September 21, 2019

समय के साथ परंपराओं में बदलाव जरुरी हैं ----mangopeople

                                          बात कुछ   सालों पुरानी हैं एक दिन अचानक से सपने में अपने ससुर जी को देखा | सुबह मम्मी का फोन आया तो बातों बातों में मम्मी से इसका जिक्र कर दिया | बस  मम्मी अपने विश्वास के साथ शुरू हो गई  पितृपक्ष चल रहा हैं  ,( जबकि मुझे इसका पता नहीं था )  कोई तुम्हारे ससुराल में कुछ करता हैं कि नहीं , तुम्हारे ससुर तुम लोगों से भोजन मांग रहें हैं तुम उनके नाम का खाना निकाल दो , दिन याद हैं क्या , खीर पूड़ी ही निकाल दो | उन्हें पता था मैं ना इन चीजों पर विश्वास करती थी ना करने वाली थी |
                                         
                                         शाम को सारा किस्सा पतिदेव को सुनाया युही लेकिन ये सुनते ही  पतिदेव जी  का मन अटकने लगा इस बात पर और पूछने लगे क्या क्या करतें हैं | पतिदेव के माँ का देहांत उनके बचपन में ही हो गया था और पिता का साथ भी उनका जीवन में ना होने के बराबर ही था , जो कुछ साल पहले ही गुजरे थे | भाई बहन गांव में ही छूट गए बचपन में ही सो उन्हें कभी अपने माता पिता परिवार को याद करते ज्यादा देखा नहीं था | इसलिए उस दिन ऐसा कुछ करने की उन्ही इच्छा देख थोड़ा आश्चर्य भी हुआ |
                                       
                                       मेरा विश्वास इन सब पर नहीं था लेकिन लगा अगर कुछ कहा तो उन्हें बुरा ना लगे कि वो अपने माता पिता के लिए कुछ करना चाह रहें हैं और मैं अड़ंगा लगा रही | मैंने भी बता दिया खीर तो इतनी सुबह बनने से रही बिटिया के काम के आगे , मम्मी ने कहा हैं दही पूड़ी से भी काम चल जायेगा | सो सुबह चार पूड़ी दही दे कर कहा गया नीचे मंदिर पर गाय वाली आई होगी , गाय को खिला आओ | आ कर बताते हैं कि गाय नहीं थी कुत्ता भी नहीं मिला सब वही रख कर आ रहें थे मैंने भी रख दिया |
दोपहर में बिटिया को प्ले स्कूल से लाने जा रही थी तो देखा लगभग सभी पेड़ों के नीचे खाने के ढेर लगे थे और मक्खियां उन पर भिनभिना रहीं थी | कई दिनों से हो रहा होगा लेकिन उसके पहले मेरा ध्यान ही ना गया था शायद | कोई कुत्ता गाय कौवा उन्हें नहीं खा रहा था ऑफिस जाने की जल्दी किसी के पास रस्म आदायगी से ज्यादा का समय नहीं था | फिर वही देखा जो अपने लघुकथा में मैंने  जिक्र किया था कि उस खाने के ढेर से दो लड्डुओं का पेड़ की ढलान से लुढकना और किसी दिन हिना बेचारे का उसे उठा कर खा जाना |

                                              शाम को जब वो बात पतिदेव को बताई तो उन्हें भी अपने किये का  अफसोस हुआ | मैंने कहा अच्छा होता उसे अपने पास रख लेते ऑफिस जाते ना जाने कितने भिखारी तुम्हे रोज दिखते होंगे , उनमे से किसी को दे देते तो तो ज्यादा बेहतर ना होता | अगले दिन माँ के नाम का पूड़ी खीर मुझसे बनवा कर ले गए भिखारी को खिलने के लिए प्रायश्चित के रूप में | उसके बाद हमने कुछ नहीं किया |

                                                         समय के साथ इन रस्मों में कुछ बदलाव करना चाहिए , सड़क पर इन्हें ऐसे ही छोड़ कर चले आने से अच्छा हैं किसी को भी खाने के लिए दे दिया जाये | अपने माता पिता या इतने करीबी लोगों को कौन भूलता हैं चाहे वो हमारे साथ हो या ना हो | उन्हें याद करने के लिए किसी दिन विशेष की शायद ही हम में से किसी को जरुरत होती होगी | मैं किसी के विश्वास का विरोध नहीं करती बस चाहतीं हूँ समय के साथ बहुत सारी रस्मों परम्पराओं का रूप और उसके पीछे की सोच को बदल देना चाहिए | उन्हें और ज्यादा मानवीय और सामाजिक बना देना चाहिए |



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