December 04, 2010

कही अनजाने में आप अपने शब्दों से बलात्कार पीड़ित का दर्द तो नहीं बढ़ा रहे है - - - - - - mangopeople

                                   

                            समय के साथ हम सभी ने समाज की कई गलत पुरानी मान्यताओं और सोच को पीछे छोड़ा है और एक नई सोच को बनाया है  उसे अपनाया है | ये देख कर अब अच्छा लगता है की समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो किसी बलात्कार पीड़ित नारी को दोषी की नजर से नहीं देखते है और उसके प्रति सहानुभूति रखते है , मानते है की इस अपराध में उसका कोई दोष नहीं है और उसे फिर से खड़े हो कर अपना नया जीवन शुरू करना चाहिए | मीडिया से ले कर हम में से कई लोगों ने उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए आवाज़ उठाई और काफी कुछ लिखा है | पर क्या उनके पक्ष में लिखते और बोलते समय हमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है की हम अनजाने में वो शब्द लिखते और बोलते जा रहे है जो पीड़ित के मन में और दुख पैदा कर सकता है उसे फिर से खड़ा होने से रोक सकता है और उसके लिए सजा जैसा हो जायेगा |
                          जी हा कई बार जब हम इस विषय पर लिखते है तो कुछ ऐसे शब्द और वाक्य भी लिख देते है जिससे कुछ और  ध्वनिया  और अर्थ भी निकलते है | जैसे बलात्कार पीड़ित के लिए हम " उसकी इज़्ज़त लुट गई", " उसकी इज़्ज़त तार तार कर दी " या "उसे कही मुँह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा " जैसे वाक्य लिख देते है | क्या वास्तव में ऐसा ही है कि जिस नारी के साथ बलात्कार हो वो हमारे आप के इज़्ज़त के काबिल ना रहे क्या हम उसे उसके साथ हुए इस अपराध के बाद कोई सम्मान नहीं देंगे क्या वास्तव में वो समाज के सामने नहीं आ सकती, लोगों से नज़रे नहीं मीला सकती है लोगो को अपना मुँह नहीं दिखा सकती | मैं यहाँ ये मान कर चल रही हुं कि हम में से कोई भी ऐसा नहीं सोचता होगा फिर हम इन शब्दों का प्रयोग क्यों करते रहते है और पीड़ित को और दुखी कर देते है उसमे ग्लानी भर देते है |
               एक बार पीड़ित के तरफ से सोचिये की उस पर उसके लिए लिखे इस शब्दों का क्या असर होगा या ये कहे की उसने तो ये सारे शब्द पहले ही सुन रखे होंगे और उसके साथ हुए इस अपराध के बाद जब वो इस शब्दों को खुद से जोड़ेगी तो उस पर कितना बुरा असर होगा | यही कारण है की कई लड़कियाँ अपने साथ इस तरह के अपराध होने के बाद इस ग्लानी में कि अब उनकी इज़्ज़त लुट गई है उनका कोई सम्मान नहीं करेगा वो कही मुँह दिखाने के काबिल नहीं रही वो परिस्थिति से लड़ने के बजाये आत्महत्या कर लेती है | 
                 ये ठीक है की ये शब्द हमने नहीं बनाये है ये काफी समय पहले से बनाये गए है | रेप के लिए ये शब्दों तब बनाये गए जब समाज की सोच वैसी थी जब समाज इसके लिए कही ना कही स्त्री को ही ज्यादा दोषी मानता था और इस अपराध के बाद उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता था उसे समाज में अलग थलग करके उसे भी सजा दी जाति थी | लेकिन अब हमारी सोच बदल गई है हम मानते है ( कुछ अब भी नहीं मानते ) की इसमे पीड़ित का कोई दोष नहीं है दोष तो अपराध करने वाले का है और सजा उसे मिलनी चाहिए ना की पीड़ित को | जब हमने ये सोच त्याग दिया है तो हमें इन शब्दों को भी त्याग देना चाहिए जो कही ना कही पीड़ित को ही सजा देने वाले लगते है | कुछ शब्दों को हमने पहले ही त्याग दिया है जैसे उन्हें अपवित्र कहना पर अब हमें इस शब्दों को भी त्याग देने चाहिए | ताकि किसी पीड़ित को ये ना लगे की उसने कोई अपराध किया ही य समाज उसे सज दे रह है या वो सम्मान के काबिल नहीं रही | जब ये ग्लानी अपराधबोध नहीं होगा तो उसे अपने दर्द से बाहर आने में और एक नया जीवन शुरू करने में आसानी होगी |
आशा है मेरी बात सभी पाठक सकारात्मक रूप से लेंगे यदि मेरी सोच में कही कोई गलती हो तो मेरा ध्यान अवश्य दिलाइयेगा मैं उसमे अवश्य सुधार करुँगी और यदि इस मामले में आप की भी कोई राय है तो मुझे अवगत कराये |

        

27 comments:

  1. बहुत जरुरी आलेख हमारी आँखें खोलने में सक्षम
    हमें इस बारे में सोचना चाहिए

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  2. सब शब्दों के फेर है...... कुछ भी कह लो. जहाँ भी भावनाएं दमित होती है.... चाह्हे वो कोई भी हो...... ये सभी शब्द वहाँ प्रयुक्त लगते है मन ही मन में.

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  3. विचारणीय...आपसे सहमत हैं...

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  4. सच कह रही हैं आप .विचारणीय मुद्दा उठाया है.वैसे किसी भी संवेदनशील इंसान के मुंह से इस तरह के शब्द कम ही सुनने में आते हैं .

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  5. मनुष्य शब्दों का इस्तेमाल तो अपनी संवेदनाओं के आधार पर ही करता है, जैसा आपने सोचा, सोचने वाला तो सोचेगा ही और एहतियात भी बरतेगा, और बरतना भी चाहिए ...

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  6. jyadatar to hota ye hai ki jo shabd ham yaha waha sunate hai padhate hai unhi hi bina soche dohara dete hai . tv wale to sansani banane ke lie sari simae hi tod dete hai chahe mamala kitana hi sanvedanshil ho . ha ab jabki aap ne ye bat dhyan me lai hai to ham jarur ab apne shabdo par jyada dhyan denge

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  7. एकदम सही मसला उठाया है, और आपकी सोच बिल्कुल सही है।

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  8. @ सुनील जी ,फिरदौस जी , रजनीश जी ,मनोज जी

    आप सभी का धन्यवाद


    @ दीपक जी

    धन्यवाद | दूसरो की मन का दर्द एक बार समझ लेंगे तो ये शब्द मन में भी नहीं आयेगा |


    @ शिखा जी

    धन्यवाद | मुह से भले कम सुने पर लिखा इन्ही शब्दों को जाता है | किसी टीवी के कार्यक्रम हो या अखबार की खबर समाचर को और संवेदनशील बनाने के लिए इस तरह के शब्द आराम से लिखे जाते है | अभी दिल्ली में हुए रेप कांड में ब्लॉग पर भी कुछ लेख आये थे उन में भी यही शब्द थे | जानती हु की ये जानबूझ कर किसी इरादे से नहीं बल्कि अनजाने में लिखा गया था क्योकि पहले से ही ऐसा लिखा जाता रहा है | मेरा इरादा बस इस अनजानी गलती की और ध्यान दिलाना था |


    @ मजाल जी

    बस लोग एतियात बरते यही सोच कर लिखा था |


    @ देबू जी

    कुछ टीवी वालो की संवेदनाए तो मर चुकी है उन्हें क्या कहे बस हमारी जिन्दा रहे यही कामना है |

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  9. बहुत अच्छी और विचारणीय पोस्ट...

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  10. बात तो आपकी सही है, शब्द-चयन सोच समझकर ही करना चाहिये।

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  11. बहुत सही मुद्दा उठाया आपने, शब्दो का ही तो सारा खेल है कुछ शब्द आदमी की रूह को झिझोंडते है तो कुछ शब्द उसमे एक नई ऊर्जा डाल देते है, शब्दो का सही प्रयोग ही उचित है

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  12. .
    .
    .
    अंशुमाला जी,

    बहुत सही !

    हमें इस तरह के मामलों के लिये बेहतर व less offending शब्द या शब्द समूह तलाशने होंगे... कुछ क्षेत्रों में यह हो भी रहा है... जैसे मेरे देखते देखते...

    Blind
    फिर
    Visually handicapped
    फिर
    Visually impaired
    और अब
    Visually Challanged हो गया है...

    ठीक इसी तरह से हम वह शब्द समूह ढूंढ सकते हैं जिससे पीड़ित का दुख कम हो व उसकी गरिमा बनी रहे... अपनी सीमाओं को जानते हुऐ भी कहूंगा कि एक ऐसा शब्द समूह " दैहिक अतिक्रमण पीड़िता" हो सकता है।


    ...

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  13. @ महफूज जी

    धन्यवाद |


    @ संजय जी दीपक जी

    हम सभी लिखते है और जानते है की इन शब्दों में कितनी ताकत होती है ये किसी को हतोस्साहित कर उसे और दुखी भी कर सकते है और व्यक्ति में उत्साह भर कर फिर से जीने की ललक भी पैदा कर सकते है | इसलिए हमें किसी पीड़ित के लिए लिखते समय इन चीज़ो पर ध्यान देना चाहिए |


    @ प्रवीण जी

    बहुत बहुत धन्यवाद | इस लेख के बाद बस ऐसे ही शुरुआत की जरुरत थी जो आप ने कर दी | इस बारे में मेरा ज्ञान तो काफी कम है इसलिए मैं कोई नया शब्द नहीं बता सकी आप ने वो कम कर दिया | एक बार फिर आप का धन्यवाद चाहूँगी की हिंदी के दूसरे बड़े जानकर भी इस तरफ ध्यान दे |

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  14. anshumala ji मैं आपकी इस बात सा पूरी तरह से सहमत हूँ कि हमें किसी बलात्कार पीड़ित के लिए शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए लेकिन सच कहूँ हम लोग चाहे किसी भी शब्द का उपयोग करें हमारे एशियाई समाज में यौन शोषण का शिकार हुई महिला का सम्मान कभी वापस लौट के नहीं आ सकता. इसलिए मैं चाहता हूँ कि जो महिला बलात्कार का शिकार हुई हो उसका नाम कभी भी सार्वजनिक किया ही नहीं जाना चाहिए. ऐसी महिला कि पहचान को गोपनीय रखे जाने का पूरा प्रयास किया जाना चाहिए और बलात्कारी के तो नाक कान ही काट लिए जाने चाहिए.

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  15. आपकी बातों से पूर्ण सहमति

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  16. सबसे जरुरी बात हैं कि हम उसको गलत माने , उसको मुजरिम माने जिसने बलात्कार / यौन शोषण / मोलेस्टेशन किया हैं । समाज गलत उसको मानता हैं जो पीड़ित हैं । इज्ज़त एक ऐसा शब्द हैं जिसकी कोई परिभाषा नहीं हैं । भारतीये समाज मे "इज्जत " का कोई मतलब रह नहीं गया हैं । आज भी गलती उस लड़की कि मानी जाती हैं जो रात को देर से काम से लौट कर आयी । नॉएडा रेप केस कि विक्टिम देश छोड़ कर चली गयी इतनी धमकिया मिली । मातू केस मे रेपिस्ट कि शादी कर दी गयी और एक लड़की भी हैं उसके इस लिये कम सजा चाहिये ।

    हम किसी को किस नाम से बुलाते हैं इस से भी ज्यादा जरुरी हैं कि हम अपने दिमाग मे उसके लिये क्या सोचते हैं ?? हम सब एक असम्वेदनशील समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं । ब्लॉग के जरिये हम अपनी सोयी आत्माओ को जगा सके तो इस से बेहतर उपयोग इस माध्यम का नहीं हो सकता

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  17. अंशुमाला जी ,
    बहुत ही सही और सार्थक मुद्दा उठाया आपने । मेरे ख्याल से अब तक के अपने अनुभव और अदालती अनुभव भी , के अनुसार तो बलात्कारियों को मौका देख कर भीड के हवाले कर देना चाहिए जो मिनटों में ही मार मार कर उनके चीथडे कर दे ,और पुलिस को भी इसमें पर्याप्त सहयोग देना चाहिए , क्योंकि हैवान ये नहीं देखते कि शिकार पुलिस वाले का संबंधी है कि डाकू , मगर फ़िर भी हर बार निशाने पर गरीब और आम आदमी ही रहता है । मन व्यथित हो जाता है इन घटनाओं के बारे में पढ कर देख कर

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  18. @ दीप जी, रचना जी

    आप सही कह रहे है समाज की सोच ही ऐसी है पर हम कोशिश तो कर सकते है कि लोगों की सोच कुछ तो बदले जब हम ऐसे शब्दों का इस्तमाल ही रोक देंगे जिसने पीड़ित को ही अपराधी माना जाये या इस अपराध को पीड़ित के सम्मान के साथ जोड़ा जाये तो उम्मीद कर सकते है कि आने वाली पीढ़ी पर इसका असर होगा और वो पीड़ित को इस नजर से नहीं देंखेंगे | कानून के हिसाब से तो आज भी पीड़ित के नाम गोपनीय ही रखे जाते है लेकिन आस पड़ोस वाले या रिश्तेदारों तक तो ये खबर पहुच ही जाती है और पीड़ित का सामना उन्ही से ज्यादा होता है |

    रही बात सजा की तो मुझे लगता है की यदि कानून अपना काम ठीक से करे तो काफी कुछ इसको रोका जा सकता है पर अपराधी को सजा ना मिल पाना या उसका ना पकड़ा जाना जहा अपराधी को यही अपराध दुबारा करने की हिम्मत दे देता है वही दूसरे लोगों की भी ये करने की हिम्मत बढ़ा जाता है | सामाजिक बहिष्कार तो होना ही चाहिए पर मुश्किल ये है जब इस तरह की घटना कोई अपना करीबी करता है तो हम उसकी बातो पर ज्यादा भरोसा कर उसे अपराधी नहीं मनाते है तो उसका बहिष्कार कैसे करेगे |


    @ मासूम जी

    धन्यवाद |

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  19. @ अजय जी

    चाहे पुलिस हो या आम आदमी इस मामले में सभी की प्रतिक्रिया अपराधी के हैसियत के हिसाब से होती है | यदि अपराधी कोई मामूली आदमी है तो तुरंत ही कार्यवाही हो जाति है और अपराधी कोई बड़ा आदमी तो देखिये पुलिस और जाँच एजेंसियों का रवैया, प्रियदर्शनी केस में हम देख सकते है उपरी कोर्ट द्वारा जब उसकी फंसी की सजा उम्रकैद में बदल दी तो सी बी आई ने समय से उसके खिलाफ अदालत में अपील ही नहीं की जबकि वो कहती रही थी की वो अपील करेंगे | तो ऐसी जाँच एजेंसियों से हम क्या उम्मीद कर सकते है |

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  20. आपके विचारों से सहमत्।

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  21. aapki baat se ham poora-poora ittefak rakhate hai.

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  22. सही कहा आप ने
    विचारणीय है आप का ये लेख

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  23. सिर्फ पोस्ट पर केंद्रित हूं। आपकी बात एकदम दुरुस्त है। समय के साथ इन शब्दों का का प्रयोग कई लोग नहीं कर रहे हैं। फिलहाल हमारे जैसे कई लोग हैं जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर इन शब्दों को प्रयोग काफी पहले से बंद कर रखा है। चाहे ब्लॉग हो या प्रकाशन का कोई भी माध्यम। धौलाकुंआ कांड पर फिलहाल पोस्ट नहीं लिखी थी, कुछ तथ्यों का इंतजार था, फिर पूरी तरह से फिल्ड में न होने के कारण और पेशेवर स्थिती के कारण इस पर इसे स्थगित कर दिया था। हां ये सही है कि टीवी की शब्दावली पुरी तरह से एकरुप लेने नहीं दी जा रही। पर इसमें समय लगेगा जबतक सरकार अन्य चैनलों को लाने की आम इजाजत नहीं देती। अभी पूंजी के बिना इस रास्ते पर सच्चे पत्रकार नहीं आ पा रहे।

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  24. बहुत ही अच्छी और सोंचनें को विवश करती पोस्ट. आपका नजरिया बिल्कुल सही है. हमने इस तरह किसी को आहात करने का हक़ नहीं.

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  25. Nice post .
    औरत की बदहाली और उसके तमाम कारणों को बयान करने के लिए एक टिप्पणी तो क्या, पूरा एक लेख भी नाकाफ़ी है। उसमें केवल सूक्ष्म संकेत ही आ पाते हैं। ये दोनों टिप्पणियां भी समस्या के दो अलग कोण पाठक के सामने रखती हैं।
    मैं बहन रेखा जी की टिप्पणी से सहमत हूं और मुझे उम्मीद है वे भी मेरे लेख की भावना और सुझाव से सहमत होंगी और उनके जैसी मेरी दूसरी बहनें भी।
    औरत सरापा मुहब्बत है। वह सबको मुहब्बत देती है और बदले में भी फ़क़त वही चाहती है जो कि वह देती है। क्या मर्द औरत को वह तक भी लौटाने में असमर्थ है जो कि वह औरत से हमेशा पाता आया है और भरपूर पाता आया है ?

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