December 20, 2016

फेयरनेस क्रीम एक नस्लवादी सोच -------mangopeople


                                                     कुछ साल पहले एक सेल्स गर्ल आई मैम हमारी कंपनी का फेयरनेश क्रीम ले लीजिये उसका कोई मुकाबला नहीं है , मैंने कहा मैं फेयरनेस क्रीम नहीं लगाती । अपनी आंखे बड़ी बड़ी कर बोली क्या आप फेयरनेस क्रीम नहीं लगाती , ठीक है पहले कौन सी लगाती थी । मैंने जवाब दिया मैंने कभी फेयरनेस क्रीम नहीं लगाई है , अब धुप से बचने के लिए आप की कंपनी का क्रीम लगाती हूँ लेकिन फायदा कोई नहीं है । फिर उसने ज्ञान दिया की मुझे तो फेयरनेस क्रीम लगनी चाहिए । हम चार भाई बहन चार अलग अलग रंग के है , पूरा खानदान ही करीब मिली जिला प्रजाति का है , इसलिए घर में कभी काला गोरा रंग मुद्दा ही नहीं रहा और न कभी हमें गोरे होने की क्रीम लगाने के लिए कहा गया । विवाह मे ये समस्या बनी किन्तु अंत में विवाह के लिए आप का व्यवहार , स्वभाव ही महत्वपूर्ण होता है । बाद में सांवली दीदी और खुद मेरा विवाह भी गोरे, दूध से गोर ( शब्द जो समाज प्रयोग करता है ) लोगो से हुआ , साफ है उनके लिए भी रंग कोई मुद्दा नहीं था । जबकि मेरे गोरे भाई बहन के जीवन साथी सांवले आये ।

                                                  एक न्यूज चैनल बता रहा है कि उसने एक साल से गोरे होने की क्रीम का विज्ञापन नहीं दिखाया है , उसके अनुसार गोरे होने की क्रीम एक तरह की नस्लवादी सोच है । उसका कहना बिलकुल सही है की आज की तारीख में जिस तरह से इन क्रीम को बेचने के लिए आक्रमक प्रचार किया जाता है उससे ये एक बड़ी समस्या जैसी बन गई है । आप गोरे नहीं है तो जीवन में आप का कुछ हो ही नहीं सकता । पहले इसे केवल विवाह में समस्या के तौर पर देखा जाता था किन्तु अब तो साफ प्रचारित किया जाता है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में आप सफल ही नहीं हो सकते यदि आप गोरे नहीं है । लडकिया क्या लड़को में भी ये हीन भावना और तेजी से भरी जा रही है । उनके लिए अलग से गोर होने के लिए क्रीम लाया गया है । खूब अच्छे से समझाया जाता है कि लड़कियों की क्रीम आप पर नहीं चलेगी और बिना गोरे हुए आप भी कुछ नहीं कर सकते । आप के तो जीवन लक्ष्य ही है कि दो चार लडकिया आप के आगे पीछे चिपक कर खड़ी रहे और रंग गोरा न हुआ तो आप ये लक्ष्य नहीं पा सकते ।
                                              ऐसा नहीं है कि हमारे समाज में रंग को लेकर कोई भेद ही नहीं था , था और बहुत गहराई से था , इसे तो वर्ण व्यवस्था तक से जोड़ दिया गया था । लेकिन तब लड़कियों के रंग को ही देखा जाता और विवाह ही एक मुद्दा होता था और उसके लिए घरेलु उबटन आदि का प्रयोग किया जाता था । किन्तु उसका स्तर ये नहीं था कि हर किसी को बस गोरी बहु ही चाहिए या समाज में हर जगह बस गोर लोग ही चाहिए । किन्तु आज बच्चे होते ही उसके रंग को लेकर चर्चा होने लगती है , ये बात लोग अक्सर नहीं समझते की रंग तो ज्यादातर परिवार के सदस्यो के रंग जैसा ही होगा । लोग तुरंत गोर होने के उपाय बताने लगते है , यहाँ तक की बच्चे के जन्म के पहले बच्चे गोर हो उसके लिए भी उपाय बताये जाते है  गर्भवती स्त्रियों को करना चाहिए । आजकल कंपनियों ने इसे महामारी की तरह बना दिया है । गोरी बहु चाहिए से मामला कर्मचारी खासकर यदि वो फ्रंट डेस्क के लिए हो तो गोरा ही होना चाहिए तक पहुँच गया है । इस कारण लडके और लडकिया में सवाले होने पर आत्मविवास कम हो जाता है और शुरू हो जाते है इन कंपनियों का बैंक बैलेंस बढ़ाने । जबकि वास्तव में किसी क्रीम से गोरा होना संभव नहीं है । आप धुप से बचने के उपाय कर सकते है किन्तु अपनी त्वचा के वास्तविक रंग को क्रीम से गोरा नहीं कर सकते है ।

                                               कई बार इस पर चर्चा समाज में हो चुकी है इसे ख़राब भी माना गया किन्तु शायद हमारे अपने अंदर ही ये कमी है की इसको एक मुहीम जैसा नहीं बना सके की बाजार अपने रुख को बदल सके , जबकि कई मुद्दों पर बाजार ने अपने आप को बदला है । शायद समाज भी उसी नस्लवादी सोच का बना गया है जिसका फायदा बाजार उठा रहा है । एक बार नादित दास को इस मुहीम से जोड़ा गया और जो तस्वीर उनकी ली गई उसमे भी उन्हें उनके वास्तविक रंग से ज्यादा साफ दिखाया गया । अब आप सोच सकते है कि समाज की समझ क्या है । टीवी पर कितने ही धारावाहिक आये जो इस सवाल रंग की समस्या को लेकर शुरू हुए किन्तु दो तीन साल बाद ही जब अभिनेत्री की पुरानी तस्वीर से जब धारावाहिक शुरू हुआ था से मिलाया गया तो पता चला की अभिनेत्री को भी मेकअप लगा कर दो साल में धीरे धीरे पहले से और साफ रंग का बना दिया गया ।
                                             ये सोच बचपन से समाज , परिवार द्वरा बच्चो में भर दी जाती है । मेरी बेटी जब कुछ तीन साल की हुई तो मुझे पता चला की इतने समय में ही सभी ने उसके साफ रंग को लेकर इतनी तारीफ की , इतनी बाते उसके सामने की कि उसे लगने लगा काला या सांवला रंग होना एक बुराई है और इस बात को उसके छोटे से दिमाग से निकालने में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी । अब अंदाज लगा सकते है कि समाज से इस सोच को बाहर निकालने में कितनी मेहनत करनी पड़ेगी , पर शुरुआत तो करनी ही होगी । ऐसे उत्पाद के विज्ञापन को नहीं दिखाने के लिए चैनल को बधाई दिया जाना चाहिए सराहना चाहिए और दुसरो को भी ऐसा कुछ करने के लिए दबाव डालना चाहिए ।

     फेयरनेस क्रीम एक नस्लवादी सोच 

No comments:

Post a Comment