बात आज से सात साल पहले की है मेरी एक मित्र को गर्दन में बार बार दर्द होता था अक्सर हमें गलत तरीके से सोने या तकियों की वजह से हो जाता है वैसा ही, वो फिजियो थेरेपिस्ट के पास जा कर उसकी सिकाई करवाने लगी साथ ही उसकी बताई कसरत भी करने लगाई | जो बीमारी ये सब करने के बाद दस दिन में ही ठीक हो जानी चाहिए थी वो महीने भर तक ठीक नहीं हुई फिजियो थेरेपिस्ट थोडा शंकित होने लगा बोला आप का पुरा चेकअप करता हु और जैसे वो हथोडी से शरीर के कुछ खास बिन्दुओ पर मार मार कर चेकअप करते है करने लगा फिर बोला आप काफी हाइपर है क्या अक्सर आप को शारीरिक रूप से परेशानी होती है | तो मेरी मित्र ने बताया की नहीं वो काफी शांत स्वभाव की थी किन्तु तीन साल के बच्चे के कारण अभी थोड़ी चिडचिडापन आ गया है हा थोड़ी शारीरिक परेशानी अभी एक साल से हो रही है | डाक्टर ने कहा नहीं बात सिर्फ यही नहीं है आप क्या काम करती है उसने कहा फिलहाल कुछ नहीं बच्चे के कारण तीन साल से छोड़ दिया है पहले करती थी | वो इंटीरियर डिजाइनर थी और आठ साल उसने ये काम किया और बच्चे होने के बाद छोड़ दिया | डाक्टर ने कहा की आप फिर से काम शुरू कर सकती है तो करे आप की समस्या मानसिक ज्यादा है शारीरिक कम | उसने घर आ कर मुझे ये बताया हमने मिल कर सौ खरी खोटी उस डाक्टर को सुनाई की फिजियो हो कर वो हमें मनोवैज्ञानिको की तरह सलाह दे रहा है इलाज नहीं कर सका तो बहाना मार रहा है | फिर भी मैंने अपने सहेली से कहा की अब तो बच्चा स्कुल जाता है तुम घर में ही एक दो काम क्यों नहीं ले लेती तुम्हारी बिल्डिंग में ही कई लोग घर रिन्यू करा रहे है उनसे बात करो और कुछ करो | एक साल बाद ही वो घर बैठ कर अपना काम करने लगी जितना समय मिलता बस उतना ही काम लेती और आराम से घर और अपना कैरियर संभालने लगी | साल भर बाद आ कर मुझसे कहने लगी की जानती हो उस फिजियो ने शायद सही कहा था, मेरी समस्या शारीरिक कम मानसिक ज्यादा थी अब मुझे बार बार वह गर्दन की समस्या नहीं होती है और मेरा चिड़चिड़ापन भी चला गया जो मै बच्चे के कारण समझती थी |
आप को भी सुन कर थोडा आश्चर्य होगा किन्तु ये सच है ये समस्या केवल मेरी मित्र की नहीं है बल्कि भारत की उन लाखो महिलाओ की है जो योग्यता और इच्छा होने के बाद भी परिवार बच्चे के लिए अपना काम बंद कर देती है | कुछ महिलाए है जो बच्चो को परिवार के अन्य सदस्यों के पास छोड़ कर या आया के पास छोड़ कर अपना काम जारी रखती है किन्तु कुछ है जो अपने बच्चो को दूसरो के भरोसे नहीं छोड़ना चाहती और खुद ही अपना कैरियर त्याग देती है | ऐसा नहीं है की वो घुट कर जी रही है या परिवार का दबाव है, वो खुद अपनी इच्छा से ये करती है किन्तु बच्चे के बड़े होने के साथ ही जब उन्हें थोडा समय मिलने लगता है तो उनके अंदर एक खीज एक गुस्सा धीरे धीरे पनपने लगता है अपने ही उस फैसले के खिलाफ जो उन्होंने अपनी ख़ुशी से लिया है जिसको ज्यादातर महिलाए पहचान ही नहीं पाती है | बार बार शारीरिक समस्या होना बात बात पर चिढाना हर बात को दिल से लेना कभी कभी गुमसुम हो जाना दूसरो पर चीखने चिल्लाने लगाना हर किसी को सक की नजर से देखना जैसे अनेक लक्षण सामने आते है इस अंदरूनी खीज और दर्द के कारण | ये समस्या उनमे ज्यादा होती है जिनके लिए काम उनका जूनून होता है १० से ५ का नौकरी नहीं या जिन्होंने अपने काम के लिए विशेस योग्यता पाने के लिए खासी मेहनत की हो खूब पढाई की हो जैसे डाक्टर, इंजीनयर, आर्किटेक, वकील, अनेक है | काम के प्रति जुनून होने और मेहनत से पाई योग्यता जब बेकार जाती है तो अंदर ही अंदर एक दर्द पलने लगता है जिसे वो खुद ही नजर अंदाज करती चलती है |
मै कॉलेज में थी तो मेरी राजनीति शास्त्र की लेक्चरर ने एक बात कही थी | ३४ की उम्र में उनका विवाह हुआ और ३५ में बच्चे , जे एन यु से गोल्ड मेडलिस्ट पीएच डी , लम्बा ना छोड़ने लायक कैरियर पर बच्चे की चिंता, इन सब के बीच जब वो हमें पढ़ाने आई तो बोली की रोज यहाँ आने से पहले मुझे खुद से एक युद्ध लड़ना पड़ता है युद्ध होता है एक पश्चिम की नारी और एक भारतीय माँ के बीच, मै दोनों को ही हारता नहीं देखना चाहती है और दोनों ही अपनी जगह सही है ,या तो दोनों रोज थोडा थोडा हारेंगी या ये रोज का द्वन्द एक दिन किसी एक की मौत के साथ बंद होगा | यही कारण है की ये समस्या एक भारतीय माँ के लिए बड़ी हो जाती है वो एक पश्चिम की नारी ( इसका अर्थ यहाँ नारी के अस्तित्व की पहचान बनाने से है ) तो बन गई है पर उसके अंदर की एक भारतीय माँ कही नहीं गई है और वो अपने बच्चे और परिवार को भी उतना ही या कहु थोडा ज्यादा महत्व देती है और जिंदगी एक मोड़ पर उसे दो में से एक चीज चुनने के लिए कह देती है | बच्चा और परिवार उसके लिए साँस लेने जैसा है तो उसका काम और कैरियर उसके लिए जीवन में पानी जैसा है और जीवन के एक मुकाम पर आ कर उन्हें दोनों में से एक चुनना पड़ता है | यानी उस महिला की मौत निश्चित है साँस लेना छोड़ा तो अभी मर जाएगी पानी छोड़ा तो कुछ दिन बाद मर जाएगी | माँ का अस्तित्व या खुद का अस्तित्व दोनों में से एक की मृत्यु तो होगी है |
आगे पढ़ने के लिए यहाँ जाये
एक अंतर्द्वंद्व, नारी का! बरसों पहले सत्यजित रे कि एक लघु फ़िल्म आई थी जिसका नाम था अभिनेत्री.. उन्होंने यही बताया था कि नारी एक समय में कितने अभिनय(रोल)अदा करती है!
ReplyDeleteआपने इसके हर आयाम को छुआ है, क्योंकि आप नारी हैं. और यह एक नाई वादी नहीं यथार्थवादी का बयान है!!
सोनीपत (ब्यूरो) । गांव शामड़ी में एक शराबी युवक ने अपनी मां पर मिट्टी का तेल छिड़ककर उसे आग के हवाले कर दिया। मां का क़सूर सिर्फ़ इतना था कि उसने रात को शराब के नशे में धुत होकर आए बेटे को शराब पीने से मना किया था।
ReplyDeletehttp://pyarimaan.blogspot.com
ReplyDeleteअपनी सी ही कहानी लगती है ..शायद हर किसी की हो आज ..ममता पकड़ो तो अस्तित्व हाथ से निकल जाता है ..अस्तित्व समेटना चाहो तो ममता हिलोरे मारने लगती है..कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ता है .
ReplyDeleteअन्शुमालाजी यह निर्णय अगर स्वेच्छा से किया जाय तो ज़्यादा तकलीफदेह नहीं होता .....ऐसा मेरा भी सोचना है....
ReplyDeleteपर अक्सर यह सब महिलाओं की अपनी इच्छा से ही नहीं होता । शादी के बाद के बाद शहर बदल जाना या देश ही बदल जाना , बच्चे, पारिवारिक हालात कई बातें शामिल हो जाती हैं जिनके चलते महिलाओं का काम छूट जाता है ...वे अकेले पड़ जाती हैं .... और यह स्थिति बहुत पीड़ादायक होती है.... मानसिक ही नहीं शारीरिक समस्याएं भी उन्हें घेर लेती हैं.... मैं यह भी मानती हूँ.....
निश्चित ही ऐसे फेसलों में एक सामान्जस्य की जरुरत है..अन्यथा तो आप का कहना बिल्कुल सही है कि कितने ही लोग इस तरह की समस्याओं से जुझ रहे हैं.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteएक सामान्जस्य की जरुरत है..
ReplyDeleteअसली समस्या,समस्या पहचानने की है।
ReplyDeleteजब तक हम ऐसी समस्याओं को केवल नारी की समस्या बताते रहेंगे तब तक इनका निदान नहीं होने वाला। यह समस्या परिवार एवं समाज की हैं अत: सभी को मिल-बाँटकर हल करनी होगी। वर्तमान युवापीढ़ी ने इस बारे में चिंतन किया है और आज नवयुगल मिलकर सुख से अपनी गृहस्थी चला रहे हैं।
ReplyDeleteडाक्टर मोनिका शर्मा जी ने सही कहा है। हमे मानसिक तौर पर हर समस्या के लिये तैयार रहना चाहिये। बहुत अच्छा लगा आलेख। धन्यवाद।
ReplyDeleteदोनों रूपों का सामंजस्य आवश्यक है ! जीवन तभी सुखद होगा ! शुभकामनायें अंशुमाला !
ReplyDeleteदोनों रूपों का सामंजस्य आवश्यक है
ReplyDeleteअंशु जी,
ReplyDeleteबड़ा नाजुक विषय लिया है....मैने भी कई जगह पढ़ा है...कि दरअसल ये शारीरिक व्याधियां नहीं, मन की ग्रंथियां होती हैं जो खुल नहीं पातीं और शरीर को तकलीफ देने लगती हैं..कमर-दर्द हो...कंधे का दर्द हो या फिर एक्जिमा या एलर्जी...अक्सर , सबकी जड़ कोई मानसिक परेशानी ही होती है.
पहले महिलाएँ...सिलाई -कढाई या किसी तरह का हाथ का काम जरूर करती थीं और यह उनके लिए एक मेंटल थेरेपी था. आज भी किसी ना किसी तरह की हॉबी...आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है....घर-बच्चों पर पूरा ध्यान दें...पर कुछ समय खुद के लिए बचा कर रखना बहुत जरूरी है.
गहरे से चिंतन कर किसी निर्णय पर पहुँच कर ..फिर आगे बढ़ने की जरुरत है ....आपने बहुत संजीदा विषय का चुनाव किया है ...आपका आभार
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग का अनुसरण करने के लिए आपका आभार ....आप अपना मार्गदर्शन यूँ ही बनाये रखना ...आपका धन्यवादी रहूँगा
ReplyDelete
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - ठन-ठन गोपाल - क्या हमारे सांसद इतने गरीब हैं - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
क्या समस्या इतनी छोटी हैं जो अपनी इच्छा और अनिच्छा के बीच मे फंसने से नारी के साथ ये सब होता हैं । नहीं ऐसा नहीं हैं । असली समस्या हैं कि बेटियों को पढ़ा लिखा कर भी हमारा समाज उनके लिये विवाह को ही उनकी नियति मानता हैं । अविवाहित बेटी आज भी समाज मे खुले मन से स्वीकार्य नहीं हैं । आज भी घर का काम नारी कि ही ज़िम्मेदारी हैं ।
ReplyDeleteहां मे अंशुमाला कि इस बात पर अपनी आपत्ति जताती हूँ कि पढ़ लिख कर भारतीये नारी पश्चिम की नारी बन गयी और भारतीये माँ उसके अन्दर फिर भी रही । माँ का अस्तित्व देश या किसी सीमा रेखा से नहीं बंधा हैं । पश्चिम की नारी कितनी सक्षम माँ होती हैं ये इस बात से ही पता चलता हैं कि वो केवल बच्चे पैदा करने से माँ बनने का सुख नहीं पाती हैं अपितु गोद लेकर भी इस कि अनुभूति का आनद उठाती हैं । पश्चिम मे जितना गोद लेने का प्रचलन हैं यहाँ नहीं हैं क्युकी वहाँ काम काजी महिला ४५ वर्ष के बाद ही बच्चो के विषय मे सोचती हैं और फिर गोद लेती हैं ।
केवल एकल महिला नहीं विदेशो मे विवाहित महिला भी गोद लेती हैं बच्चे और केवल इस लिये क्युकी वो माँ बनना चाहती हैं । माँ बनने के लिये बच्चे पैदा करना जरुरी नहीं हैं । ये भारतीये सभ्यता हैं जहां आज भी नारी को कंडीशन किया जाता हैं कि शादी करने मे और माँ बनने मे ही उसकी सम्पूर्णता हैं । भारतीये सभ्यता मे कोई बुराई नहीं हैं बुराई हैं हमारी अपरिपक्व सोच मे ।
जो लडकिया शादी कर लेती हैं किसी भी दबाव के तहत वही बाद मे ज्यादा परेशान रहती हैं । हम खुल कर अगर अपने घर मे अपने अभिभावकों से बात कर ले और अपनी सोच को सही कर सके तो ही हम खुश रह सकते हैं ।
इस के अलावा पोस्ट मे बहुत कुछ हैं जिस पर सोचना चाहिये
दोनों रूपों मे सामंजस्य जरुरी हैं , हर कोई ये कह कर आगे चल दिया पर सामजस्य कैसे बिठाया जाए ?? किसी भी कमेन्ट देने वाले ने ये नहीं कहा ??? सामंजस्य नारी को ही बिठाना होगा इस पर सब एक मत होते हैं क्युकी माँ सिर्फ नारी बन सकती हैं पर नारी का माँ बनना उसकी रूचि हैं या उस कि जरुरत या मज़बूरी इसको कौन परिभाषित कर सकता हैं और क्या सब को ये अधिकार हैं कि वो अपनी सुविधा से चुनाव कर सके कि उनको क्या करना हैं ।
ReplyDeleteआज भी अगर संतान नहीं होती हैं या देर से होती हैं तो स्त्री पर दबाव बनया जाता ससुराल और मायके दोनों तरफ से यहाँ तक कि कई बार पति कि इच्छा नहीं होती हैं कि बच्चा जल्दी हो तब भी यही कहा जाता हैं अब ये पश्चिमी सभ्यता कि अनुयायी हो गयी हैं ।
@ सम्वेदना के स्वर जी
ReplyDeleteएक महिला कभी कभी एक दिन में ४८ घंटे काम करती है एक साथ दो तीन भूमिका में काम करके | फिल्म में शायद स्मिता पाटिल ने उसमे मुख्य भूमिका निभाई थी |
@ अनवर जमाल जी
अपना लिंक देने के साथ ही मेरा लेख भी पढ़ लेते तो अच्छा लगता |
@ शिखा जी
हा किसी एक भूमिका से तो समझौता करना ही पड़ता है |
@ मोनिका जी
मैंने यहाँ पर उन महिलाओ की ही बात की है जो स्वेच्छा से ऐसे निर्णय लेती है किन्तु कहते है ना की कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है पाने की ख़ुशी तो है पर जो खोया है वो भी तो अपनी प्यारी चीज थी उसे खोने का दर्द तो होगा ही |
@ समीर जी
धन्यवाद | ये सामंजस्य ही तो नहीं हो पता है जिसके कारण काम छोड़ना पड़ता है |
@ सुनील जी
ReplyDeleteधन्यवाद |
@ राजेश जी
धन्यवाद | कई लोग इस समस्या को नहीं पहचान पाते है |
@ अजित जी
हा ये सही है की युवा पीढ़ी ने थोड़ी पहल तो की है अब विवाह के तुरंत बाद लोग परिवार नहीं बढ़ते है कुछ साल बाद है इस बारे में सोचते है और कुछ कंपनिया भी है जो महिलाओ की इस बारे में मदद कर रही है लेकिन उसके बाद भी परिवार एक ना एक दिन तो बढेगा ही और सभी के काम की प्रकृति ऐसी नहीं होती की वो घर पर रह कर काम कर सके |
@ निर्मला कपिला जी
हम इस तरह की समस्या के लिए कितनी भी तैयारी कर ले तकलीफ तो तब भी रहेगी ही |
@ सतीश जी
धन्यवाद |
स्त्री चाहे स्वेच्छा से ही करे करिअर का बलिदान , मगर कुछ रचनात्मक नहीं कर पाने का दर्द तो साथ होता ही है ...ममता और करियर के बीच फंसी आजकी नारी की कशमकश पर अच्छा चिंतन किया है . .मध्यमवर्ग परिवारों में दुविधा अधिक होती है क्योंकि बच्चे ही नहीं , बुजुर्ग माता पिता हो तो ऐसे में उन्हें अकेले छोड़ा नहीं जा सकता (जिन्हें उनसे प्यार हो ), कई बार कशमकश में घिरती हूँ मैं भी ,आखिर इस समस्या का हल क्या हो !
ReplyDeleteइस तकलीफ़ से पीडि़त मरीजों में नारियों की संख्या यकीनन ज्यादा है, लेकिन मनपसंद लाईन में कैरियर बना पाना बहुत कम लोगों के लिये ही संभव हो पाता है, वजह परिवार व समाज के दबाव ही हैं। ये समस्या सिर्फ़ नारियों की न होकर समस्त समाज की है, और सभी को इधर ध्यान देना चाहिये। वैसे हालात बदल रहे हैं,ये अलग बात है कि कैरियर ओरियंटेड महिलाओं के बढ़ते प्रतिशत से दूसरी समस्यायें भी सामने आ रही हैं, लेकिन यही तो जीवन है। जीवन है तो समस्यायें हैं, समस्यायें हैं तो समाधान हैं।
ReplyDeleteआज तो toure-de-france करवा दिया, पर हम भी पक्के हैं, कमेंट यहीं लौटकर किया। नई जगह पर किसी को बात पसंद न आई तो लेने के देने पड़ सकते थे:))
दोनों रूपों का सामंजस्य आवश्यक है| धन्यवाद|
ReplyDeleteरचना ...
ReplyDeleteआंदोलित करती है ... !
अंशुमाला जी!
ReplyDeleteबिलकुल सही! अब आप शायद उस फिल्म के विस्तार पर हमारी सहमति समझ सकती हैं!!हालाँकि सहमति या असहमति से महत्वपूर्ण है अनुभूति उस रोल की!!
बढिया विषय चुना है आपने.thought provoking.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअंशुमाला जी इस मुद्दे पर अपना तो सीधा साधा नजरिया है कि संतान पैदा करो तो उसे पूरा वक्त दो और अगर आप अपनी संतान को अपना पूरा वक्त नहीं दे सकते तो माता या पिता बनाने कि बात भी मन में ना आने दो. बच्चे पैदा कर उन्हें भुलाने का काम तो जानवर ही करते हैं इन्सान नहीं. इसी विषय पर मैंने बहुत पहले एक पोस्ट लिखी थी जिसमे मैंने विस्तार से अपने मन कि बात कही है. मौका मिले तो पढ़ लेन.
ReplyDelete"नौकरी पेशा महिलाओं को मेरा सन्देश
पहली बार टिप्पणी में किसी पोस्ट का लिंक देने का प्रयास किया है और बड़ी मुश्किल से सफल हुआ हूँ. इस जद्दोजहद में टिप्पणी में क्या कहना है इस पर से ध्यान ही हट गया. खैर कोई बात नहीं एक नयी चीज तो सीखी. विअसे मुझे ये तकनीक अविनाश वाचस्पति जी ने सिखाई जिसके लिए मैं यहाँ उनको धन्यवाद देता हूँ. अविनाश जी धन्यवाद.
ReplyDeleteऔर हाँ रचना जी से भी सहमत हूँ कि अगर किसी को अपने महत्वपूर्ण कैरियर के साथ साथ बच्चे पालने का शौक चर्राया ही है तो किसी बच्चे को गोद ले उस पर ही अपनी ममता लुटा दो. किसी अनाथ का जीवन संवर जायेगा.
ReplyDeleteमहिला हो या पुरूष,बिरले ही कोई मिलेगा जो ऊँचे से ऊँचा पद पाने के बावजूद असंतुष्ट न हो। दूसरी तरफ,शायद ही ऐसी कोई मां मिले जिसने मातृत्व को अद्वितीय आनंद की संज्ञा न दी हो। ज़ाहिर है,ऐसे करिअर उसको लेकर पैदा कथित द्वंद्व को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। महिलाएं अनंत संभावनाओँ से भरी होती हैं मगर मानवता को उनकी सबसे बड़ी देन मातृत्व ही है। लिहाजा,बच्चे सदैव उनकी प्राथमिकता होने चाहिए।
ReplyDelete@ दीपक जी
ReplyDeleteधन्यवाद |
@ रश्मि जी
पर दूसरी शौक पलने के बाद भी उसमे मन लगे ये जरुरी नहीं है फिर तो वो एक नई मुसीबत ही बन जाती है |
@ केवल राम जी
गहरा चिंतन करने के बाद ही तो इस निर्णय पर पहुंचती है और बाद में उसी पर पछताती है |
@ शिवम जी
वार्ता में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद |
@ रचना जी
आप की बात अपनी जगह सही है की ये समस्या काफी बड़ी है और उसके कई बिन्दुए है यहाँ मैंने उस बड़ी समस्या के सिर्फ एक बिंदु को ही लिया है जहा महिलाए अपनी इच्छा से काम छोड़ती है बाकि चीजो के बारे में मैंने इसलिए नहीं लिखा है |
@ एक पश्चिम की नारी ( इसका अर्थ यहाँ नारी के अस्तित्व की पहचान बनाने से है )
जैसा की मैंने लिखा है की ये शब्द मैंने अपने लेक्चरर के लिए है किन्तु यहाँ उसका क्या मतलब है वो भी बताने का प्रयास किया है | हा माँ की ममता को हम किसी सीमा में नहीं बांध सकते है किन्तु ये भी सत्य है की हम भारतीय माँ अपने बच्चे को लेकर कुछ ज्यादा ही पोसेसिव रहते है और काम छोड़ने की एक वजह ये भी होती है अब भारत में भी कई माँ अपने बच्चो को क्रश में या आया के भरोसे छोड़ कर काम पर जाती ही है किन्तु आज भी ज्यादातर माँ इन पर भरोसा नहीं करती है उनमे से एक मै भी हूँ | यहाँ पर पश्चिम की नारी और भारतीय माँ कहने का मेरे यही अर्थ था |
रचना जी एकल महिलाओ द्वारा बच्चे गोद लेने अब भारत में भी काफी प्रचलित हो गया है और उनकी संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है अब इसमे कोई क़ानूनी अड़चन भी नहीं आती है पहले की तरह | ना केवल महिलाए अब तो एकल पुरुष भी बच्चे गोद ले रहे है दो लोगो को तो मै भी जानती हु जो फैशन डिजाइनर है | समय के साथ भारत में भी ये आम बात हो जाएगी |
बाकि आप की बातो से सहमत हु |
@ वाणी गीत जी
ReplyDeleteधन्यवाद | समस्या यही है की हम सभी के पास इसका कोई हल नहीं है |
@ संजय जी
आप को तनिक ज्यादा धनबाद मिले काहे की हम यही बात लिखने वाले थे की पुरुष भी इस दर्द को समझ सकता है क्योकि कई बार उसे भी माता पिता परिवार की ख़ुशी के लिए अपने पसंद का करियर छोड़ना पड़ता है पर पुरुष शब्द नहीं लिखा काहे की पुरुष शब्द लिखते तो क्या पता लोग कहते इसके लिए भी हम पुरुषो को जिम्मेदार ठहरा रहे है "किसी को बात पसंद न आई तो लेने के देने पड़ सकते थे:))"
मुश्किल ये है की जिस समस्या की बात मै कर रही हु उसका कोई संधान नहीं निकाल रह है किन्तु ये जरुरी है क्योकि | यदि घर को संभालने और चलने वाला ही आशान्त हो तो पीड़ा में हो तो इसका प्रभाव पुरे परिवार पर पड़ता है |
@ Patali-The-Village जी
धन्यवाद |
@ दानिश जी
धन्यवाद |
@ संवेदना के स्वर जी
फिल्म जब देखी थी तो छोटी थी इसलिए आज सब कुछ तो याद नहीं है बस एक दो दृश्य और ये की उसमे वो एक पुराने समय की अभिनेत्री थी जो संभवत विवाहित होती है | बाकि आप ने सही कहा कि
सहमति या असहमति से महत्वपूर्ण है अनुभूति उस रोल की!!
@ sagebob जी
धन्यवाद |
@ दीप जी
ReplyDeleteब्लोगिंग से बड़ी लम्बी छुट्टी ले ली थी | आप ने जो कहा वही तो मै भी कहा रही हु की महिलाए बच्चे के लिए काम तो छोड़ देती है पर मन से उसे नहीं निकाल पाती है और आप को बता दू की सभी स्तनपाई जानवर अपने बच्चे से बहुत लगाव रखते है जानवर माँ तो तब ज्यादा खतरनाक हो जाती है जब बात उनके बच्चे की आती है |
आप के लेख से मै बिल्कुल सहमत नहीं हु | ज्यादा और नहीं कहा रही पूरी पोस्ट बन जाएगी |
और ये लिंक देना मुझे भी सीखना है |
@ कुमार राधारमण जी
हा सभी यही कह कर उन्हें दिलासा देते है की तुमने अच्छी चीज के लिए ये त्याग किया है किन्तु ये दिलासा तो बस मन बहलावे से ज्यादा कुछ नहीं होता है |
gud one. A topic which can be debated for months (not hrs or days)
ReplyDeleteKindly visit http://ahsaskiparten-sameexa.blogspot.com/
अन्शुमालाजी
ReplyDeleteये विषय इतना विस्तृत और उलझा हुआ है की परिस्थितियों के अनुसार ही और समाज अपने समाज के ढांचे के साथ चलकर नौकरी और परिवार में संतुलन लाया जा सकता है |आज के ५० साल या ६० साल पहले या उससे भी और थोडा पहले जब महिला नौकरी करने निकली थी तो उसकी कुछ मजबूरिय थी या परिवार पालने की जिम्मेवारी थी कैरियर बनाने के लिए निकलने वाली महिलाओ का प्रतिशत बहुत कम था |फिर नोकरी भी शिक्षिका या कोई सरकारी दफ्तर में जहाँ की काम के घंटे फिक्स होते थे |बहुत सी महिलाये तो संयुक्त परिवार में ही रहती थी तो बछो की पालन पोषण की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी |आज बहुत कुछ बदल गया गया महिला अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक हो गई है उच्च पदों पर कार्य करके या जो भी काम कर रही है उसमे अपने को समाज में स्थापित कर चुकी है |इस बीच बहुत कुछ बदल गया एकल परिवार हो गये महिलाओ के कार्य करने के क्षेत्र बढ़ गये तो उसके साथ समस्याए भी बढ़ गई है |रही बात पश्चिम की तो वहां भी माँ तो माँ ही होती है कितने ही उदाहरन अपने परिचित लोगो के है जिन्होंने अपने बच्चो को पालने के लिए अच्छी नोकुरी छोड़ी और जब बच्चे बड़े हो गये तो फिर से काम करना शुरू किया |आपको मै अपने घर का ही उदाहरन देती हूँ |मेरी काकी सास (जो मूल अमेरिकन है )जिनकी उम्र आज ६५ वर्ष है उस समय की phd है जेनेटिक्स में |भाभा अनुश्क्ति केंद्र मुंबई में कार्य किया फिर अमेरिका चले गये बच्चे हुए तो नौकरी छोड़ उन्ही पर ध्यान दिया और आज वो स्वतंत्र रूप से लेक्चर देती है सामाजिक कार्य करती है |ये तो व्यक्ति की अपनी च्वाइस है की वो किसे प्राथमिकता देता है |
टिप्पणी लम्बी हो गई है असल में बहुत कुछ कहना है इस विषय पर फिर कभी |
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार ०५.०२.२०११ को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
itni gahri soch wali post me itna manthan...:)
ReplyDeletemere liye likhne ke liye kuchh bacha hi nahi...post ke baad pura comments bhi padh gaya..!!
AGREED!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteअब सभी ब्लागों का लेखा जोखा BLOG WORLD.COM पर आरम्भ हो
ReplyDeleteचुका है । यदि आपका ब्लाग अभी तक नही जुङा । तो कृपया ब्लाग एड्रेस
या URL और ब्लाग का नाम कमेट में पोस्ट करें ।
http://blogworld-rajeev.blogspot.com
SEARCHOFTRUTH-RAJEEV.blogspot.com
बात आपने बिल्कुल सही कही है, अगर पुरूष इसमें साझेदार रहे तो बात कुछ हद तक संभल सकती है. पर देखने में यही आता है कि भारतीय नारी के संदर्भ में ममता ही हावी रहती है और करियर का गला भिंच जाता है. बहुत सामयिक और चिंतनीय विषय उठाया आपने. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
एक ही काम बेटा बहू दोनों करते हैं, बेटा काम से लौटता है तो हाथ में पानी का गिलास और चाय का कप अपने आप आ जाता है, मानो यह जादूगर का शो हो. बहू के सर पडती है अपेक्षाओं की भारी भरकम टोकरी। तब सब अबला व सबल वाले तर्क भुला दिेए जाते हैं क्योंकि न भुलाएँ तो सबल बेटे को मेज पर पाँव रख सोफे पर पसरने को न मिलेगा। यह दृष्य आपको घर घर देखने को मिलेगा। बस पात्र बदल जाते हैं और क्रूरता पति ही पत्नी पर नहीं करता अपितु हर सबल किसी क्षणिक मदहोशी में हर असहाय पर करता ही है। सीख यही है कि असहाय मत बनो।
ReplyDeleteघुघूती बासूती