आपने लाखो रुपये लगा कर घर ख़रीदा और कुछ ही साल में पता चले की बिल्डिंग खतरनाक हो गई हैं तो आप क्या करेंगे | रूपया लगाया हैं इस बात का रोना रोते हुए उसी घर में बने रहेंगे या अपना और अपने परिवार के जान की परवाह करते हुए उसे खाली कर देंगे |
मुंबई में गिरने वाली कई मंजिला पुरानी इमारते लालच , अवैध कब्जे का एक खतरनाक रूप सामने रखती हैं | वास्तव में साठ से सौ साल पुराने चाल या कई मंजिले वाली इमारतों में रहने वाले उसके असली मालिक नहीं होते हैं | वो सब उस मकान के किरायदार होते हैं और सालों से मात्र १० रुपये से सौ दो सौ रुपये किराये पर उसमे रह रहें होते हैं और माकन मालिक बन जाते हैं |
इनमे से भी बहुत सारे इस किराये को भी नहीं चुकाते हैं | मान लीजिये किसी का बाहर कही ट्रांसफर हो गया या अपना बड़ा घर बन जाता हैं तो ये उस किराए के मकान को किसी और को बेच देते थें कुछ पैसे ले कर | खाली करके युहीं नहीं जाते थे |
अब सोचिये इतना कम किराया पाने वाला मकान मालिक उस मकान की क्या मरम्मत करायेगा या दुरुस्त रखेगा | नतीजा बिना मरम्मत और देखभाल के और इतने साल होने के बाद ईमारत जर्जर हो जाती हैं |
लेकिन इसके बाद भी उसमे रहने वाले कोई भी उसे खाली करने को तैयार नहीं होते हैं | क्योकि वो बिना किसी लिखा पढ़ी के वो घर खाली करके गए तो उनका कब्ज़ा उस मकान से चला जायेगा | फिर उसके बदले मिलने वाला फ्री के फ़्लैट हाथ से निकल जायेगा |
नतीजा वो अपने और अपने परिवार की जान दांव पर लगाने के लिए राजी हो जाते हैं लेकिन मकान नहीं छोड़ते हैं | कुछ लोग तर्क देतें हैं वो गरीब हैं कहाँ जायेंगे |
आप अपने आप को वहां रख कर देखिये आप ऐसी इमारत में रहने के बजाए अपने परिवार के साथ सड़क पर सुरक्षित रहना नहीं पसंद करेंगे | भाई जान हैं तो जहान हैं जान ज्यादा जरुरी हैं या कब्जे का मकान |
होता ये हैं कि ऐसे मकानों को सरकारे अधिग्रहित कर उसको फिर से डेवलप करती हैं और सभी किरायदारों को फ़्लैट मालिक बना देतीं हैं और इमारत दुबारा बनने के दौरान उन्हें रहने के लिए घर भी देती हैं |
कुछ लोग जिनके पास जगह बड़ी या खाली जगह ज्यादा होता हैं तो वो नीजि बड़े बिल्डर से ये पुनः निर्माण करवाते हैं इसमें बची हुई बाकी की जगह बिल्डर की हो जाती हैं | पुनः निर्माण के बाद हजारो का घर रातो रात लाखों करोडो का हो जाता हैं | ईमारत किस स्थान पर हैं बाजार भाव उस पर निर्भर हैं |
जो सरकार गरीबो के भलाई के लिए अपने पैसे पर घर बना कर देती हैं वो बेचारे गरीब सात और दस साल तक घर नहीं बेचने की शर्त को बड़े आराम से तोड़ कर उन्हें तुरंत बेच कर फिर किसी जर्जर चाल झोपड़े या शहर के बाहर किसी जगह रहने चले जाते हैं | घर को पवार ऑफ़ अटर्नी पर बेच दिया जाता हैं |
सरकारी कागजो पर नाम नहीं बदला जाता हैं | नतीजा सालों बाद जब उस ईमारत एक सोसायटी बन जाती हैं और नाम बदलना होता हैं तो यही पुराने किरायेदार नए मकान मालिक से वर्तमान समय के भाव से मकान की चौथाई कीमत तक की मांग फिर से करते हैं | या तो वो रकम दे कर मकान अपने नाम पर करों या फिर वकील से कुछ तिकड़म लगवाओ या बस उसमे रहते रहो उसको बेचना एक मुश्किल काम हो जाता हैं |
जो मकान मालिक पुनः निर्माण के लिए राजी नहीं होते उन पर वोट के लालच में इलाके के नेता परेता दबाव डालते हैं | बाप दादा के मेहनत की संपत्ति कौड़ियों के भाव में चली जाती हैं | मकान मालिक को मुआवजे के नाम पर किसानो से भी कम कीमत मिलती हैं | जिसे कीमत कहना ही गलत होगा |
इसका ही नतीजा हैं कि मुंबई जैसी जगह में हजारों घर खाली पड़े हैं लेकिन कोई उन्हें किराये पर नहीं देता हैं | जो लोग घर किराये पर देतें हैं वो बहुत कम समय के लिए देतें हैं |
एक व्यक्ति को ग्यारह ग्यारह महीने के दो टर्म से ज्यादा कोई उस घर में रहने नहीं देता | भले आप दूसरे से ज्यादा पैसे दे लेकिन माकन मालिक आपको निकाल ही देता हैं | कुछ लोग ही क़ानूनी तौर पर पांच साल के लीज पर देते हैं |
यहाँ ज्यादातर पुरे बारह महीने का किराया एक साथ वसूल लिया जाता हैं , हर महीने नहीं लिया जाता हैं |
इसलिए मुंबई में संपत्ति दिलाने वाले दलालों की भरमार हैं | मकान बेचने से ज्यादा वो किरायेदारी से पैसे कमाते हैं | एक महीने का किराया दोनों पार्टी से वो वसूलते हैं |
इसलिए आगे से ऐसी इमारतों के गिरने पर सरकार प्रशासन और मकान मालिकों को कोसने के पहले एक बार सोचियेगा |
मुंबई में गिरने वाली कई मंजिला पुरानी इमारते लालच , अवैध कब्जे का एक खतरनाक रूप सामने रखती हैं | वास्तव में साठ से सौ साल पुराने चाल या कई मंजिले वाली इमारतों में रहने वाले उसके असली मालिक नहीं होते हैं | वो सब उस मकान के किरायदार होते हैं और सालों से मात्र १० रुपये से सौ दो सौ रुपये किराये पर उसमे रह रहें होते हैं और माकन मालिक बन जाते हैं |
इनमे से भी बहुत सारे इस किराये को भी नहीं चुकाते हैं | मान लीजिये किसी का बाहर कही ट्रांसफर हो गया या अपना बड़ा घर बन जाता हैं तो ये उस किराए के मकान को किसी और को बेच देते थें कुछ पैसे ले कर | खाली करके युहीं नहीं जाते थे |
अब सोचिये इतना कम किराया पाने वाला मकान मालिक उस मकान की क्या मरम्मत करायेगा या दुरुस्त रखेगा | नतीजा बिना मरम्मत और देखभाल के और इतने साल होने के बाद ईमारत जर्जर हो जाती हैं |
लेकिन इसके बाद भी उसमे रहने वाले कोई भी उसे खाली करने को तैयार नहीं होते हैं | क्योकि वो बिना किसी लिखा पढ़ी के वो घर खाली करके गए तो उनका कब्ज़ा उस मकान से चला जायेगा | फिर उसके बदले मिलने वाला फ्री के फ़्लैट हाथ से निकल जायेगा |
नतीजा वो अपने और अपने परिवार की जान दांव पर लगाने के लिए राजी हो जाते हैं लेकिन मकान नहीं छोड़ते हैं | कुछ लोग तर्क देतें हैं वो गरीब हैं कहाँ जायेंगे |
आप अपने आप को वहां रख कर देखिये आप ऐसी इमारत में रहने के बजाए अपने परिवार के साथ सड़क पर सुरक्षित रहना नहीं पसंद करेंगे | भाई जान हैं तो जहान हैं जान ज्यादा जरुरी हैं या कब्जे का मकान |
होता ये हैं कि ऐसे मकानों को सरकारे अधिग्रहित कर उसको फिर से डेवलप करती हैं और सभी किरायदारों को फ़्लैट मालिक बना देतीं हैं और इमारत दुबारा बनने के दौरान उन्हें रहने के लिए घर भी देती हैं |
कुछ लोग जिनके पास जगह बड़ी या खाली जगह ज्यादा होता हैं तो वो नीजि बड़े बिल्डर से ये पुनः निर्माण करवाते हैं इसमें बची हुई बाकी की जगह बिल्डर की हो जाती हैं | पुनः निर्माण के बाद हजारो का घर रातो रात लाखों करोडो का हो जाता हैं | ईमारत किस स्थान पर हैं बाजार भाव उस पर निर्भर हैं |
जो सरकार गरीबो के भलाई के लिए अपने पैसे पर घर बना कर देती हैं वो बेचारे गरीब सात और दस साल तक घर नहीं बेचने की शर्त को बड़े आराम से तोड़ कर उन्हें तुरंत बेच कर फिर किसी जर्जर चाल झोपड़े या शहर के बाहर किसी जगह रहने चले जाते हैं | घर को पवार ऑफ़ अटर्नी पर बेच दिया जाता हैं |
सरकारी कागजो पर नाम नहीं बदला जाता हैं | नतीजा सालों बाद जब उस ईमारत एक सोसायटी बन जाती हैं और नाम बदलना होता हैं तो यही पुराने किरायेदार नए मकान मालिक से वर्तमान समय के भाव से मकान की चौथाई कीमत तक की मांग फिर से करते हैं | या तो वो रकम दे कर मकान अपने नाम पर करों या फिर वकील से कुछ तिकड़म लगवाओ या बस उसमे रहते रहो उसको बेचना एक मुश्किल काम हो जाता हैं |
जो मकान मालिक पुनः निर्माण के लिए राजी नहीं होते उन पर वोट के लालच में इलाके के नेता परेता दबाव डालते हैं | बाप दादा के मेहनत की संपत्ति कौड़ियों के भाव में चली जाती हैं | मकान मालिक को मुआवजे के नाम पर किसानो से भी कम कीमत मिलती हैं | जिसे कीमत कहना ही गलत होगा |
इसका ही नतीजा हैं कि मुंबई जैसी जगह में हजारों घर खाली पड़े हैं लेकिन कोई उन्हें किराये पर नहीं देता हैं | जो लोग घर किराये पर देतें हैं वो बहुत कम समय के लिए देतें हैं |
एक व्यक्ति को ग्यारह ग्यारह महीने के दो टर्म से ज्यादा कोई उस घर में रहने नहीं देता | भले आप दूसरे से ज्यादा पैसे दे लेकिन माकन मालिक आपको निकाल ही देता हैं | कुछ लोग ही क़ानूनी तौर पर पांच साल के लीज पर देते हैं |
यहाँ ज्यादातर पुरे बारह महीने का किराया एक साथ वसूल लिया जाता हैं , हर महीने नहीं लिया जाता हैं |
इसलिए मुंबई में संपत्ति दिलाने वाले दलालों की भरमार हैं | मकान बेचने से ज्यादा वो किरायेदारी से पैसे कमाते हैं | एक महीने का किराया दोनों पार्टी से वो वसूलते हैं |
इसलिए आगे से ऐसी इमारतों के गिरने पर सरकार प्रशासन और मकान मालिकों को कोसने के पहले एक बार सोचियेगा |
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