मुंबई आकर मैंने पहली बार मजबूरी में अपना सरनेम अपने नाम के साथ लगाया , क्योकि यहाँ हर फार्म आदि जगहों पर सरनेम के लिए अलग कॉलम होता जिसको भरना अनिवार्य होता था |मेरे किसी भी डिग्री रिजल्ट आदि पर मेरा सरनेम नहीं हैं | मेरे बहुत सारे मित्र मेरा सरनेम नहीं जानते होंगे | लेकिन मै बहुतों का जानती थी क्योकि वो उसे अपने नाम में लगाते थे |
अपनी जाति उसकी जड़ों के बारे में इतनी अनिभिज्ञ थी की मुझे अभी छः साल पहले इसके बारे में पता चला कि हम वैश्य जाति के निचे के तीन उपजातियों में हैं | क्योकि हमारे घर में हमारी या किसी की भी जाति आदि पर कभी कोई बात बहस चर्चा आदि नहीं होती |हमारे यहाँ हमारे ही सरनेम में शादियां होती हैं क्योकि बड़ी जातिंया हमसे विवाह का रिश्ता रखती नहीं और हमसे नीचे वालों से हम नहीं रखतें | इस बात से अनजान हम अपनी बहनो का विवाह पुरे वैश्य समुदाय में खोजते रहें लेकिन कोई करने ना आया |
जाति से अनभिज्ञ रहने का ये फायदा हुआ कि हममे कभी किसी भी प्रकार की हीन भावना नहीं आई कि हम अपने जाति में सबसे नीचे हैं और ना कभी किसी बड़ी जाति वाले को इसके लिए चव्वनी का भी भाव दिया | हमें कभी लगा ही नहीं की ऊँची जाति का होना कोई इतना ख़ास हैं कि व्यक्ति को अलग नजर से देखा जाये | ना कभी सोचा कि ऊँची या नीची या किसी के भी सरनेम से हिसाब से व्यवहार किया जाए |
बहुतों ने सरनेम ना होने पर हमारा पूरा नाम जानने की खूब चेष्टा की और वो हमारी जाति जानना चाह रहें हैं को भले से समझ हमने सीधा कहा जो जानना चाह रहें हैं साफ पूछे क्योकि पूरा नाम तो वही हैं जो बता रहें हैं | बिंदास उन्हें अपनी जाति बताई बिना किसी हीनता के | शायद उन लोगों ने हमारे लिए कोई ग्रंथि पाली होगी , हो सकता हैं अप्रत्यक्ष रूप से कुछ टिप्पणियां भी पास की होंगी लेकिन हम इन सब से अनजान रहें , क्योकि ये चीज हमारे जीवन के लिए कोई मायने ही नहीं रखती थी |तुम खुद को मुझसे बड़ा समझ मुझे कमतर समझ रहे हो या मुझे बड़ा समझ मेरी सामान्य बातों को जाति सूचक समझ अपने पर कटाक्ष समझ रहें हो तो ये तुम्हारी समस्या हैं मेरी नहीं |
कहने का अर्थ सिर्फ इतना हैं कि बच्चो के मन में अपनी जाति, धर्म, सरनेम, लिंग, आदि के लिए कभी कोई भी किसी भी तरह का हीन या गर्व की भावना नहीं पनपने देना चाहिए | मैं हमेशा मानती हूँ कि यदि हम किसी भी प्रकार से निचले पायदान पर है तो हमें हमेशा आगे बढ़ने के बारे में ऊँचा उठने के बारे में सोचना चाहिए | ना कि अपनी ऊर्जा समय और पुरुषार्थ इस बात में व्यर्थ करना चाहिए कि किसके कारण हम इस स्थिति में हैं किन लोगों ने हमें इस सामाजिक स्थिति में रखा हैं , कौन हमें किस नजर से देख रहा हैं हमें क्या समझ रहा हैं | ये बाते हमें कमजोर बनाती हैं अपने लक्ष्य की ओर जाने में रुकावट बनती हैं और मानसिक तनाव भी देती हैं |
महाराष्ट्र की डॉक्टर पायल की आत्महत्या के बारे में पढ़ कर बहुत दुःख हुआ | क्या वाकई जाति सूचक गाली या किसी भी प्रकार का कटाक्ष उत्पीड़न इतना बड़ा हो सकता था कि इतनी पढ़ी लिखी लड़की आत्महत्या कर ले |मै वामपंथी और दलित विचारधारा वालों से इसलिए भी पसंद नहीं करती क्योकि वो इस हीनता को किसी दलित पिछड़े के मन से जाने नहीं देते हैं | दलित पिछड़े को बार बार उसकी जाति की याद दिलाना उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देने की जगह ये बताना की तुम्हारी स्थिति के लिए कौन दोषी हैं , आगे बढ़ने की जगह ब्राह्मणवाद को कोसने में अपनी ऊर्जा लगाने के लिए मजबूर करतें हैं |ऊँची जाति का होने का गर्व जितना बुरा हैं उतना ही बुरा नीची जाति की हीनता भी हैं | ये बातें हमारा ही नुकशान करती हैं हमें पीछे खींचती हैं |
आप सही कह रही हैं कि जाति के साथ जुड़ा हीनता का बोध खत्म होना चाहिये। महाराष्ट्र वाले मामले से मैं ज्यादा परिचित नहीं हूँ लेकिन कई बार आपके आस पास के लोग ऐसा माहौल बना देते हैं कि आदमी अवसाद में चले जाता है। अगर ऐसे में संबल न मिले तो आदमी वह गलत कदम उठा सकता है।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 29/05/2019 की बुलेटिन, " माउंट एवरेस्ट पर मानव विजय की ६६ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteअभिमान और दीनता का कारण जाति बिल्कुल भी उचित नहीं.
ReplyDeleteसार्थक लेख.
विचारणीय पोस्ट
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