जैसा की उम्मीद थी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई सदस्यता की दावेदारी का समर्थन किये अभी हफ्ता भर भी नहीं हुआ की अमेरिका ने वही बात कहना शुरु कर दिया की सुरक्षा परिषद सुधारों पर जल्द कुछ होने वाला नहीं है | ये पहले से ही तय था की यही होने वाला है ओबामा ने भारत में जो कहा उसका लब्बो लुआब यही था की जब कभी जी हा जब कभी सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या बढाई जाएगी और सदस्यों को चुनने का समय आयेगा तो वो भारत का समर्थन करेगा अब उसने साफ कर दिया की पहले ऐसा कुछ होने तो दीजिये मतलब सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ने तो दीजिये तब ना आप का समर्थन करेंगे यानी यह की ना नौ मन तेल होगा ना राधा गौने जईयना सुरक्षा परिषद के सुधारों को लागू ही नहीं होने देंगे तो समर्थन की नौबत ही नहीं आएगी |
अब इस बात पर बहुतों को गुस्सा आयेगा कि देखा एक बार फिर अमेरिका ने हमें बेफकुफ़ बनाया हमसे हजारों नौकरियाँ अपने देश के लिए ले गया और बदले में हमें दिया कोरा आश्वासन वो भी बाद में झूठा निकला | वो केवल अपने बारे में ही सोचता है आतंकवाद के नाम पर वो अपनी निजी लड़ाई लड़ रहा है इसी आतंकवाद के नाम पर दो देशों को बर्बाद कर दिया है दुनिया पर दादा गिरी करता है | उसकी नीति हमेशा से दोहरी रही है अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और आदि आदि आदि | पर मुझे नहीं लगता है कि उसकी नीतियाँ दोहरी है मेरे समझ से उसकी नीतियाँ सिर्फ उसके देश के हित में है | क्या दुनिया का कोई भी देश अपनी नीतियाँ दुनिया के हित को ध्यान में रख कर बनाता है यदि नहीं तो फिर अमेरिका से ये उम्मीद क्यों की जाये की वो दुनिया के हित सुख शांति को ध्यान में रख कर अपनी नीतियाँ बनाये | उसकी नीतियाँ अपने देश के विकास उन्नति और फायदे के लिए होंगी | अब ये तो हमारे देश के नीति निर्माताओ की गलती है कि हम अपने देश के हितानुसार अपनी नीतियाँ क्यों नहीं बना पाते है अब इस गलती के लिए हम अमेरिका को तो नहीं कह सकते है कि भायो हमारे नेता तो हमारे देश के लिए कुछ नहीं कर रहे है तू ही हमारे लिए कुछ कर |
अब सवाल ये है की फिर वो दादा गिरी क्यों करता है दुनिया के हर मामलों में अपनी टाँग क्यों अडाता है हर जगह अपनी क्यों चलता है यदि वो ऐसा करता है तो उसे सभी कमजोर देशों के लिए कुछ करना चाहिए सिर्फ अपने फायदे वाले देशों के लिए ही कुछ क्यों करता है | तो निश्चित रूप से कोई भी देश अपने आप को सैनिक तकनीकी और कूटनीतिक रूप से ज्यादा शक्तिशाली इसीलिए बनाता है ताकि दुनिया के दूसरे देश उस पर बुरी नजर डालने की हिम्मत ना कर सके और इसकी चाहत तो सभी देश रखते है और अपने सामर्थ्य के हिसाब से खुद को शक्तिशाली बना रहे है | भारत को ही लीजिये हम ढाई बार पाकिस्तान से युद्ध लड़ चुके है क्या कहा ढाई का मतलब नहीं समझ आया पहला 65 दूसरा 71 और फिर करगिल | उम्मीद है करगिल को भूले नहीं होंगे हमारे सैंकड़ो जवान शहीद हुए थे वो युद्ध था उसे घुसपैठ या झड़प की संज्ञा देने की भूल ना करे | पर अब सैनिक रूप से हम इतने सामर्थवान हो चुके है कि अब पाकिस्तान हम पर सीधे हमला करने की सोच भी नहीं सकता है पर हम अभी भी इस मामले में चीन से काफी पीछे है और निरंतर उसके बराबर बनने का प्रयास कर रहे है | रही बात दादा गिरी की तो जी ये इल्जाम तो दक्षिण एशिया में हम पर भी लगता है की हम सार्क देशों के ऊपर दादा गिरी करते है ७१ में हम पर भी आरोप लगा था कि हम दूसरे के आतंरिक मामलों में अपनी टाँग ( सैनिक ) अड़ा रहे है और अपने फायदे के लिए पाकिस्तान के दो टुकड़े करा दिया | वो अलग बात है की हम उसका उतना फायदा नहीं उठा पाते है और ना ही उस वर्चस्व को निरंतर बरकरार रख पाते है जितना की इसका फायदा अमेरिका उठा लेता है | हमने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ाद होने में सहायता की वहा के लोगो को पाकिस्तान के सैन्य जुल्मो से बचाया लेकिन आज स्थिति क्या है उसी बांग्लादेश में फिर से पाकिस्तान की घुसपैठ बढ़ गई है और हमारे ही खिलाफ वहा भी आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हो गई है | यही हाल धीरे धीरे हमारे एक और पड़ोसी नेपाल का भी होता जा रहा है | एक समय था जब हम दो सगे भाइयों की तरह थे वहा पर लोकतंत्र की स्थापना में हमारा भी योगदान था पर आज वहा क्या हो रहा है | इस बात से फर्क नहीं पड़ता की वो अब एक हिन्दू राष्ट्र ना हो कर धर्मनिरपेक्ष देश बना गया है लेकिन जिस तरह से वहा चीन का वर्चस्व बढ़ा रहा है वो हमारे लिए ठीक नहीं है | वहा के बाजार पर तो धीरे धीरे चीन ने कब्ज़ा जमा ही लिया था अब तो वहा चीनी हथियारों की भी पहुँच हो गई है और राजनीति में उनके दखल की ख़बरे अब आम हो गई है | क्या ये सही है की हमारे दो इतने क़रीबी पड़ोसी देशों में जो कभी हमारे काफी क़रीबी और मित्र हुआ करते थे वहा अब हमारे दो दुश्मन अपना वर्चस्व बढाते जा रहे है और हम चुप चाप उसे देख रहे है | आखिर क्यों हमने अपने उन पड़ोसी देशों को अपने हाथ से निकाल जाने दिया जिनसे हमारी सीमाएँ इतनी ज्यादा मिली हुई है और हमारे लिए उनसे दुश्मनी एक बड़ा खतरा बन सकती है | यही काम अमेरिका कितनी खूबी से करता है वो ना केवल किसी देश पर अपनी धौस जमतासिखना चाहिए ना की इसके लिए उसे उलाहना देना चाहिए | पर हमारे नेता तो अपने देश के अन्दर ही अपना वर्चस्व स्थापना में इतने व्यस्त रहते है की घर के बाहर क्या हो रहा है इसकी सोचने की उनको फ़ुरसत ही नहीं है |
ओबामा ने इस बार कहा की भारत को हम बराबरी का दर्जा दे रहे है | हमारा बड़ा बाजार उनको ये कहने के लिए मजबूर कर रहा था ये हमारे हाथ में था कि हम इस का फायदा अपने देश के लिए कितना उठाते पर हम ऐसा नहीं कर सके तो ये गलती हमारे देश के नेताओं और उन अधिकारियों की है जो इस बराबरी के दर्जे का फायदा नहीं उठा सके इस दौरे के दौरान हुए सौदों में बराबरी का मुनाफ़ा नहीं कमा सके | इसके लिए हम अमेरिका को दोष नहीं दे सकते है | ये सौदे एक दिन में नहीं हुए होंगे इस पर महीनों पहले ही काम शुरू हो गया होगा ओबामा ने तो उन पर हस्ताक्षर की औपचारिकता भर निभाई होगी फिर क्यों नहीं हमारे नेता और अधिकारी अपने लिए कुछ फायदे का सौदा इस दौरे से निकाल पाये | ये बात किसी से नहीं छुपी है की अमेरिका एक अच्छा व्यापारी भी है और वो अपने फायदे के लिए आप से हर तरह की सौदेबाजी कर सकता था क्यों हमने केवल ओबामा के इस पूरे दौरे में अपने लिए केवल राजनीतिक और कूटनीतिक फायदे तक ही सीमित रखा क्यों नहीं हमने भी इससे कुछ आर्थिक फायदा उठाया | राजनीतिक और कूटनीतिक बयानबाज़ी का क्या हर्श होता है वो हमें एक हफ्ते बाद ही पता चल गया | वो शब्दों के जाल ज्यादा होते है और उसमे काफी कंडीशन अप्लाई वाला फंडा होता है जो तुरंत नहीं समझ आता है | अच्छा होता की हम सब इस गलती के लिए अमेरिका को कोसने के बजाये अपने नीति निर्माताओ से सवाल करते |
अब रही आतंकवाद की नीति तो मुझे ये दोहराने की अब जरुरत नहीं है की अमेरिका आतंकवाद के नाम पर अपनी निजी लड़ाई लड़ रहा है और उससे हम अपनी लड़ाई में किसी सहयोग की उम्मीद नहीं कर सकते है वो भी उस देश के खिलाफ तो कतई नहीं जो पैसे ले कर उसकी तरफ से लड़ रहा है उसका हर तरह से साथ दे रहा है | हमारे देश में फैला आतंकवाद हमारी समस्या है और इससे हमें खुद ही लड़ना है हम इसमे किसी और से मदद की अपील नहीं कर सकते है | बार बार ये सवाल भी उठाए जाते है की अमेरिका को पता है की पाकिस्तान ही भारत में आतंकवाद की जड़ है वही लश्कर हिज्ब्बुल जैसे आतंकवादी गुटों को पैदा करने और बनाने वाला है फिर उसके खिलाफ कुछ करता क्यों नहीं | हा ये सही है की अमेरिका को इन सब बातो की जानकारी है पर वो पाकिस्तान के खिलाफ जा कर क्यों काम करे जबकि उसे पता है की ये सारे संगठन से उसे कोई खतरा नहीं है उसका असली दुश्मन तो तालिबान है | क्या हम अपने सैनिक या किसी तरह की सैन्य मदद अमेरिका को तालिबान से लड़ने में करेंगे नहीं ना क्योंकि तालिबान आज हमारे लिए उतना बड़ा खतरा नहीं है जितना की कुछ अन्य गुट | हम एक काम कर सकते है वह है अफग़ानिस्तान में निर्माण और इस जैसे कुछ असैन्य काम में सहयोग वो हम कर रहे है पर उसमे भी हमारा स्वार्थ है हम नहीं चाहते ही एक बार फिर वहा पर पाकिस्तान की दख़लअंदाज़ी बढ़े जो हमारे लिए ठीक नहीं है साथ ही हमारे रिश्ते अफगान सरकार से बेहतर हो | तो जब हम अमेरिका की उसकी लड़ाई में सांकेतिक मदद के अलावा कुछ नहीं कर सकते है तो हमारी लड़ाई में वो प्रत्यक्ष रूप से हमारी कैसे मदद कर सकता है |
ऐसा नहीं है की अमेरिका के सारे नेता बड़े देश भक्त टाईप के है और देश के हित के अलावा कुछ सोचते ही नहीं है| दुनिया के हर देश के नेता भ्रष्टता से अछूते नहीं है | पूरा इराक युद्ध तेल का खेल था और इस खेल में बुश और उनके परिवार को से जुड़े तेल कंपनियों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था | लेकिन उनके नेताओं और हमारे नेताओं में फर्क ये है की उनके नेता अपना हित + देश हित या देश हित + अपना हित की बात करते है पर हमारे यहाँ तो नेता हमारा हित +हमारा हित या फिर हमारा हित + हमारे परिवार परिचित का हित से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाते है देश तो इसमे कही आता ही नहीं तो इसके लिए हम किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकते है | अच्छा हो हम अमेरिका को हर बात में कोसने के बजाये सवाल अपने नेताओं पर उठाये और यदि हमें दुनिया में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना है तो सच में अमेरिका से थोड़ी कूटनीतिक थोड़ी व्यापार बुद्धि सीख लेनी चाहिए |
इस लेख को लिखने का ये अर्थ कतई नहीं है की अमेरिका जो कुछ भी कर रहा है वो उसके देश हित में है तो वो सही है या उसके सारे काम सही है | ये तो बस कुछ मुद्दों पर सोची गई एक सामान्य सी अलग सी सोच भर है और उनके और हमारे नीति निर्माताओ को फर्क दरसाना भर है | मैं इस मामले की कोई बड़ी जानकार नहीं हुं इसलिए लेख में सुधार की काफी सम्भावना है आप के विचार मेरे लेख और मुझे नई दिशा दे सकते है | इसलिए अमेरिका हाय हाय के अलावा कुछ विचार भी रखियेगा |
चलते चलते
एक बार एक भारतीय सांसद अमेरिका के सांसद (सीनेटर ) से मिलने अमेरिका गया वहा उसका शानदार फ़्लैट देख कर आश्चर्य में पड़ गया और पूछ बैठा की आप लोगो को इतना वेतन और सुख सुविधा मिलती है की आप ने इतना शानदार फ़्लैट बना लिया | अमेरिकी सांसद मुस्कराया और उसे अपनी खिड़की के पास ले गया और बोला की सामने वो सड़क देख रहे हो भारतीय ने कहा हा देख रहा हुं अमेरिकी ने कहा उसके ऊपर बना ओवर ब्रिज देख रहे हो भारतीय ने कहा हा फिर अमेरिकी ने कहा १० % भारतीय वाह वाह करने लगा और उन्हें भारत आने का निमंत्रण दे कर भारत आ गया वही अमेरिकी सांसद भारत आ कर उसी सांसद के घर गया उनका शानदार बँगला देख कर तो वो घोर आश्चर्य में पड़ गया बोला क्या आप को इतना वेतन मिलता है की इतना शानदार बँगला बना लिया भारतीय सांसद मुस्कराया और उन्हें घर के पिछवाड़े की खिड़की के पास ले गया और बाहर दिखा कर कहा की वो बाहर सड़क और उस पर बना ओवर ब्रिज देख रहे हो अमेरिका ने कहा की कहा है सड़क और ओवर ब्रिज तो भारतीय ने कहा १००% |
जानकारी तो हमारी भी कुछ ख़ास नहीं है, पर जहाँ तक हमारे कुछ अप्रवासी मित्रों से पता चला है (जो ज्यादातर अमेरिका से ही है) तो उसके मुताबिक़ अमेरिका अभी भी खस्ता हालत में है और निकट भविष्य में चीन और भारत उसकी विश्व शक्ति होने ही निर्विवादित छवि को चुनौती देंगे..
ReplyDeleteबाकी जो हुआ, वैसे तो होता ही, लेन देन और सौदेबाजी तो राजनीति का अभिन्नं अंग है, परदे के पीछे सौदेबाजी तो हमेशा से ही होती रही है, इस बार भी अलग क्या हुआ होगा... आम आदमी थोडा खुश हो सकता है की इस बार हमारे देश ने कुछ अमेरिका को दिया और क्या, फिर वापस वहीँ रोज़ मर्रा के ढाँचे पर जिंदगी चलेगी...
अमेरिका की है है क्या करे, स्वार्थी होने का तो सबको हक है, अपने देश के लिए नहीं तो क्या पडोसी के लिए करेंगे, भारतीय नेता अमेरिका से भी कुछ सीखे तो बात बने, सुना है स्विस बन में डेढ़ लाख कोरोड़ दबाए बैठे है ;)
डेढ़ लाख कोरोड़ !!! कमबख्त खाएंगे तो कितना खाएंगे, ये भी सोचने वाली बात है .. ;)
आम लोगों के ब्लॉग पर खास लोगों की नीतियों की गहन चर्चा बढ़िया लगी.
ReplyDeleteअंशुमाला जी,आपने सही कहा की अमेरिका हमेशा करता वोही है जो उसे करना चाहिए.भारत आकर भी ओबामा ने वो ही किया हमें फिर से झुनझुना पकड़ा दिया लेकिन अफ़सोस इस बार इसे बजाने के लिए ज्यादा समाया नहीं दिया वहां पहुँचते ही सारी पोल पट्टी खोल दी.वैसे सरकार चाहे तो अभी भी इसे बजा बजा कर गर्वोक्ति कर सकती है(करेगी ही ) की देखो दद्दू से कहलवा तो लिया ही, ये क्या कम है.वैसे अपनी तकनीक, ऊर्जा और रक्षा सम्भ्न्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें उस पर फिलहाल निर्भर रहना ही पड़ेगा भले ही इसके लिए हमें अपने बाजारों को खोलना ही क्यों न पड़े.आम आदमी न सही दिल्ली जानती है अमेरिका के आश्वासनों की हकीकत.हमारी अफगान नीति की सराहना करने वाला अमेरिका वोही देश है जिसने हाल ही में अफगानिस्तान में हमारी भूमिका सीमित करने के लिए पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मध्य एक व्यापारिक समझोते को मूर्त रूप दिया है(अप्रत्यक्ष रूप से). जिसके तहत अफगानिस्तान वाघा सीमा के सहारे निर्यात तो जारी रख सकता है परंतू भारत से आयत नहीं.
ReplyDeleteएक तरफ चीन की विस्तारवादी नीतियाँ तो दुसरी और उसके ही कारण दक्षेश के आधे से ज्यादा सदस्यों का भारत विरोधी रुख अख्तियार करते जाने के कारण अब अमेरिका से ही थोड़ी उमीदें है ताकि कम से कम हमारी सामरिक ताकत तो बनी रहे.
@ मजाल जी
ReplyDeleteआप ने सही कहा की हम और चीन ही उसे चुनौती दे सकते है लेकिन हम तो खुद ही एक दूसरे से भिड़ने में लगे है जो दोनों के विकास की गति को थोडा मंद कर रही है | जो आकडा आप ने दिया है वो तो केवल स्विस बैंक का है दुनिया के अन्य देशो में कितना कहा दबा पड़ा है उसकी जानकारी तो शायद हमें कभी मिले ही नहीं |
@ दीप जी
अब क्या किया जाये खास लोगो को आम लोगो के बारे में सोचने की भले फुरसत ना हो पर आम आदमी आमो खास सभी के बारे में सोचता है | वो अलग बात है की उसकी सोचा को कोई महत्व नहीं दिया जाता है |
@राजन जी
आप ने सही कहा की कुछ मामलों में तो हमें उस पर निर्भर रहना ही पड़ेगा और अपना बाजार तो हमने कब का खुला रखा है ज्यादातर मामलों में बस हम उसका फायदा नहीं उठ पा रहे है और वो इसके फायदे उठाये जा रहा है | सार्क हो दक्षेस हो या यु एन इन सब के बारे में हमारी कोई पुख्ता नीति ही नहीं है और ना ही हमारी कोई विदेश नीति है | हमें अपने घर के मामले सुलझाने से फुरसत मिले तब ना |
मुझे तो लगता है कि एक हमारे देश को छोड़कर(आमतौर पर) लगभग सभी देश अपनी विदेश \रक्षा नीतियाँ अपने हितों को ध्यान में रखकर बनाते हैं, अमेरिका को ’दबंग’ जरूर कह सकते हैं।
ReplyDeleteइसके बावजूद अपनी सुरक्षा के मामले में जो रुख अमेरिका ने अपना रखा है, उसका मैं तो प्रशंसक हूँ। शाहरुख खान का मामला हो चाहे, जार्ज फ़र्नांडीज़ का, नियमों का अनुपालन करने की जिद मुझे तो बहुत अच्छी लगी, खासतौर पर जब राष्ट्र और अपने नागरिकों की सुरक्षा का सवाल हो।
भारत का महत्व अमेरिका के लिये कम नहीं है, बेशक बाजारवाद ही असली कारण है। कमी हम लोगों की है जो अपनी भावुकता के चलते किसी व्यक्तव्य को अनावश्यक महत्व देने लगते हैं और उम्मीदें पालने लगते हैं। परमुखापेक्षी होने की बजाय खुद को समर्थ बनायें हम हिन्दुस्तानी, तो अमेरिका क्या कोई भी हमें अनदेखा नहीं कर सकता।
पोस्ट पसंद आई, और चलते-चलते और भी ज्यादा। One more feather(feature) in your crown(post). भैरी गुड:)
अमेरिका की तो नियति यही है ,पर भारत हमेशा उसकी चालों का शिकार हुआ है ...सच्चाई को अभिव्यक्त किया है आपने ...शुक्रिया
ReplyDelete@ संजय जी
ReplyDeleteये दबंगई ज़रुरी है तभी तो आज तक किसी देश की हिम्मत उसकी तरफ देखने की नहीं होती है और ९/११ के एक हमले के बाद उस पर हमला करने वाले उस दिन को कोस रहे होंगे | सुरक्षा नियमों की कड़ाई का नतीजा है की वहा दोबारा कोई हमला नहीं हुआ और हम सुरक्षा के नाम पर चिल्लाते ज्यादा है करते काम है | ऐसा नहीं है की वो सिर्फ दूसरों के लिए कोई नियम बनाते है वो दूसरों को नियमों का भी पालन करते है | कही पढ़ा था एक बार राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कनाडा के दौरे पर गये थे वहा स्वस्थ को लेकर काफी कड़ाई है और वहा के एयरपोर्ट के कर्मचारियों ने जब उनका हेल्थ चेक अप करने के बाद ही जाने का नियम बताया तो उन्होंने तुरंत इस नियम का पालन किया और अपना वही पर शारीरिक स्वस्थ जाँच कराई | हमारी ख़राब दशा का कारण यही है नैतिकता , अहिंसा और भावनाओं में बहाना | हम भूल जाते है की ये नियम विदेश नीति पर लागू नहीं करना चाहिए | और तारीफ करने के लिए थंकू जी :-)
@ केवल राम जी
पर हम कब तक शिकार बनते रहेंगे भला तो तब होगा जब हम शिकारी बने |
हर देश की अपनी एक मूल सोच, नीति और नियम होते है जैसे हम अहिंसा और नैतिकता के पुजारी है तो चीन की नीति साम्राज्यवादी है और अमेरिका की हर रूप में सर्वशक्तिमान बने रहने की | लेकिन समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही हमें अपनी मूल सोच से थोड़ा बदलाव लाते रहना चाहिए |
ReplyDeleteक्या बात है आम आदमी आज कुछ खास बात और खास लोगों के लिए कर रहा है |
अगर आप को अमेरिकी नागरिकता और एक अच्छी नौकरी मिले तो क्या आप उसे नही लपकेंगी
ReplyDelete@ देबू जी
ReplyDeleteबिल्कूल ठीक बात कही पर हम बदलने के लिए तैयार ही नहीं है |
रही बात आम आदमी की तो कहने के लिए भले ये बाते खास लोगों की है पर इससे आम आदमी भी जुड़ा है | जिन पैसो से हथियार और सुरक्षा के उपकरण ख़रीदे जाते है वो आम आदमी का दिया पैसा ही होता है और उसे आम आदमी की भलाई के लिए ही खर्च करना चाहिए | लेकिन कूटनीति और विदेश नीति के अभाव के कारण जो सीमाओ पर हम अपनी रक्षा सिर्फ इसके बदौलत कर सकते है ना करके हमें भारी रकम रक्षा सौदों में खर्च करना पड़ता है |
@ बेनामी जी
दो बाते है एक तो आप ने ठीक से मेरा लेख पढ़ा नहीं है वरना ये सवाल नहीं करते क्योकि मैंने कही भी अमेरिका की बुराई नहीं की है तो ये सवाल मेरे लिए हुआ ही नहीं की मै वहा की नौकरी या नागरिकता लापकुंगी की नहीं | दूसरी की आप मुझे शायद नहीं जानते या जानती है | मै एक गृहणी हु मै अमेरिका घूमने के सपने तो देख सकती हु लेकिन वहा पर नौकरी या नागरिकता के बारे में नहीं सोच सकती | वैसे मुझे यदि विदेश में कही घूमने का मौका मिले तो शायद अमेरिका आखरी नंबर पर होगा क्योकि मुझे ऐतिहासिक जगह देखने का ज्यादा शौक है उस लिहाज से मै पहले मिश्र ,यूरोप जैसे जगहों पर पहले जाना चाहूंगी | वैसे आज तक इस बारे में मैंने सोचा नहीं था आज आपने मुझे सोचने के लिए एक विषय दे दिया है मै जरुर इस पर गंभीरता से सोचूंगी | धन्यवाद |
अंशुमाला जी,आपने सही कहा की अमेरिका हमेशा करता वोही है जो उसे करना चाहिए.भारत आकर भी ओबामा ने वो ही किया हमें फिर से झुनझुना पकड़ा दिया लेकिन अफ़सोस
ReplyDeleteअंशुमाला जी,
ReplyDeleteअब विषय से हटकर एक बात.यदि व्यक्तिगत लगे तो ध्यान मत दीजियेगा.एक ब्लॉग पर आपके ब्लॉगिंग संबंधी विचार जानने को मिले की आप इसे नियमों में बाँधने के बजाय ब्लोगेर के आत्मानुशासन को महत्त्व देती है.सही है. मैं भी ये ही मानता हूँ परन्तु एक पाठक जो की किसी ब्लॉग का फोलोवर बना है उसके लिए क्या ये जरुरी है की वो उस ब्लॉग पर आई हर पोस्ट पर कमेन्ट करे ही? क्या ऐसा कोई नियम है/होना चाहिए?यदि पाठक को उस विषय की जानकारी ही न हो तब?
मन में बस यूँ ही एक सवाल aaya तो पूंछ लिया फिर कहता हूँ की यदि आपत्तिजनक/व्यक्तिगत लगे तो हटा दीजिये या इगनोरे कीजिये या जवाब ही मत दीजिये.धन्यवाद.
आपने एकदम सही कहा है ... अमरीका आतंकवाद के नाम पर अपना फायदा देख रहा है ... हर कोई देखता है ... केवल हम हैं जो दूसरों के फायदे देखते हैं ..
ReplyDelete@ संजय भास्कर जी सैल जी
ReplyDeleteधन्यवाद
@ राजन जी
मैं अपने बारे में तो कुछ कह सकती हुं पर किसी और के बारे में मैं क्या कहु | वहा भी मैंने बस अपने बारे में ही बात की थी वहा कुछ लोगों के कहने का अर्थ था कि ब्लॉग सिर्फ उनको लिखना चाहिए जो बहुत अच्छा लिखते हो जो अच्छे मुद्दे उठाते हो ये विचार विमर्श की जगह है बहसे होनी चाहिए आदि आदि यदि इस कोण से देखेंगे तो हम जैसे ब्लॉगर जो किसी विषय में महारत नहीं रखते है या हर विषय में हल्का फुल्का लिखते है उनके लिए तो कोई जगह ही नहीं होगी | रही बात भावनाओं के ठेस लगने की तो आज तो हम कह ही नहीं सकते है की किसी को किस बात पर बुरा लग जाये या कौन सी बात दिल से लगा ले अत: किसी सेंसर सिप की बात करना गलत है | रही बात टिप्पणियों की तो उस पर भी पोस्ट वाली कुछ बाते लागू होती है | जैसे मुझे कविताओ शायरी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है पर कभी कभी कुछ लोग बहुत ही सीधा और सपाट लिखते है या थोड़ा आसान लिखते है तो उन्हें समझना मुश्किल नहीं होता है उस पर मैं टिप्पणी दे देती हुं | भले उसकी गहराई ना समझ आये पर जो आया उस पर ही दे देती हुं | गद्य हो या पद्य जिस दिन लेखक मेरी टिप्पणियों पर आपत्ति करने लगेगा उस दिन से नहीं दुँगी | जवाब बिना संदर्भ जाने दिया है संभव है की पूरा संदर्भ जानने के बाद मेरी राय बदल जाये |
anshumala ji,der se aane ke liye kshama.aapke is jawaab ne bahut hadd tak asmanjas wali istithi se mujhe ubhaar liya.iske liye aabhar.aur sandarbh kuch hai hi nahi to main kya bataau?bas ek normal sa sawaal tha,aapse ek santulit jawaab ki ummeed thee so punch liya.aage se koshish rahegi ki cmnt. vishaya par hi ho.jawaab ke liye ek baar phir se dhanyawaad.
ReplyDeleteaur haan praveen ji ke blog par aapki tippanee bahut pasand aai.kaunsee?....arey wahi 'is vishay me meri jaankari bahut seemit hai' wali.ha ha ha...
ReplyDeleteहमें थंकू दिया आपने, हमें?
ReplyDeleteयू आर भैलकम जी:)