की इच्छा सभी में होती है बल्कि लोग उससे जुड़ी हर खबर तक पहुँचना चाहते है विश्वास न हो तो बताइये कितने लोग रालेगण सिद्धि को लोक पाल आन्दोलन के पहले जानते थे |
                                                   
                                         ये ख़बरे बस मनोरंजन, ज्ञान और जानकारी भर नहीं है,  कई बार तुरंत मिल रही ख़बरे आप को सावधान भी करती है मुझे याद है कुछ साल पहले जब मुंबई में २६ जुलाई को बाढ़ आई थो तो पति और समर ट्रेनिग के लिए दो महीने के लिए आया छोटा भाई दोनों ही आफिस में फंस गए थे तो मैंने उन्हें टीवी पर देख कर बताया की पूरे शहर का कितना बुरा हाल है और वो लोग आफिस में ही रहे बाहर निकालने का प्रयास न करे वो लोग वही ज्यादा सुरक्षित है  उसी तरह ज्यादातर ब्लास्ट की खबरे टीवी पर देख तुरंत पतिदेव को सावधान करती हूँ  की आते जाते समय संभल कर रहे भले देर से घर आये और कई बार कही दूर घट रही खबर हमारे अगले कदम के लिए हमें सावधान करती है  जैसे अभी हाल में ही सिक्किम में आये भूकंप ने मौका दे दिया ये जानने का की पतिदेव को भूकंप के समय क्या करना चाहिए इस बारे में कोई जानकारी नहीं है, उन्हें अच्छे से समझाया की क्या क्या उपाय तुरंत करके हम बचने का प्रयास कर सकते है ( बचे न बचे बाद की बात है बचने का प्रयास कैसे किया जाये ये तो पता ही होना चाहिए )  और दो रातों तक तो मैं खुद रात के कपड़े न पहन कर पूरे कपड़े पहन और सिरहाने एक शॉल रख सोती थी ( ऐसी आपदाओं में व्यक्ति यदि बच जाये तो उसके तन के कपड़े ही उसके पास बचते है और शॉल बेटी के लिए था कही आपदा के बाद मौसम ठंडा हो गया तो )  पहले दिन तो पति देव मेरे डरने पर हँसने लगे जब अगले ही दिन उन्हें पता चला की सिक्किम से चला भूकम्प  महाराष्ट्र में भी आ गया तब जा कर मेरे डर को सही समझा | ( सच कहूं तो बच्चे के जीवन में आते ही आप कही ज्यादा सतर्क और हर चीज के प्रति आप  जरुरत के ज्यादा सावधान हो जाते है सारी तैयारी इसी डर का नतीजा थी शुक्र है तैयारी को आजमाने की जरुरत अभी तक नहीं पड़ी उम्मीद है की आगे भी न पड़े | )
                                              
                                                       अब तो ये हाल है की खबरों और खबर पहुँचने वाले चैनलों का स्थान लोकतंत्र में चौथे खम्भे से आगे बढ़ता जा रहा है | अन्ना आन्दोलन उसका प्रत्यक्ष उदाहरन है , फिर जेसिका केस हो या रुचिका केस कितने ही मामलों में मिडिया ने लोकतंत्र के दूसरे खम्बो के सही काम न करने पर उन्हें अपना काम सही से करने के लिए मजबूर किया है |  वो चाहे तो मिल कर आप के प्रति हवा बना दे और चाहे तो आप को उठा कर मिट्टी में मिला दे | इसके अपने फायदे भी है और नुकसान भी क्योंकि आज भी लोगो में खबरों को फ़िल्टर करने की आदत नहीं है लोग खबरों को जस का तस स्वीकार कर रहे है बिना अपना दिमाग लगाये और जिसके कारण कई बार इसके नुकसान भी सामने आये है | इसलिए जरूरी ये भी है की जहा इतनी तेजी से ख़बरे आ रही है और हम उसे ग्रहण कर रहे है तो खबरों को जाँचना परखना भी हमें शुरू कर देना चाहिए | प्रायोजित ख़बरे ,  निजी दुश्मनी के कारण ख़बरे ,  सरकार के दबाव में दिखाई जा रही ख़बरे , चैनल की अपनी निजी विचारधारा की ख़बरे , और किसी एक राजनीतिक व्यक्ति या उससे जुड़े लोगो द्वारा चलाये जा रहे चैनल की ख़बरे सब तरह की ख़बरे घूम रही है हम सभी को उनमें से हर खबर को फ़िल्टर करके ही अपने दिमाग में संग्रहित करना चाहिए न की जस की तस नहीं तो होगा ये की ये ख़बरे जी का जंजाल बन जाएगी और हमें फायदा पहुचने की जगह हमें नुकसान पहुँचाने लगेगी |
                   

                                                                 पर टीवी के आने के बाद भी ख़बरे एक तरफ़ा ही थी,  यानि हम उन्हें सुन तो रहे थे पर उस पर कोई अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे थे दुनिया भर के लोगो के बारे में   जान तो रहे थे किंतु उनसे सीधे जुड़ नहीं रहे थे और तब आया इंटरनेट का जमाना जिसमे सब कुछ दो तरफ़ा कर दिया |
         क्रमशः



              

October 03, 2011

सूचना क्रांति के इस दौर में एक अलग तरह का उपवास - - - - - - -mangopeople



खाना खाता लड़का :- आज से मेरा उपवास है |
दूसरा व्यक्ति :- ये कैसा उपवास तुम तो खाना खा रहे हो |
लड़का :-ये उपवास आज के ज़माने का है , टीवी मोबाईल फेसबुक ब्लॉग ट्विटर नेट सब बंद सब से उपवास |

                                                        कुछ समय पहले जब ये चुटकुला पढ़ कर मुस्कराई थी तो ये नहीं सोचा था की जल्द ही ये उपवास मुझे भी ज़बरदस्ती लेना पड़ेगा | सूचना क्रांति के जिस दौर में हम जी रहे है उसमे हमें आदत हो गई है हर पल किसी न किसी सूचना खबर  को सुनने की या ये जानने की दुनिया में कहा क्या घट रहा है और यदि कुछ खास हो रहा हो तो पल पल की  खबरों तक पहुँचने की ललक और बढ़ जाती है |  इस  दौर में यदि हम सूचना के सभी मध्यम से अचानक से कट जाये तो जीवन कितना दुस्कर हो जायेगा,  यदि आप किसी काम में व्यस्त है तब तो ठीक है किंतु यदि करने के लिए कुछ खास नहीं है तो  कितना ख़ालीपन आ जाता है जीवन में ये अभी हाल ही में एहसास हुआ |
                                   अन्ना का उपवास ख़त्म होते ही परिवार समेत घूमने के लिए निकल गई और घूमने के दौरान न तो इतना समय होता है और न ही घूमने के बाद होटल आने पर इतनी शक्ति और इच्छा की देखा जाये की बाकी दिन दुनिया में क्या हो रहा है,  तो सूचनाओं से भी एक तरह की छुट्टी ही थी क्योंकि किसी से ज़रुरी होने पर ही फोन किया जाता है और टेलीग्राम की तरह कम से कम शब्दों या ये कहे की समय में बात ख़त्म कर ली जाती है ( कई बार तो बार बार यही कहने में ही कितना समय निकल जाता है की अभी मैं बाहर हूँ रोमिंग पर हूँ आ कर बात करती हूँ विस्तार में ) जब ये हाल हो  तो तो नेट से किसी तरह के जुड़ाव का सवाल ही कहा होता है | घूम कर जब हर तरह की खबरों की भूख लिया घर आ कर टीवी आन किया तो पता चला की वो तो सो रहा है और फिलहाल उठने का उसका कोई मूड नहीं है | अखबार उठाया और  टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खुरचन नव भारत टाइम्स को  पढ़ कर ही संतोष किया गया |    दूसरा नंबर फोन का था , वहा भी कई दिनों से अच्छे से ( अच्छे से का मतलब कम से कम २०- २५ मिनट ) बात नहीं हुई थी , तो घर से भी काफी सूचनाये खबरों की उम्मीद थी जो वही रोमिंग वाले चक्कर के कारण नहीं पता चल रही थी |  वहा फोन किया तो पता चला की हमारे मोबाईल ने अपने नाम के अनुरूप काम कर रहा था "मेरा टेलीफ़ोन नहीं लगता" MTNL  सो नहीं लगा  | अब सूचना और सहारे के लिए नेट बचा था ब्लॉग जगत से जुड़ने के लिए खबरों के लिए और घर से भी जुड़ने के लिए चैट पर तो घंटो बाते हो जाती है चैट से बहनों  से सैकेंड हैण्ड खबर से संतोष करना पड़ा साथ ही वहा पहले से ही एक मेल पड़ा था की दो दिन बाद नेट में समस्या आ सकती है क्योंकि कंपनी अप ग्रेट का काम करने वाली है सो अग्रिम खेद है | इस बिच इंटरनेट आता जाता रहा टीवी वाला भी आता और बताता रहा की ये ख़राब है वो ख़राब है और फोन पर हर रोज दो तीन बार कॉल आता पर पूछा जाता की आप की शिकायत दूर हो गई पर शिकायत दूर नहीं हुई |
                                          पर इस बिच एक बात का चिन्तन हुआ की आखिर पहले लोग खबरों से कैसे जुड़े रहते थे दूर रह रहे अपनों की खबर उन्हें कैसे लगती थी, फोन तो किसी किसी के ही घर होता था और पत्र तो हाल चाल जानने का ज़रिया था किंतु जब तुरंत कोई खबर पहुँचानी हो तब , तब लोग किन साधनों का उपयोग करते थे | कुछ लोग पड़ोसियों का फोन नंबर आपात काल के लिए अपनों को दे कर रखते थे ( हमारे घर बहुतों का फोन तब के ज़माने में आता था कुछ को मैसेज पहुंचा दिया जाता था तो कोई कुछ देर बाद फिर से फोन करता हूँ कह अपने परिवार वालो को बुलाने को कहता था | हमरे पड़ोसी की बेटी का विवाह अमेरिका में हुआ था तो उन्हें बुलाना पड़ता था  ) किंतु कभी कभी तो पूरे मोहल्ले में ही कोई फोन नहीं होता था, तब क्या करते थे , क्या तब लोगो में अपनों की हर खबर जानने की इच्छा नहीं होती थी और  या जानने की सुविधा नहीं थी इसलिए वो कुछ कर ही नहीं पाते थे | आज हम भाई बहन सभी एक दूसरे से काफी दूर रहते है दूसरे रिश्तेदारों से भी काफी दूर है किंतु ऐसी कोई भी खबर नहीं है जो हम सभी को पता नहीं होती,  फोन से लगभग हर दिन हम एक दूसरे से जुड़े रहते है बात करते रहते है जिससे कई बार खुद के सभी से दूर होने का एहसास ही नहीं होता है | आज भी पहले की तरह ही मम्मी पापा हम सभी से हर बात के लिए सलाह मशवरा करते है | कभी सोचती हूँ की जो ये सस्ती फोन सुविधा न होती तो शायद हम जैसो का जीना ही मुहाल होता जो अपने अपनों से इतनी दूर रहते है | संभव है की इसी कारण से पहले के ज़माने में बेटियों का विवाह होने के बाद वो अपने घरों से इस तरह से नहीं जुड़ीं रह पाती जैसे की हम है और धीरे धीरे अपने माँ बाप परिवार से दूर हो जाती है | आज घर में किसी विवाह की तैयारी हो रही हो या कोई बीमार हो हमें हर पल की खबर मिलती रहती है , शायद उस ज़माने में बहनों का अपने घर में किसी भी विवाह या दुख की खबर तब मिलती होगी जब उनके पास विवाह का निमंत्रण या तेरही का निमंत्रण मिलता होगा और कई बार तो शायद दूर रहने वाले बेटा बेटी अंत समय में अपने करीबियों को देख भी नहीं पाते होंगे , और छोटी बड़ी ख़ुशियों की तो बात ही क्या की जाये | तुरंत खबर देने के लिए टेलीग्राम होता था जो अक्सर दो चार लाइनों का होता था और शायद उसे बुरे समाचार की निशानी ही तब ज्यादा माना जाता होगा क्योंकि उसे किसी आपात काल में ही भेजा जाने की परंपरा रही थी ( इस बात के लिए तो कितने चुटकुले भी प्रचलित थे )   पर उसका हाल भी तब बहुत अच्छा नही था | मेरे पति ने लगभग तीस साल पहले का अपना अनुभव बताया की उनका आधा परिवार गांव में और आधा मुम्बई में रहता था उनकी माँ की अकस्मात मृत्यु हो गई सुबह उनका दाह संस्कार मुंबई में ही कर दिया गया और बाकी के काम के लिए सभी लोग गांव के लिए उसी दिन दोपहर में निकल गये, जाने से पहले गांव में टेलीग्राम कर दिया गया की माँ के साथ ऐसा हो गया है हम लोग सभी आ रहे है |  २७ घंटे का सफ़र कर जब गांव पहुंचे तो पता चला की तब तक उन लोगो को टेलीग्राम मिला ही नहीं था और गांव में किसी को कुछ भी पता ही नहीं था ,  उनके पहुँचने के आधे घंटे बाद टेलीग्राम वहा आया |  इस तरह की बाते बड़ी कष्टप्रद लगती है और शायद यही कारण है की लोग बेटी का विवाह भले दूर कर देते थे पर बेटों को काम के लिए बाहर नहीं जाने देना चाहते थे | ख़ुशी आदि की खबर तो पत्रों से दिया जाता था जो पहुँचने में कभी कभी महिना भर भी लग जाता था और उसका जवाब आते आते एक और महिना  | करीब नौ साल पहले मेरे मित्र ने मुझे पत्र लिखा तब हम लोग नेट से नहीं जुड़े थे वाराणसी शहर से चला पत्र मुंबई में मुझे एक महीने बाद मिला , तो सोचिये की आज के ज़माने में ये हाल है तो भारतीय डाक व्यवस्था का उस ज़माने में क्या हाल रहा होगा पत्रों के मामले में | एक किस्सा पढ़ा था की अकबर इलाहाबादी की पत्नी बीमार पड़ी पति को पत्र लिखा की तबियत ख़राब थी अब बेहतर महसूस कर रही हूँ जब उन्हें पत्र मिला तो हाल ये था कि उन्हें लिखना पड़ा की " उनके चालीसवे से हम आ रहे है और वो कहते है की बीमार का हाल अच्छा है " | फिर दूर की बात छोडिये आज कल तो देश दुनिया का माहौल इतना ख़राब हो गया है की अपने पास रह रहे लोग की चिंता भी हम उनसे हर दम जोड़े रहती है | विवाह के इन दस सालों में पतिदेव आज भी मुझे हर रोज दोपहर में फोन कर हाल जानते है , पहले मैं यहाँ नई थी इसलिए अब बेटी की चिंता रहती है ,  अब तो ये हाल है की यदि उनका फोन नहीं आता है तो घबरा कर मैं ही फोन मिला कर पूछ लेती हूँ की सब ठीक तो है न फोन नहीं किया ,  आज का असुरक्षित माहौल आप को इतना ही डरा देता है | यहाँ मुंबई में कुछ घटा नहीं की ( अब तो आतंकवादी हमले रोज की बात बनती जा रही है ) हर तरफ से मेरे अपने मित्रों रिश्तेदारों का फोन आना शुरू हो जाता है कई बार उनके भी जिनसे महीनों हो चुके है बात किये , सोचती हूँ की पहले लोग क्या करते थे बाढ़ कोई आपदा आई हो वहा जहा आप के अपने रह रहे है तो आपदा की खबर तो किसी न किसी तरह लग ही जाती थी किंतु लोग अपनों की खबर कैसे लेते थे बाढ़ और भू चाल जैसे हालातों में तो डाक विभाग भी काम नहीं करता था | शायद तब तक खुद उनके वापस आने का इंतजार करने के अलावा लोगो के पास कोई चारा ही नहीं रहा जाता होगा | वैसे कभी कभी ये भी लगता है की  शायद आज का निश्चित माहौल और लोगो से आसानी से बात कर लेने की सुविधा ने हमें और ज्यादा एक दूसरे से जोड़ दिया है | इन आसन सुविधाओं ने हमें अपनों के प्रति ओ ज्यादा फ़िक्र मंद बना दिया है और दूसरों को ये देखने का मौका भी दे देता है की हमारे करीबियों को हमारी कितनी चिंता है |
  इस तरह की घटनाओं में दो तरह से काम होता है है एक तो टीवी है जो हमें दुनिया भर की खबरों से जोड़ रहा है और दूसरे हमारे पास फोन है जिससे हम तुरंत ही अपने करीबियों का हाल चाल जानने के लिए तुरंत उनसे जुड़ जाते है |
 क्रमश: