June 15, 2012

क्या गरीब आदमी को उसके किये अपराध की सजा नहीं मिलनी चाहिए - - - - -mangopeople


                   विषय को समझने के लिए पहले अपने साथ हुए किस्से को बताती हूं | दो दिन पहले एक टैक्सी ( २०- २२ साल पुरानी फियट उन्हें पता होता है कि उनकी गाड़ी का तो कुछ ख़राब होगा नहीं बाकि साथ चलने वालो को अपनी गाड़ी की फिक्र है तो वो अपनी गाड़ी बजाये वो तो जैसे चाहेगा वैसे अपनी गाड़ी कही भी घुसायेगा )  वाले ने मेरी गाड़ी में बगल से टक्कर मारते हुए मेरी गाड़ी का बम्पर तोड़ते हुए आगे निकल गया चुकि सड़क पर भयंकर ट्रैफिक था और गाड़िया बस रेंगे भर रही थी इसलिए वो भाग नहीं सका , मैंने कुछ आगे जा कर ही उसे पकड़ लिया | उस समय यदि वो अपनी गलती मान लेता तो शायद मै उसे जाने देती किन्तु वो गलती मानने के बजाये कहने लग की आप की भी गलती है मैंने उसे जब उसकी गलती बताई तो कहने लग चलिये थाने चलिये | थाने चलने की बात वो ऐसे कर रहा था जैसे की गलती मेरी थी और वो मुझे धमकी दे रहा था | उसे अच्छे से अंदाजा था की एक तो मै महिला हूं उस पर से मेरे साथ गाड़ी में सो रही बच्ची भी थी , ये मेरा एरिया तो होगा नहीं और मै कहा उसे ले कर थाने जाउंगी | पर उसका अंदाजा गलत था वो मेरा ही घर का एरिया था और चार इमारतों के बाद मेरा घर था |  उसके इस अंदाज पर मेरा गुस्सा और बढ़ा गया मैंने तुरंत पतिदेव को घर से बुला लिया वो दो मिनट में वहा हाजिर हो गये और हमने पुलिस स्टेशन जा कर उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई ( वैसे उसका ये अंदाजा सही था कि मुझे सच में ही अपने ही क्षेत्र के पुलिस स्टेशन का पता नहीं पता था पति तो उसके साथ चले गये पर मुझे दो लोगों से पुलिस स्टेशन का पता पूछना पड़ा जो बस मेरे घर से कुछ ही दूरी पर था ) | जब मैंने उसकी टैक्सी को रोका तो अच्छा खासा मजमा भी जुट गया था और कई आवाजे यही आ रही थी कि " मारो साले को ये सब ऐसे ही होते है कही भी टैक्सी घुसा देते है , तो एक बूढी सी महिला ने मुझसे कहा की अरे अरे इसे मारो मत बेचारा गरीब है जाने दो मैंने उन्हें कहा की अभी तक तो मैंने इसे कोई गाली भी नहीं दी है मै मार कहा रही हूं ये गरीब है तो ठीक है पर जो मेरी कार को बनवाने में हजारो का खर्च आयेगा उसे कौन देगा ( बिमा तो गाड़ी का होता है और उसे क्लेम करने के लिए और टूटे सामानों का कुछ प्रतिशत हमें ही देना होता है साथ ही क्लेम करते ही अगले साल बिमा पर मिलने वाली छुट भी हाथ से चली जाती है तो बिमा के बाद भी अपना खर्च हजारो में पहुँच ही जाता है )
                   ये मेरा किस्सा है अब जरा कल रेखा जी की लिखी इस पोस्ट को पढ़िये जिसमे वो बता रही है की किस तरह जब डाकिये ने उन्हें टेलीग्राम नहीं दिया पैसा ना देने पर और उन्होंने उसकी शिकायत कर दी जब विभागीय कार्यवाही की बारी आई तो उन्होंने उस पर दया करके उसे पहचानने से इनकार कर दिया ताकि उसकी नौकरी बच जाये किन्तु जब उन्हें दूसरे मोहल्ले में वही डाकिया मिला तो वो सुधरने के बजाये उनसे बदल लेने लग उन्हें कभी उनके पत्र नहीं दिया यहाँ तक की उनके पिता की मृत्यु पर भाई द्वारा भेजा टेलीग्राम तक नहीं दिया जिसकी वजह से वो अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई |

                                                       हमारी भारतीय संस्कृति में गरीबो के प्रति दया दिखाने और लोगों को माफ़ कर देने को बहुत अच्छा माना जाता है किन्तु अक्सर देखा गया है की गलती के लिए दया दिखाने और माफ़ी देने से ज्यादातर लोग सुधरते नहीं है बल्कि वो उसे बहुत हल्के में लेते है और बार बार उसी गलती को दोहराते रहते है कई बार तो वो उसके लिए बदला भी लेते है जैसा की रेखा जी के केस में हुआ  | जब कभी कोई गरीब हमारा कोई नुकशान कर देता है तो लोग बार बार ये कहते है की अरे बेचारा गरीब है जाने दो वो क्या कर सकता है वो तो तुम्हारे नुकशान की भरपाई भी नहीं कर सकता है तो क्या फायदा जाने दो और हम सभी दया दिखा कर उन्हें छोड़ देते है, नतीजा ये होता है की वो उसे अपने लिए इसे अपने सुधरने के लिए अच्छा मौका मानने की जगह , अच्छी किस्मत की बच गया मान कर सुधरने के बजाये उस  पर ध्यान नहीं देते है और वैसे ही बने रहते है | किसी को भी सजा देने का अर्थ केवल पीडिता को न्याय देना ही नहीं होता है बल्कि गलती करने वाले को सबक भी सीखना होता है ताकि आगे से वो उस गलती को ना दोहराये और सजा भी इस तरह की कि उसे एक सबक मिले, पर वास्तव में होता क्या है शायद ही कोई भी छोटी मोटी टक्कर के लिए टैक्सी  वालो को लेकर थाने जाता हो ज्यादातर तो उसे वही दो चार हाथ मार कर जाने देते है क्योकि उन्हें भी पता है की टैक्सी वाले से उसे शायद ही कुछ मिले उलटे पुलिस के चक्कर में अपना खुद का दिमाग और समय ख़राब होगा |  इस केस में भी उसने मेरे पति को कहा की साहब मारना है तो मार लो अब थाने क्या चलते हो,  तो पति ने कहा  तुम्हे ही शौक था थाने जाने का ना पीछे जो आ रही है वो तुमको किसी भी हाल में छोड़ने वाली नहीं है | हमारे साथ ये तीसरा केस था इसके पहले भी दो बार पति ने वही बेचारा गरीब है क्या देगा जाने दो कह कर छोड़ दिया था | जिसमे एक बार तो एक बाईक वाले ने पीछे से आ कर सिग्नल पर खड़ी हमारी गाड़ी को जोरदार टक्कर दे मारी थी आफिस की जल्दी में पतिदेव ने उस समय बस उसका मोबाईल लिया और उसे बाद में काल करने को कह  चले आये थे मैंने जब मोबाइल देखा तो सर पिट लिया उसकी कीमत तो कोई हमें सौ रु भी ना देता वो क्या कॉल करेगा  खर्चा हमारे सर पर था | किन्तु उस मोबाइल को भी वो अपनी गरीबी का रोना रो कर बाद में मेरे पतिदेव से ले कर चला गया कहा बाइक उसकी नहीं मालिक की है और वो अभी अभी मुंबई आया है | उस समय भी मैंने पति से कहा था की तुम्हे कम से कम उसका मोबाइल नहीं लौटना था उसे एक सबक तो मिलता इस तरह तो वो कभी भी नहीं सुधरेगा  | यही कारण था की इस बार मैंने तय कर लिया था की इस तरह की कोई भी वारदात होती है तो मै उसे पुलिस तक जरुर ले कर जाउंगी और उस पर बाद में कोई कार्यवाही हो या ना हो ,कम से कम उन सब में ये डर तो बैठे की हो सकता है की सामने वाला मुझे बस मार कर ना छोड़े और सच में मेरे खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दे और मुझे पुलिस के चक्कर में पड़ना पड़े इसलिए आगे से सावधानी से गाड़ी चलाऊ | ये हमारी अ- व्यवस्था का ही नतीजा है की यहाँ पीड़ित ही पुलिस से ज्यादा डरता है अपराध करने वाले की जगह , अपराधी ताव में कहता है की चलो चलो ले चलो थाने जैसे वो हमें डरा रहा हो कि तुम में ही हिम्मत नहीं है पुलिस तक जाने की,  वो अपराधी पीड़ित को ही पुलिस का डर दिखाता है जैसा मेरे साथ हुआ बार बार टैक्सीवाला ही मुझे घमकी देने के अंदाज में पुलिस स्टेशन चलने को कहा रहा था वो भी तब जबकि गलती उसकी थी |
                                                         
              ज्यादातर  हमें कहा जाता है की छोटी छोटी बातो को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए या उसे बड़ा नहीं बनना चाहिए उसे भूल जाने में ही ठीक है , किन्तु ये रवैया सही नहीं है , जब हम दूसरो की छोटी छोटी गलतियों को भूलते है तो अक्सर हम बड़ी गलतियों को करने की या उसी गलती को बार बार करने की सामने वाले को प्रेरणा देते है | फिर ये बात तो मेरे समझ के बिल्कुल बाहर है की क्या किसी को उसके गरीब होने के कारण उसके किये गए अपराध के लिए कोई भी छुट दे देनी चाहिए | क्या अमीर या गरीब के किये गए अपराधो में फर्क हो जाता है किसी अमीर को माफ़ी देने की बात उसे छोड़ देने की बात तो कभी नहीं की जाती है ऐसा क्यों है | क्या गरीब होना आप के अपराध के प्रभावों को कम कर देता है बिल्कुल भी नहीं अपराध कोई भी करे उससे प्रभावित होने वाले पर इस बात से कोई भी फर्क नहीं पड़ता है तो फिर सजा में उसे छुट देने या उस पर दया दिखाने का भाव क्यों जगाया जाता है |  कई बार ये भी देखा है की जब कोई चोर या हत्यारा अपनी गरीबी का  दुख भरी कहानी सुना देता है अपनी कोई मजबूरी बता देता है तो लोगों के मन में तुरंत ही उसके प्रति दया भाव जाग जाती है और कहने लगते है की बेचारे ने मजबूरी में ये किया सजा देते समय उसकी मजबूरी को भी ध्यान में रख कर उसे छुट दी जानी चाहिए ( कानून की नजर में भले सब एक हो मै यहाँ आम लोगों के भावना की बात कर रही हूं ) क्या यही भाव हम किसी अमीर के लिए ला सकते है | याद कीजिये सत्यम के मालिक राजू ( यदि मेरी यादास्त सही है तो यही नाम था फ़िलहाल यही उदाहरन याद आ रहा है ) वो भी बोले की मैंने जो किया वो कंपनी और उसे से जुड़े हर व्यक्ति के भले के लिए किया और मेरे किये से शायद ही किसी को कोई नुकशान हुआ हो हा फायदा जरुर मेरे कर्मचारियों का हुआ है तो क्या उसके द्वारा किये गये अपराध पर भी हम वही दया के भाव मन में ला पाएंगे,  नहीं , शायद ही किसी के मन में दया आये हा गुस्सा जरुर बढ़ जाता है और हम और कड़ी सजा की बात करते है | हद तो तब हो जाती है की जब हम अमीर के जायज बातो पर भी अपराधियों सा व्यवहार करने लगाते है है और गरीब के अपराध को अपराध तक मानने से इंकार कर देते है |  मुकेश अम्बानी अपने पैसे से अपना शानदार अपनी हैसियत के हिसाबा से रहने लायक घर बनवाते है तो हजारो लोगो को बुरा लगता है , किन्तु उससे भी ज्यादा कीमती और हजारो गुना बड़ी सरकारी और निजी जमीनों पर लोग अवैध झोपड़े कब्ज़ा कर बना कर रहते है उसके प्रति हम सब दया का भाव अपनाने लगाते है  ऐसा क्यों है की किसी अमीर के किये छोटी सी छोटी गलती पर भी हम कड़ा रुख अपनाने की बात करते है पर गरीब की बात आते ही हम में दया आ जाती है | ना भूलिए की अमीरों को अपराध करने की आदत नहीं होती है वो भी बस उसी अपने फायदे के लालचा में अपराध करते है जिस लालचा में कोई अन्य गरीब करता है जब अपराध करने का कारण एक है तो समाज का रवैया अपराधियों के प्रति अलग अलग क्यों होता है | क्या ऐसा कर के हम कही ना कही अपराध को ही बढ़ावा नहीं दे रहे है क्या हमें छोटे अपराधो और बड़े अपराधो को दो दृष्टि से देखना चाहिए ( लो जी इतनी बार "क्या क्या " लिखने के बाद सतीश पंचम जी की क्यावाद पोस्ट की याद आ गई ) |
                                                                 मै ऐसा नहीं मानती हूँ की हमें अपराध के पीछे जो मजबूरी है उस पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए किन्तु एक आम सी गलतियों और अपराधो पर जिसके पीछे कोई मजबूरी नहीं बल्कि लापरवाही या लालच हो उसे तो कतई माफ़ नहीं किया जाना चाहिए चाहे वो कोई गरीबा करे या अमीर | गरीबी कभी भी किसी अपराधी या गलती करने वाले को मिलने वाली सजा में छुट का कारण नहीं हो सकती है | जब तक हम अपराधी के गरीब होने के कारण उसकी गलती को नजर अंदाज करने की आदत और गलत करने वालो को सजा देना की शुरुआत नहीं करेंगे ये समाज और व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी |
                                                कई बार सुना है की क्षमा और माफ़ी देने से इन्सान का कद बढ़ जाता है पर मै कभी भी इस को सही नहीं मानती हूँ नीजि जीवन में भी मै ये मानती हूँ की पहली गलती को माफ़ कर हम हमेसा दूसरी गलती हो बढ़ावा देते है मेरी छोटी बेटी ही क्यों ना हो किन्तु कोई ना कोई साकेंतिक ही सही सजा उसकी गलती पर जरुर देती हूँ जो उसे सबक जैसा लगे | अपनी गलती मान ले तो छोटी सजा या पहले ही मुझे आ कर बता दे तो सख्त लहजे में आगे ऐसा ना करने की चेतावनी ही उसके लिए काफी है | वो अभी भले ही इस बात को ना समझे पर बड़ी होने के साथ ही वो उसे समझाने लगेगी | वैसे मै उसे सजा क्या देती हूँ :) आज पूरे दिन तुम्हारा चैनल नहीं लगेगा बड़ी गलती पर दो चार दिन तक तुम अपना चैनल नहीं देख सकोगी क्या करे उसके लिए तो यही सजा है सो व्यक्ति को सजा वही दी जानी चाहिए जिसे वो सजा माने |


चलते चलते
               कुछ चीजो को लेकर समाज और लोग हमें पहले से इतना डरा देता है की हम डर की बात ना होने के बाद भी डरने लगते है | कुछ साल पहले मेरा मोबाईल घूम गया था , नये सिम कार्ड के लिए हमें पुलिस स्टेशन में जा कर कुछ एन ओ सी जैसा लेना पड़ता है पतिदेव को पुलिस स्टेशन भेजते मुझे डर लगा रहा था क्या करे पुलिस स्टेशन की छवि ही ऐसी बना दी गई थी | किन्तु इस बार ना जाने क्यों एक बार भी मुझे इस बात का डर नहीं लगा की मै महिला हो कर पुलिस स्टेशन जा रही हूँ वहा का माहौल भी फ़िल्मी पुलिस स्टेशनों से अलग एक आफिस की तरह का था जहा एक कमरे में चार आलग अलग काउंटर जैसा था बस सब खाकी यूनिफार्म में थे पहले पुलिस ने मेरी बात ध्यान से सुना फिर कहा बस १० मिनट लगेंगे आप के कागजो से नंबर नोट करना है फिर आ पा जा सकती है दूसरे ने मेरी रिपोर्ट लिखी यहाँ तक की उसे निर्देश दिया गया की हमारे साथ छोटी बच्ची है जल्दी किया जाये और जब मै हड़बड़ी में अपनी कर का नंबर ठीक से बता नहीं पाई ( डर नहीं लगा थोड़ी हडबडाहट थी क्योकि घटना का ठीक से ब्यौरा देना था जो उसकी मराठी और मेरी हिंदी से गड़बड़ हो जा रही थी ) तो उसने आर सी बुक से देख खुद ही नोट कर लिया , सब ने ठीक से अच्छे से बात सुनी और अच्छे से बात की भी |  नहीं नहीं कोई जल्द बाजी ना कीजिये  आप लोग पुलिस स्टेशन के बारे में अपने कोई राय बनाने में क्योकि अभी घटना के बस दो दिन ही हुए है अभी आगे क्या होगा मुझे भी नहीं पता है मै तो वापस नहीं जाने वाली हूँ पर उधर से क्या होगा पता नहीं क्या पता फिर से एक पोस्ट लिखू की ये मैंने क्यों गलती कर दी पुलिस स्टेशन जा कर :( और हा मेरे साथ अच्छा व्यवहार कर रहे पुलिस वालो का रुख जरा टैक्सी वाले के प्रति देखिये "क्यों तेरा बैच  कहा है ' " साहब जेब में है " थोडा तेज आवाज में  " तुझे बैच जेब में रखने के लिए मिलता है क्या,  बाहर निकाल टांगने नहीं आता है क्या " मेरी दया कुछ जागने लगी थी | रिपोर्ट लिखवाने से पहले पति से कहा की जरा उससे पूछो नुकशान की भरपाई कर दे तो क्या रिपोर्ट लिखवाऊ जाने दो और पतिदेव ने क्या कहा वही  " अरे वो इतना गरीब है वो क्या देगा तुम देख लो क्या करना है " |  ऊफ ऊफ ऊफ हम सब ऐसे ही है पर हमें बदलना होगा रिपोर्ट तो मैंने लिखवा ही दी दिल पर बस छोटा सा कंकण रखना पड़ा |

68 comments:

  1. इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।

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  2. असल में समस्या यह है कि हमारे यहाँ सब एक्सट्रीम में है. और अति हर चीज़ की बुरी होती है.

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    1. सही कहा हम सामान्य व्यवहार अक्सर करते ही नहीं है |

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  3. दया, कृपा और मेहरबानियों ने भारतीय समाज को कबाड़खाने में तब्दील कर दिया है।

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    1. समाज, व्यवस्था दोनों का ही |

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  4. anshumalaa
    garib aur ameer kaa farak ham khud paedaa kartae haen
    jaese hi koi celebrity galti kartaa haen ham haath dho kar uskae pechhae pad jaatae haen wahii usii galti ko ham kartae haen to koi baat nahin
    usii tarah ham sae garib agar yahi kartaa haen to wo ham sae maafi ki aashaa rakhtaa haen


    naari blog par kafi pehlae post dii thee http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2011/05/blog-post_11.html


    aur ek baar baal majdoor par bhi aesi hi baat kahii thee


    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2011/11/blog-post_07.html

    lekin log hamesha khilaaf ho jaatae haen

    pataa nahin kab ham nayaay aur samvidhan ki bhasha bolaegae
    ameer garib puling stri ling

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    1. समाना व्यवहार कई मसलो का हल है बस सब समझ ले |

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  5. हम्म...बात तो आपने सही कही...गरीब को क्या सजा नहीं मिलनी चाहिए??...पर होता यही है...पुरखों ने ये अमीरी -गरीबी की विभाजन रेखा खींची...और खामियाजा हम भुगत रहे हैं.

    कभी कामवालियां चेन और मंगलसूत्र तक गायब कर देती हैं..पर हम यही सोचते रह जाते हैं..दो दिन भी लॉक अप में बंद हो गयी तो इसके छोटे बच्चे भूखे रह जायेंगे..पर वो चोरी करते वक़्त ये सब नहीं सोचती...यही सोचती है कि गरीब समझकर सब छोड़ देंगे...और छोड़ देते भी हैं .

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    1. ये बिल्कुल सही कहा आप ने घर में काम वाली तो हमेसा इस बात का फायदा उठाती है , यहाँ वहा रखे फुटकर पैसे और कास्मेटिक तो आम बात सी होती है , वहा तो उनकी गरीबी के साथ उनके छोटे छोटे बच्चे भी होते है और मुंबई में कामवाली को तो उस तरह डांट डपट और पूछ ताछ भी नहीं कर पाते जैसे कीई छोटे शहर में आराम से कर सकते है |

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    2. वैसे आप दोनों इस बात पर भी जरूर विचार करती ही होंगी कि कामवालियों को यह करने की जरूरत क्‍यों पड़ती है या अगर यह उनकी आदत में शुमार हो गया है या हो जाता है तो क्‍यों।

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    3. मैने ये पहले ही लिख दिया है कि..अमीरी गरीबी के बीच जो ये विभाजन रेखा है...यही इसकी वजह है.

      फिर भी करीब बीस वर्षों से महानगरों में ही हूँ...पहले दिल्ली और फिर मुंबई..... इन कामवालियों की ईमानदारी की तारीफ़ करते नहीं थकती थी..(एक आलेख भी लिखा है...इनकी कर्मठता और ईमानदारी पर ) जब भी पटना जाती हूँ ,माँ से डांट सुनती हूँ कि "ये दिल्ली मुंबई नहीं है...जो सोने की अंगूठी या चूड़ियाँ यूँ उतार कर यहाँ-वहाँ रख देती हो"
      अब तक कभी, एक पैसे की चीज़ गायब नहीं हुई थी.....पर हाल में ही 'बिहार' की ही एक कामवाली ने मेरा मंगलसूत्र और सोने की चेन चुरा ली.
      पूछताछ करने पर वो चिल्लाने लगी..कसमे खाने लगी.उसके पति ने छोड़ दिया है..दो छोटे बच्चे है..इसे अगर पुलिस के हवाले कर देती तो वे बच्चे कहाँ जाते?.. सो छोड़ दिया.

      इसलिए ये एक आदत होती है...कोई मजबूरी नहीं..और भी तो कामवालियां हैं...वे तो जी-तोड़ मेहनत करती हैं...और मेहनत के पैसे कमाती हैं. लोग अपने घर की चाबियाँ तक उन्हें देकर जाते हैं.

      वैसे मैं कमेन्ट में लिंक देती नहीं...पर इनपर लिखे आलेख का लिंक यहाँ दे रही हूँ.
      खुदा महफूज़ रखे इन्हें हर बला से,हर बला से

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    4. @ राजेश जी
      कई बार मजबूरियों को तो हम भी समझते है तभी तो कहा की जान कर भी छोड़ देना पड़ता है , पर कई बार बस लालच होता है वही जो सभी के मन में होता है |

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    5. रश्मि जी
      दिल्ली का अपना अनुभव तो अच्छा नहीं रहा है मेरी बहन ने इसी कारण अपनी कामवाली को निकाल दिया था और यहाँ मुंबई में भी मेरी मित्र कई बार इसकी शिकायत कर चुकि है इसलिए कह नहीं सकते है | किन्तु आप की बात सही है की यहाँ पर हजारो लोग बड़े आराम से घर की चाभिया दे कर चले जाते है और कामवाली ईमानदारी से काम करती है , खुद मै भी जब घर पर पति ना हो तो १० - १५ मिनट के लिए अपनी बेटी को उसके साथ छोड़ बाहर काम के लिए चली जाती हूं जब वो काम करती है और मुझे जरुरी होता है बाहर जाना | ये व्यक्ति के अपने चरित्र पर निर्भर होता है यहाँ यही बात तो साबित होती है की गरीबी और मजबूरी कभी भी आप को कुछ गलत करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है ये आप का अपना चरित्र होता है वरना हर गरीब मजबूर व्यक्ति चोर या अपराधी ही होता | इसलिए अपराध करने पर बस गरीबी और मजबूरी के नाम पर अपराधी को छोड़ नहीं देना चाहिए हा अपराध के प्रकृति के हिसाब से कुछ तो सजा देनी ही चाहिए |

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    6. मेरा उद्देश्‍य यही था कि किसी वर्ग विशेष की बात इस तरह न की जाए कि उसका सामान्‍यीकरण हो जाए। अपराध अपराध है, निश्चित ही उसे गरीबी और अमीरी के खांचे में नहीं बांटा जा सकता।

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  6. अज की शहरी जिंदगी में आम बातें हैं ये...

    रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों.

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  7. agar hum aaj dyaan de to aaj ke samay mai aparadh sirf garib hi karta hain... koi paise se garib hain to wo paise ke liye apradh karta hain , koi pyaar se garib hain to wo pyaar ke liye apradh karta hain, kisis ke paas koi chiz nahi hoti to dusre se usse paane ke liye apradh karta hain, or jo subhi chizo ke hone ke baad bhi apradh karta hain wo Dimaag se garib hota hain, yaani ki apradh wo karta hain jo garib hota hain...
    to amir to koi apradh karte hi nahi na...

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    1. गरीब की अच्छी परिभाषा :)

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    2. सुद जी का कमेंट अच्छा लगा।

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  8. बाप रे! कितना टेढ़ा-मेड़ा है!! संडे को पढ़ेंगे तब तक आप प्लीज इसे दुरूस्त कर दीजिये।:)

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    1. यहाँ टेढ़ा मेढ़ा क्या है समझ नहीं आया तो दुरुस्त कैसे करे , बताइये तब तो ठीक करे , हा बात वर्तनी की कर रहे है तो माफ़ी मांग लेती हूं क्योकि ये तो मै भी नहीं जानती की ये दुरुस्त करना पता नहीं मै कब सीखूंगी |

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    2. वर्तनी नहीं, टेढ़ा-मेढ़ा से आशय पंक्तियों का इधर उधर बिखरने से था। इसे एडिट में जाकर आराम से ठीक किया जा सकता है। जैसे सभी के कमेंट नपे तुले आकार में हैं वैसी ही पोस्ट की पंक्तियाँ हों तो सुंदर लगेंगी।

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  9. पोस्ट की हर बात से सहमत.गरीबों के प्रति लोगों में आमतौर पर एक दया विश्वास और सहानुभूति का भाव तो होता है लेकिन ये लोग भी कई बार इन बातों का नाजायज फायदा उठाते हैं.मैं जब छोटा था और पहली बार अपनी टीचर से सुना कि गाँधीजी गरीबों को द्ररिद्र नारायण कहते थे तो मुझे बडा अजीब लगा(वैसे गाँधीजी की बहुत सी बातें मुझे तो अजीब ही लगती रही हैं) कि यदि कोई गरीब हैं तो इस कारण भगवान का रूप कैसे हो गया और फिर इसमें कौनसी उसकी योग्यता हैं जो इतनी प्रशंसा की जा रही हैं.ऐसे ही फिल्मों में खलनायक हमेशा अमीर ही होते हैं और गरीब को तो हमेशा शरीफ और दूसरों का सताया हुआ दिखाया जाता हैं मानो ये तो कभी कोई गलत काम करते ही नहीं.हीरोइन का अमीर पिता तो अक्सर गरीब हीरो के अपनी गरीबी पर दिए भावुकतापूर्ण भाषण से प्रभावित हो उसका हाथ हीरो के हाथ में दे देता हैं और इस पर दर्शक भी भावुक हो जाते हैं गोया कि ये गरीब होना ही कोई शरीफ या महान होने का लक्षण हो.हालाँकि ये कहना तो गलत होगा कि गरीबों के साथ बुरा नहीं होता और ये भी सच हैं कि अमीरों के तरह गलत काम करके भी व्यस्था में से बच निकलने के रास्ते इनके पास कम होते हैं लेकिन ये भी सच हैं कि मौका मिलने पर गरीब भी उतने ही गलत काम कर सकता हैं और फिर भी लोग जल्दी से उस पर शक नहीं करते और ज्यादातर पता पडने पर माफ भी कर देते हैं.

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    1. यही बात हमने भी महसूस की है , मै गरीब विरोध जैसी नहीं हूं किन्तु ये मानती हूं की अपराधियों को गरीब और अमीर के बीच बाँट कर नहीं देखना चाहिए |

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  10. इसमें विषयांतर हो सकता हैं लेकिन अंशुमाला जी आप इन टैक्सीवालों के हुलिए पर मत जाईए ये लोग इतने भी कोई गरीब नहीं होते और न ही केवल तनख्वाह में खुश रहने वाले होते हैं.मुंबई की तो मैं नहीं कह सकता लेकिन ज्यादातर बडे शहरों में टैक्सी वाले पर्यटकों खासकर गुजराती और महाराष्ट्रियन पार्टियों को घूमाते हैं और उन्हें जिन शोरुम या होटलों में ले जाते हैं वहाँ भी इनका अच्छा खासा कमीशन होता हैं.हाँ थोडा बहुत पुलिस को भी खिलाना पडता होगा.वैसे आपके केस में पुलिस ने आपके एक बार कहने से ही रिपोर्ट लिख ली वर्ना ऐसे केस में ज्यादातर पुलिसवाले भी अचानक से दयालु बन जाते हैं और नुकसान की भरपाई करा और दोषी व्यक्ति से माफी मँगवाकर मामला खत्म करने को कह देते हैं.

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    1. जहा तक मुंबई की बात है तो ज्यादातर टैक्सी वाले गरीब ही होते है टैक्सी भी उनकी नहीं होती है | हा राजेस्थान में ये कमीशन वाला अनुभव हो गया था जब हम उदयपुर में बार बार टैक्सी वाले को बोल रहे थे की वो हमें एक खास रेस्टुरेंट में खाने के लिए ले चले तो वो वहा नहीं ले गया उसकी बुराई करने लगा और एक बहुत ही महंगे रेस्टुरेंट में ले कर गया |

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  11. बड़ी समस्या है हमारी इस मानसिकता की , अगर गलती की है तो अमीर और गरीब फर्क क्यों ..? यह आज तक समझ नहीं आया , पर हाँ ऐसा अक्सर होते देखा है

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  12. सभी घटनायें पढकर उस सहपाठी की बात याद आई जो कहता था कि ट्रक और साइकल की टक्कर में पिटाई ट्रक ड्राइवर की ही होती है, ग़लती किसी की भी हो। मुम्बई, बैंगलोर जैसे अपवादों को छोड़ दें तो टैक्सी, ऑटो चालकों को मैंने अक्सर अभद्र और कई बार अपराध के कगार पर खड़े पाया है। हाँ, राज्यों की सिविल पुलिस का हाल भी अक्सर बल के दुरुपयोग और अक्षमता के ढेर जैसा ही देखा है। न्यायप्रिय मानसिकता के लोग भी हैं लेकिन शायद आसानी से सामने नहीं दिख पाते।

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    1. और यदि कोई गाड़ी वाला किसी पैदल को कुचल दे तो हर हाल में गलती गाड़ी चलने वाले की होती है भले पैदल चलने वाला गाड़ी के आगे कूद जाये | ज्यादातर मामलों में हम सभी पहले से एक पूर्वाग्रह बना कर चलते है |

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    2. पैदल का केस थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि -
      1. अक्सर पैदल वाहन के आगे कूदते नहीं
      2. उनके चलने को फ़ुटपाथ अव्वल तो होते नहीं
      3. फ़ुटपाथ हों तो उनपर पर दुकानदारों, रेहड़ियों और कई बार वाहनों का भी कब्ज़ा होता है
      4. ज़ीब्रा क्रॉसिंग पर अपनी बत्ती पर सड़क पार करते भी टांगें और जान गंवाते हैं बेचारे
      5. पैदल चलना नैसर्गिक अधिकार है जबकि वाहन चलाना सरकार द्वारा शर्तों के अधीन, परमिट द्वारा प्रदान किया गया विशेषाधिकार जिसमें दूसरों की जान-माल की क्षति करने से हरसम्भव बचने की शर्त है। लेकिन वाहन हाथ आते ही हम भारतीय "समरथ को नहीं दोष गुसाईं" का रट्टा मारने लगते हैं।

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    3. वैसे तो हर केस अपने आप में भिन्न होता है मैंने बस पूर्वाग्रहों का उदाहरन दिया है , और पैदल चलने वालो की गलतियो के उदाहरण दुँगी तो मुद्दा भटक जायेगा वैसे सड़क पर पैदल चलने के भी नियम होते है |

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    4. अनुराग, यहाँ मुझे आपसे थोड़ा असहमत होना होगा। मैं नित शाम को सी लिंक को जाती एक बेहद व्यस्त सड़क को दो बार पार करती हूँ। ज़ीब्रा क्रॉसिंग होने पर भी, पैदल के लिए लाइट होने पर भी लगभग आधे से अधिक पैदल लोग दो मिनट प्रतीक्षा करने की बजाए तेज गति से भागते वाहनों के बीच से भी दौड़ते भागते सड़क पार करने से बाज नहीं आते। जवान ही नहीं वृद्ध, बच्चे, गर्भवती स्त्रियाँ, गोद में बच्चे वाले लोग सब यही करते हैं। कई बार मैं अकेली ही पैदल के लिए हरी लाइट की प्रतीक्षा करती होती हूँ। ऐसे में यदि दुर्घटना हो जाए तब भी पिटेगा कार ड्राइवर ही।
      घुघूती बासूती

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  13. .
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    अंशुमाला जी,

    जिंदगी में, और यहाँ तक कि खेल में भी, मैंने हमेशा अपने को अन्डरडॉग के साथ ही खड़ा पाया है इसलिये आपके सवाल पर तो कुछ नहीं कहूँगा... पर यह जरूर कहूँगा यहाँ पर कि कोई भी शख्स चाहे पाँच करोड़ की मैबाक वाला हो या चालीस हजार की खटारा फियेट वाला, जब रोड पर निकलता है तो यह सोच कर नहीं निकलता कि वह आज इतनों की गाड़ी में डेंट मारेगा... खुद उसकी गलती, सामने वाले ड्राइवर की गलती, सड़क की हालत या विशेष परिस्थितियों के कारण टक्कर लगती है... कई बार मुझ से लगी है औरों को, और कई बार मेरी गाड़ी में भी मारी है औरों ने... इस सब को गाड़ी रखने की कीमत में शामिल कर भूल जाइये और माफ कीजिये... हमेशा याद रखिये कि कोई गारंटी नहीं कि आप कभी भी किसी को टक्कर नहीं मारेंगी... :)




    ...

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  14. सहमत हूं की की गलती किसी से भी हो सकती है और कई बार ये परिस्थिति वश हो जाता है, इसी लिए एक जगह मैंने कहा है की लापरवाही और लालचा के कारण किये गये अपराधो को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए | इसलिए मैंने ये भी लिखा है की कई टैक्सी वाली हमेसा लेन तोड़ कर और गलत तरीके से गाड़ी चलते है क्योकि उन्हें उनकी गाड़ी के नुकसान का डर नहीं होता है सड़क पर आज कई नई गाड़िया भी टैक्सी के रूप में चलती है जरा देखीये की वो कितने नियम से गाड़ी चलाते है क्योकि उन्हें डर होता है की मैंने कुछ गलत किया तो उनकी गाड़ी को भी नुकशान हो सकता है इसी कारण मैंने पुरानी फियट वाली बात लिखी है | वैसे ज्यादातर तो पकडे जाने के लिए रुकते थोड़े ही है तुरंत ही भाग जाते है ये पकड़ में आ गया कम से कम इस वाले को सबक तो आगे के लिए मिल ही गया होगा |

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  15. अफसोस,कि ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कोई गंभीर मामला नहीं बन पाता। टैक्सी से ज्यादा,मोटरसाइकिल वालों से परेशान रहते हैं लोग। ज्यादातर मामलों में,पुलिस भी कुछ लेकर छोड़ ही देती है। कभी कार्रवाई करती भी है,तो कमज़ोरों पर ही। ज्यादातर दुर्घटनाएं रईसजादों की गाड़ियों से होती हैं,मगर ऐसे मामलों में पीड़ित पक्ष को न्याय मिलने के उदाहरण बिरले ही होंगे।

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    1. मोटरसाकिल वालो से डर तो लगता ही है अचानक से बगल से निकल कर सामने हाजिर हो जाते है जिससे कई बार हडबडाहट सी हो जाती है | बात रईस और गरीब की नहीं है सब बराबर में ट्रैफिक क्या हर तरह के नियम तोड़ते है |

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  16. हमारी टिप्पणी तो स्पैम में गयी...प्लीज़ चेक कीजिए :(

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    1. इस टिप्पणी का खास धन्यवाद ! ना बताया होता तो मुझे पता ही नहीं चलता वहा कई टिप्पणिया थी, नये डैशबोर्ड में अभी जरा समझ में भी नहीं आ रहा है कल माडरेशन हटाने में काफी देर लग गया था और आज स्पैम |

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  17. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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    1. चर्चा में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद !

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  18. हम तो हमेशा से यही गुहार लगाते रहे हैं कि अपराधी का न्याय अपराध को देखते हुए होना चाहिए न कि उसकी जाति , धर्म, लिंग, वर्ग या वर्ण के आधार पर| ऐसा नहीं कि ये चीजें मायना नहीं रखतीं, रखती हैं लेकिन हमारे सिस्टम में ये ज्यादा बड़ा deciding factor बन जाती हैं|
    अपनी बात को सिर्फ सम्बंधित घटना तक सीमित रखूँ तो कुछ दिन पहले सड़क पर आँखों देखा एक हादसा याद आ रहा है| बाईक और साईकिल टच भर हुए थे और यमुना के उस विरले ट्रैफिक वाले पुल पर देखते ही देखते साईकिल वाले के गुट के सात आठ बंदे बिना किसी फोन काल के या मैसेज के इकट्ठे होकर बाईक वाले पर दबाव बनाने लगे थे| मैं खुद कोई फोन अटेंड करने के चक्कर में नजदीक खडा था और सब देख रहा था, मुझे भी हस्तक्षेप करना पड़ा और जब राह चलते कुछ बाईक सवार भी रूककर मामले में पड़े तब कहीं जाकर वो बाईक वाला जा पाया, हालांकि उसके चोट ज्यादा लगी थी|
    हम लोजिक से न चलकर पूर्वाग्रहों पर ज्यादा विशवास करने वाली सोसाईटी हैं, मान लिया तो मान लिया, ऐसा है तो ऐसा है ही|
    कंकण अगर रिपोर्ट पर(उड़ न जाए इसलिए सरकारी फाइलों\कागजों पर भार रखा जाता है) रखा होता तो नुक्सान में जोड़ना पड़ता, दिल पर ही रखा है इसलिए कोई बात नहीं:)

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    1. असल में समानता का व्यवहार जैसे शब्द अब बस संविधान कानून की किताबो में शब्द भर बन कर रह गये है , समाज तो खैर इस शब्द पर विश्वास करता ही नहीं था और आगे भी नहीं करने वाला है |
      लोग दिल पर पत्थर रखते है, मुझे बस थोड़ी ही दया आ रही थी जो कंकड़ रखने भर से काम हो गया |

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    2. "विशवास " तौबा तौबा बुरे के लिस्ट में आने के लिए इतनी प्लाटिंग काम ना आयेगी, एक बार जब अच्छा लेखक होने का दाग लग जाता है तो वो जिंदगी भर नहीं छुटता है अब गाते रहिये लागा चुनरी में दाग और देते रहिये सफाई :)

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    3. अब दाग लग ही गया है तो लिंक संभालिए, 2020 के बाद तो काम आएगा ही:)

      http://dict.hinkhoj.com/words/meaning-of-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A3-in-english.html

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    4. हा हा हा, हम तो हिन्दीभाषी है और हमने तो हिंदी वाला कंकड़ (पत्थर के छोटे टुकडे) को ही दिल पर रख था बाकि किस भाषा में क्या कहते है हमको नहीं पता और कंगन चूड़ी तो हम कलाई में नहीं रखते तो उसे दिल पर क्या रखते |

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    5. सच्चाई को स्वीकारिये और सफाई देना छोडिये अब कहिये " दाग अच्छे है " |

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    6. इसी विषय पर एक और नजरिया, सहमत असहमत होना अलग बात है| हर चीज पर समय, स्थान का प्रभाव पड़ता ही है, इसे ध्यान में रखते हुए पढ़ें -
      http://zaruratakaltara.blogspot.in/2012/05/0623931-06072000.html

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    7. महाभारत वाली कथा पता थी दूसरी कथा पहली बार सुनी | शायद कुछ ऐसी ही बात मैंने ऊपर रश्मि जी और राजेश जी के साथ बातचीत में पहले ही कही है
      "ये व्यक्ति के अपने चरित्र पर निर्भर होता है यहाँ यही बात तो साबित होती है की गरीबी और मजबूरी कभी भी आप को कुछ गलत करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है ये आप का अपना चरित्र होता है वरना हर गरीब मजबूर व्यक्ति चोर या अपराधी ही होता | इसलिए अपराध करने पर बस गरीबी और मजबूरी के नाम पर अपराधी को छोड़ नहीं देना चाहिए हा अपराध के प्रकृति के हिसाब से कुछ तो सजा देनी ही चाहिए "

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  19. रोड पर चलने वाला जानबूझ कर टक्कर नहीं मारना चाहता लेकिन लापरवाही से गाड़ी चलाने की आदत के कारण सही आदमी की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है। अपराधी को सजा जरूर मिलनी चाहिए। कितनी?.. यह उसकी आदत पर निर्भर करता है। यदि बार-बार एक ही ड्राइवर के खिलाफ शिकायत आये तो पुलिस वाले आसानी से यह समझ सकते हैं कि फलाँ ड्राइवर वाकई बदमाश है। इससे अनजाने में गलती नहीं होती। या तो वह सुधर जायेगा या फिर उसका लाइसेंस ही रद्द घोषित कर दिया जायेगा।

    इसी तरह सजा देने वाले को विक्रमादित्य की कुर्सी पर बैठना होगा। उसका उद्देश्य अपराधी को सुधारने का हो न कि अपने क्रोध और अमीरी के अहंकार की तु्ष्टि का। यदि आपका इरादा उसे सुधारने का है तो आपने शिकायत करके अच्छा काम किया जो कि आम जन नहीं कर पाते।

    मेरी दुआ है कि पुलिस वाले वैसे ही हों जैसे कि आपको मोबाइल गुम होने पर मिले थे। ड्राइवर को उसकी गलती का एहसास हो जाय और वह दुबार फिर ऐसी गलती ना करे।

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    1. वही तो परेशानी है की जब कोई शिकायत करेगा ही नहीं सब गरीब कह कर छोड़ देंगे तो पता कैसे चलेगा की किसने कितनी बार गलती की है और सजा कैसे मिलेगी |

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  20. अंशुमाला, आपसे बिल्कुल सहमत। सजा न देने की बीमारी ने पूरे देश को बीमार कर दिया है। मुझे लगता है कि जब अपराध बड़ा न हो तो केवल जुर्माना होना चाहिए और प्रक्रिया छोटी व सरल। तभी हम गलत करने से डरेंगे व गलती करने वाले को सजा दिलवाएँगे भी।
    मेरे ब्लॉग पर आपके लिए एक टिप्पणी/संदेश छोड़ा है।
    घुघूती बासूती

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    1. बिल्कुल सहमत आधे छोटे अपराध तो बस प्रक्रिया सरल होने से ही कम हो सकते है पर यहाँ तो पीड़ित ही प्रक्रिया के बड़े और परेशान करने वाला होने के कारण अपराध की शिकायत ही नहीं करता है |

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  21. प्रणाम ! आज बहुत दिनों बाद आपका लेख देखा| लेख काफी बड़ा + अच्छा लगा और इसलिए किश्तों में पढ़ा :) :)

    पढने में इंटरेस्ट इस लाइन के वजह से बढ़ गया .....
    @हमारी भारतीय संस्कृति में गरीबो के प्रति दया दिखाने और लोगों को माफ़ कर देने को बहुत अच्छा माना जाता है किन्तु अक्सर देखा गया है की ...

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    1. पाठक जी
      आप पहली बार आ रहे है इसलिए बता दू की यहाँ तो हमेसा ही बड़े ही लेख मिलते है अच्छा होना बोनस हो गया , अच्छा कहने के लिए धन्यवाद !

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  22. कृपया ये पढ़ें .....

    (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २८):

    अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् ।
    न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ।।२७।।
    {अबुद्धिम् आश्रितानाम् अपराधिनाम् तु क्षन्तव्यम्, पुुरुषेण सर्वत्र पाण्डित्यम् सुलभम् न हि वै ।}
    अनजाने में अर्थात् समुचित् सोच-विचार किए बिना जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है । भूल हो जाना असामान्य नहीं, अतः भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए ।

    अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् ।
    पापान् स्वल्पेऽपि तान् हन्यादपराधे तथानृजून् ।।२८।
    {अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ते तत् अबुद्धिजम् ब्रूयुः, सु-अल्पे अपि अपराधे तान् तथा अनृजून् पापान् हन्यात् ।}
    अब यदि बुद्धि प्रयोग से यानी सोच-समझकर अपराध करने के बाद वे तुमसे कहें कि अनजाने में ऐसा हो गया है, तो ऐसे मृथ्याचारियों को थोड़े-से अपराध के लिए भी दण्डित किया जाना चाहिए । कुछ मनुष्य जानबूझकर आपराधिक कृत्यों में लगे रहते हैं । अपने उद्येश्य में असफल होने और पकड़ में आ जाने पर वे स्वयं को निरीह और निर्दोष बताने लगते हैं । ऐसे लोगों के प्रति उदारता नहीं दिखानी चाहिए ।

    सर्वस्यैकोऽपराधस्ते क्षन्तव्यः प्राणिनो भवेत् ।
    द्वितीये सति वध्यस्तु स्वल्पेऽप्यपकृते भवेत् ।।२९।।
    {सर्वस्य प्राणिनः एकः अपराधः ते क्षन्तव्यः भवेत्, स्वल्पे अपि अपकृते द्वितीये सति वध्यः तु भवेत् ।}
    सभी प्राणियों (प्रसंगानुसार मनुष्य) का एक अपराध तुम्हें क्षमा कर देना चाहिए, किंतु दूसरी बार अनुचित् कर्म किये जाने पर अवश्य उनको दण्डित करना चाहिए । पहिली बार अपराध करने पर क्षमा कर देना समझ में आता है, लेकिन जब व्यक्ति दूसरे की क्षमाशीलता का अनुचित लाभ उठाते हुए दुबारा-तिबारा गलत काम करे तो उसे छोड़ा नहीं जाना चाहिए ।

    अजानता भवेत् कश्चिदपराधः कृतो यदि ।
    क्षन्तव्यमेव तस्याहुः सुपरीक्ष्य परीक्षया ।।३०।।
    {यदि कश्चित् अपराधः अजानता कृतः भवेत्, परीक्षया सुपरीक्ष्य एव तस्य क्षन्तव्यम् आहुः ।}
    यदि वास्तव में अज्ञानवश कोई अपराध हो गया हो और समुचित् जांच-पड़ताल के बाद वह अनजाने में की गयी भूल सिद्ध हो जाए, तो उस कृत्य को क्षमायोग्य कहा गया है । भूल दुबारा-तिबारा भी हो सकती है और तदनुसार आरोपी अपने को निर्दोष बताये तो उसका ऐसा करना स्वाभाविक ही होगा । ऐसे अवसरों पर अपराध की बारीकी से छानबीन की जानी चाहिए और अगर यह सिद्ध हो जाये कि भूल से अनुचित कार्य हो गया, तो व्यक्ति को माफ कर देना चाहिए । वस्तुतः सभी सभ्य समाजों की न्यायिक व्यवस्था इसी नीति पर टिकी है ।

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    1. हमने तो बिना महाभारत पढ़े ही वही बात कहा दी जो इन महान श्लोको में लिखा गया है | ये अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद !

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  23. हम्म ....ये ऊपर वाला कमेन्ट ज्यादा बड़ा हो गया ना ?.. क्षमा चाहता हूँ :) :)

    ...कहने का मतलब है संस्कारी(क्षमावान)होना अच्छी बात है लेकिन संस्कारों के साथ युक्ति का प्रयोग भी होना ही चाहिए

    और हाँ .. अगर समय मिले तो एक पोस्ट "सत्यमेव जयते" पर भी लिखियेगा ....

    [कोई कमेन्ट गैर-जरूरी लगे तो हटा दीजियेगा ]

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    1. "सत्यमेव जयते" पर लिखु या उसके उठाये मुद्दों पर | उस में उठाये अब तक लगभग सभी मुद्दों पर पहले ही लिख चुके है ( विकलांग वाले मुद्दे को छोड़ कर ) बाकि आमिर का शो अच्छा है और आमिर आपने व्यावसायिक लाभ के साथ ही अच्छा काम कर रहे है लोगो को उनकी जगह उनके उठाये मुद्दों पर बात करनी चाहिए और खुद को बदलना भी चाहिए |

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    2. पाठक जी
      मुफ्त में राय देने की आदत के कारण आप को भी राय दूंगी पहले भी एक लोग को दिया था उन्होंने सुना नहीं और बुरे परिणाम को भुगता, आप को भी दे रही हूँ , आपने आई डी से ये तस्वीर हटा दे जो भी इस तस्वीर को लगाता है वो ज्यादा दिन इस ब्लॉग जगत में टिक नहीं पाता है, पता नहीं उसमे भागने की प्रवित्ति क्यों आ जाती है , वो तो वापस नहीं आता है किन्तु ये तस्वीर जरुर किसी और नाम से वापस आ जाती है | आप से पहले गौरव अग्रवाल जी और फिर ग्लोबल जी इस तस्वीर का प्रयोग कर चुके है और ब्लॉग जगत से गायब हो गए ग्लोबल जी को भी मैंने ये तस्वीर हटाने की राय दी थी उन्होंने मानी नहीं देखिये आज ब्लॉग जगत में वो नहीं है लेकिन देखिये ये तस्वीर फिर से हाजिर है , आप को भी वही राय दे रही हूँ , बच के रहिएगा :)

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    3. @"सत्यमेव जयते" पर लिखु या उसके उठाये मुद्दों पर .....

      जो भी आपको सही लगे , अगर आपको लगता है कुछ लिखने से रह गया है तो वो भी चलेगा | आप जो भी लिखेंगी औरों से डिफरेन्ट और अच्छा ही लिखेंगी |

      और रही बात इन महाशय गौरव की जहां तक इनके कमेंट्स से पता चलता है ये मैदान छोड़ने वालों में से नहीं लगते, संभव है किसी रीसर्च में व्यस्त हों और नाम बदल कर कहीं किसी साधारण से पाठक की तरह फेवरेट लेखक/लेखिकाओं के लेख पढ़ रहे हों :)

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    4. देखा कितने भी नाम बदल लीजिये आप पर आदत थोड़े ही बदल जाती है , वही जवाब देने की जल्दी में कहा क्या जा रहा है उसे समझने का प्रयास ही ना करना , बस जवाब देना है | आप के लिए - सतही सवाल सुलझते ( समझते ) नहीं है और गहराई में चिन्तन की जिद है | मेरे कहने का अर्थ बस इतना था की बार बार नाम बदलने की क्या आवश्यकता है ये भी एक तरह का पलायनवाद ही है | अब इस टिप्पणी का जवाब देने की जरुरत नहीं है बस पढ़िये और समझिये :)

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    5. आपकी बात समझ ली थी पर उसका उत्तर नहीं दिया ..जो उत्तर दिया वो अन्य मित्रों को ध्यान में रख कर दिया, कहीं कोई आपकी बात को सही ना मान ले सिर्फ इसलिए

      आपकी बातें हम तो समझ लेंगे(चाहें आप ना माने) पर और लोग भी उन्हीं अर्थों में समझ लेंगे, ये हम कैसे माने ? :)

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  24. वाह!!!!

    लेख तो लेख ,अच्छी खासी परिचर्चा पढ़ने मिली आपके ब्लॉग में.....

    बहुत बढ़िया अंशु जी.

    अनु

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  25. आपने सही लिखा है और इस तरह की स्थिति हमारे भारतीय समाज में बहुधा दृष्टिगोचर होती है।

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  26. बढ़िया लम्बी पोस्ट है. पढ़कर अच्छा लगा और यह भी दिलासा मिला की अकेले मेरे साथ ही ऐसा नहीं हुआ.
    मनोविज्ञान का एक जटिल सिद्धांत कहता है की यदि आप किसी का भला करें तो वह आपसे खार खाने लगता है क्योंकि वह आपके सामने कुछ दब सा जाता है. हकीकत में कोई व्यक्ति किसी से कमतर नहीं होना चाहेगा पर किसी के अहसान के नीचे उसे झुकना पड़ता है. यह उसकी प्रकृति के खिलाफ होता है इसलिए वह भला करनेवाले के प्रति मन में खुन्नस भर लेता है.
    बहुत दिनों के बाद आपके ब्लौग पर आना हुआ. अच्छा लगा. जारी रखिये.

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