May 15, 2010

लोकतंत्र और प्रजातंत्र में क्या अंतर है बताये इन पढ़े लिखे बेरोजगारों को

क्यों भईया नोट्स तो पूरे छ: दिए थे पेपर में पांच तो आये थे फिर चार क्यों किया, जब फसा चार तो चार ही न करते, क्यों ये लोकतंत्र वाला क्यों नहीं किया, अरे लोकतंत्र कहा आया था वो तो प्रजातंत्र आया था | ये सवाल जवाब आज से सालों पहले मेरे और मेरे चचेरे बड़े भाई के बीच की थी जब हम दोनों बी ए का पेपर साथ में दे रहे थे (दो साल लगातार बारहवीं में फेल हो कर बड़े भईया मेरे बराबर आ गये थे ) दोनों के कॉलेज बी एच यू से जुड़े थे और हमारे विषय एक थे इसलिए मैं उनको अपने नोट्स(फर्रिया तो बच्चे बनाते है)  देते थी जो वो परीक्षा में बाक़ायदा सामने रख कर टिपा करते थे( इसी अच्छी सुविधा के कारण भईया जैसे सारे लड़के उस कॉलेज में एडमिशन लेते थे ) उनका ज्ञान कितना था अब तक तो आप समझ चुके होंगे | असली झटका मुझे तब लगा जब हमारे नतीजे आये उस लोकतंत्र प्रजातंत्र वाले विषय में उनके नंबर मेरे बराबर थे और बाकी विषयों में मुझसे ज्यादा ( इस वजह से उस समय मुझे मेरे संयुक्त परिवार में मज़ाक का पात्र बनना पड़ा और मुझे आज तक नहीं पता चला की उनके नंबर मुझसे ज्यादा कैसे आये ) वो अलग बात है की अगले साल तक उस ख्यातिमान (कुख्यात ) कॉलेज की प्रसिद्धि बी एच यू तक चली गई और वो परिक्षाए अपने यहाँ कराने लगा और पहला पेपर देने गये भाई साहब जब उपकुलपति को गनर के साथ खुद परीक्षा हाल में टहलते देख तो सादी कापी जमा कर भाग खड़े हुए | ये किस्सा मुझे अचानक कल याद आया जब मेरे एक मित्र ने बताया की उनके पास एक लड़का आया था काम मागने के लिए अपने एम ए और बी एड की डिग्री की काफी देर तक शान दिखता रहा फिर जब मैंने उससे कैलकुलेटर दे कर कहा की जरा प्रतिशत निकाल कर दिखाए तो उन जनाब को कंप्यूटर के ज़माने में भी कैलकुलेटर तक प्रयोग करना नहीं आ रहा था उलटा मुझसे पूछने लगे की काम क्या करना है पहले ये बताईये जब बताया गया की आप को दुकानों  में जा कर माल का आडर लाना है तो बिफर पड़ा की मैंने इतनी बड़ी बड़ी डिग्रिया इस तरह का छोटा काम करने के लिए नहीं ली है और चला गया |
               देश में आज इस तरह के पढ़े लिखे बेरोजगारों की पूरी फौज खड़ी है | जिन्हें अपनी डिग्रियों( बेमतलब की )  और ज्ञान ( जो की किताबी है ) को लेकर एक अजीब तरीके की खुशफहमी है जैसे की उन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया हो  | यदि इन लोगों से पूछा जाये की वो क्या सोच कर एम ए, बी एड यहाँ तक की पी एच डी कर रहे थे या क्या सोच कर विषय का चयन किया था उनके विषयों का आगे क्या स्कोप है  तो इनके पास कोई जवाब नहीं होगा वो खुद नहीं जानते तो बताएँगे क्या  ( अब ये कैसे कहे की पढ़ाई तो बस बहाना था मकसद तो मित्रों के साथ तफ़री करते रहने का था और इससे सरल कोई और विषय ही नहीं था ) | इनमें भी कुछ ऐसे है जो नकल मार कर या अपनी जगह किसी और से परीक्षा दिला कर या अन्य किसी भी तरीके से डिग्रिया पा जाते है और खुद को डिग्री धारी होने की गलतफहमी में जीते है | इस प्रकार के डिग्रीधारियो को कम से कम इस बात का एहसास होता है (भले कुछ धक्के खाने के बाद ) की उसको जो काम मिले कर लेना चाहिए क्योंकि उसके हाथ में जो डिग्री है उसका मोल ज्यादा कुछ नहीं है बल्कि इनमें से कुछ तो अपनी व्यवहारिक दिमाग के बल पर ज्यादा अच्छा काम पा भी लेते है और उसमे प्रगति भी करते है | दूसरे वो होते है जो रट रट कर डिग्री पा लेते है और खुद को पढ़े लिखे होने की खुशफहमी में जीते है | मुसीबत इन्ही पर ज्यादा आती है क्योंकि किताबों में लिखी किताबी बातों के अलावा इनको कोई भी व्यवहारिक ज्ञान नहीं होता है | जिस सवाल का जवाब इनको नहीं आता उसका सीधा सा जवाब देते है जी ये हमारे कोर्स के बाहर का है | इनसे ज्यादा व्यवहारिक ज्ञान और जानकारियाँ किसी भी बड़े शहर के दसवी के क्षात्रो को होती है |  इनकी डिग्रिया स्टील की राड बन कर इनके रीढ़ की हड्डी में घुस जाती है इसी कारण इनकी गर्दन हमेशा अकड़ी रहती है और नाक ऊँची और उस ऊँचाई से इन्हे हर काम छोटा दिखाई देता है | हर वक्त इनका यही रोना रहता है की इतनी पढ़ाई लिखाई क्या ऐसा छोटा काम करने के लिए की, सालों तक बेरोजगार पड़े रहेंगे पर हर काम को छोटे बड़े के पैमाने में तौलते रहेंगे | साथ ही इस ज्ञान पर तुनक ये की पहली नौकरी भी बीस बाईस हजार से कम की नहीं करेंगे | अब आप बताईये की इन डिग्री धारी अनपढ़ बेरोजगारों का क्या किया जाये | तीसरे तरीके के वो बेरोजगार है जो शायद सबसे ज्यादा बदकिस्मत होते है  बारहवीं या स्नातक के बाद प्रोफेशनल कोर्स के महत्व को समझाते हुए किसी प्रोफेशनल कोर्स में दाख़िला ले लेते है पर दाख़िला लेते समय संस्थान की पृष्ठभूमि का पता नहीं लगाते है | आज कल के समय में प्रोफेशनल कोर्सो के महत्व को सभी जानते है और युवाओं में इनके प्रति आकर्षण को भी इसी कारण अब हर गली मोहल्ले की नुक्कड़ पर हर तरह के व्यावसायिक विषयों में डिग्री डिप्लोमा देने का दावा करने वाले संस्थान कुकरमत्तो की तरह उग आये है | इनमें से ज्यादातर संस्थान फ़र्ज़ी होते है और उनकी डिग्री डिप्लोमा भी, कुछ तो ऐसे है जो किसी अन्य नामी संस्थान ( जिससे जुड़े होने का दावा करते है ) के सेलेबसटीचरों और कुछ आधे अधूरे इन्फ्रास्टकचर द्वारा पूरा कराते है पर कुछ के पास तो ये सब भी नहीं होता है | वैसे बता दे की ऐसे संस्थानों की भी कोई कमी नहीं है जो पूरी तरह से वैध है और कई तरह के प्रोफेशनल कोर्स भी चलते है पर उनके पास भी न तो अच्छे टीचर है और न ही किसी तरह का इन्फ्रास्टकचर यहाँ तक की उनके पास ढंग का सेलेबस भी नहीं है | यहाँ से पढ़े युवाओं को अपने कोर्स की आधी अधूरी जानकारी फ़र्ज़ी डिग्रियों का पता तब चलता है जब वो नौकरी की तलाश में बाहर आते है या दूसरे अच्छे संस्थानों के विद्धायार्थियो से मिलते है पर तब तक काफी देर हो चूकि होती है | इनकी गलती ये होती है की ये ऐसे संस्थानों में दाख़िला लेने से पहले उसके बारे  में कुछ  भी पता नहीं करते है और उनके दावों को सच मान लेते है तो कई बार अच्छे संस्थानों में दाख़िला नहीं मिलने से या इन जगहों पर फ़ीस कम होने की वजह से भी लोग ऐसे फ़र्ज़ीवाडे के चक्कर में फस जाते है | इनमें से कुछ तो अपने निजी योग्यता के बल पर कुछ अच्छी नौकरी पा लेते है और ऊपर भी बढ़ते है पर जिनके पास वो नहीं होता है या तो अच्छी नौकरी की तलाश में भटकते रहते है या फिर उसी लाइन में मज़बूरी में निचले स्तर पर काम करते है जो उनकी उम्मीद और चाहत से काफी कम होता है | ये बेचारे भी सारी जिंदगी खुद को बेरोजगार समझ कर हमेशा दूसरे अच्छे कम की खोज में लगे रहते है | ये बेचारे तो सहानुभूति के पात्र होते है पहले वाले अपनी योग्यता अनुसार कोई न कोई कम पा जाते है पर ये बीच वाले जो काफी पढ़े लिखे होने की ग़लतफहमी में जीते है वो हमेशा बेरोजगारों की फौज में सिर्फ इज़ाफा ही करते है और सारी जिंदगी बेरोजगार ही बने रहते है | अब ऐसे लोगों को उनकी हक़ीकत कैसे बताया जाये ये आप ही बताए |
 

6 comments:

  1. ज्यादा दोष तो हमारी शिक्षा व्यवस्था में है जो ऐसे बेरोजगारों को पैदा कर रही है जहा तक बात फर्जी संस्थानों का है तो इसके लिए भी सरकार ज्यादा दोषी है जो इनकी दुकान बंद कराने में नाकाम है

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  2. छोटे शहरों में युवाओ को कोई गाईड करने वाला नहीं होता है यहाँ वहा से सुन पढ़ कर जो समझा में आता है कर लेते है | जबकि बड़े शहरो में काउंसलर उबलब्ध है कुछ विश्वविद्यालय तो छात्रो को कैरियर काउंसलिंग मुफ्त में देते है | फिर कुछ छोटे शहरों में तो उनके पास ज्यादा विकल्प भी नहीं होता है

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  3. ha ye suchh hai chote shahro me degree jyda hai learning kam!!!!!!!
    Aakhir aisa kyo ? esme matr Bhaiya jee ko dosh nahi hai ye byawstha (system) ka dos hai!!!!!!

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  4. Bahu5t khoob. very nice. sach yahi hai k moh bhang ho rahe hain.

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  5. Agar bat kre jaisa ki above me wright kiya gya h.ye Jo bhi h system ki galti h aur khud ka decision h ki mujhe kya krna chahiye aur kya nhi aur sath me students ki parents ka poor conditions hota h joki government bahut sari yojnaye lunch kite huye h phir bhi knowledge ki kami ke karan ye conditions h...Manish Yadav (m.sc.).

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  6. Agar bat kre jaisa ki above me wright kiya gya h.ye Jo bhi h system ki galti h aur khud ka decision h ki mujhe kya krna chahiye aur kya nhi aur sath me students ki parents ka poor conditions hota h joki government bahut sari yojnaye lunch kite huye h phir bhi knowledge ki kami ke karan ye conditions h...Manish Yadav (m.sc.).

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