May 26, 2022

देशभक्ति फिल्मे ,व्यवसाय या असली राष्ट्रवाद

सोचिये अगर आज के समय में मुगले आज़म फिल्म बनी होती तो एक वर्ग कहता की  फिल्म अकबर की छवि खराब करने के लिए बनायीं गयी हैं | महान अकबर को प्यार का दुश्मन बताया जा रहा हैं | वैसे आज के समय में मनोज कुमार ने उपकार फिल्म बनायीं होती तो उनको भी नहीं छोड़ा जाता |  कहा जाता सरकार का प्रचार कर रहें हैं उसका एजेंडा , नारा 'जय जवान जय किसान'  को बढ़ावा देने के लिए फिल्म बनायीं हैं , भक्त कहीं के |  


मनोज कुमार को  उनकी देश भक्ति वाली फिल्मो के लिए तब सम्मान से भारत कुमार का नाम दिया गया था | आज होते तो अक्षय की तरह उनकी खिल्ली उड़ायी जाती उनकी देशभक्ति वाली फिल्मो के लिए  | 


कोई भी फिल्म निर्माता निर्देशक किसी भी फिल्म का निर्माण माहौल देख कर करता हैं | उनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना होता हैं अपनी भावना दिखाना नहीं | इसलिए वो ये देखते हैं कि देश के लोग किस भावना में बह रहें हैं , वो इस समय किस तरह की फिल्मे पसंद कर रहें हैं | जिस समय काल में जिस तरह की फिल्मे चलती हैं लोग जैसी फिल्मे देखना पसंद करते हैं फिल्म वैसे ही बनते जाती हैं | जब तक कि दर्शक उसे देखना बंद ना कर दे बोर ना हो जाए | 


याद कीजिये एक समय डाकुओ और गांव के जमींदारों पर कितनी फिल्मे बनती थी | फिल्मो ने डाकुओ को लेकर लोगों की राय ही बदल दी थी | दर्जनों फिल्मो में डाकुओ को इतना  अच्छा दिखाया कि जनता की सहानभूति उनकी ओर हो गयी थी |  पता नहीं उन फिल्मो को देख कर कितने डाकुओ ने आत्मसमर्पण किया था  | 


उसके पहले के समय में ईश्वर भक्ति पर फिल्मे बनती थी क्योकि एक बड़ा दर्शक वर्ग  बाकी की फिल्मो को ख़राब और भगवान वाली फिल्मो को अच्छा मान उन्हें देखने जाता था | उस समय काल में शायद ही कोई भगवान बचे हो जिन पर फिल्म ना बनी हो | मेरे दादा जी ने सिनेमा हाल में दो चार फिल्म ही देखी थी सब भगवान भक्ति वाली ही थी | 

रामगोपाल वर्मा ने अंडरवर्ड वाली फिल्मो से पैसा बनाया | उन्होंने ने भी गैंगस्टर और अंडरवर्ड डॉन की  भी खूब छवि बदलने  की कोशिश की | उस समय तो कुछ फिल्म निर्माता सीधे पाकिस्तान दुबई फोन कर वहां छुपे  डॉन से फिल्म के लिए प्लॉट तक ले रहें थे और उनके ही पैसे से फिल्म बना रहें थे | 


खेल और खिलाडियों की बॉयोपिक का भी दौर था और फिल्म तो बस शाहरुख और सेक्स पर बिकेगी का भी दौर था | कम उम्र वाली प्रेम कहानियां तो सिर्फ संगीत के बल पर चलने वाली फिल्मो का  भी दौर था |  संगीतमय प्रेम कहानियां देख जब लोग बोर होने लगे तो आया एंग्री यंग मैन वाला समय  | वो दौर शुरू हुआ  डिशुम ढिशुम वाले एक्शन का दौर | 


जो कॉमेडी कभी फिल्मो का एक छोटा हिस्सा होती या एक दो फिल्मे ही हास्य पर आती एक समय कॉमेडी फिल्मो का रेला लग गया | फिर कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता , अश्लीलता शुरू हो गयी तो वो भी बिदा हो गया | आर्ट फिल्मो का एक दौर था सालो बाद वो समान्तर फिल्मो के नाम से वापस आया | फिर वही कम बजट रियलिस्टिक फिल्मो के नाम से पुकारा जाने लगा | सबका दौर समय आता हैं और फिर चला जाता हैं | 


मनोज कुमार के बाद आज का समय फिर से देशभक्ति काल हैं साथ में ऐतिहासिक चरित्रों पर बनी फिल्मो का समय  | सभी फिल्मकारों को पता हैं जनता आज एक ही भावना में बह रही हैं और वैसी ही फिल्मे लोग देख रहें हैं | जब राष्ट्रवादी देशभक्ति वाली फिल्मे  पैसे ला रही हैं तो क्यों नहीं वैसे ही फिल्मे बनाया जाए जिसमे पैसे वापस आने की गारंटी हो  |


कहने का मतलब बस इतना हैं कि किसी भी तरह की फिल्मो का दौर  किसी निर्माता , निर्देशक , कलाकार की भावना को व्यक्त नहीं करते असल में वो बताते हैं कि दर्शक वर्ग उस समय में किस भावना में बह रहा हैं | तो जब तक बड़ा दर्शक वर्ग ऐसी फिल्मो से ऊब ना जाए ये बनती रहेंगी | 


मनोरंजन के नाम पर कुछ ऐसा देखना पसंद हैं तो देख आइये ऐसी फिल्मे नहीं पसंद हैं तो मत जाइये लेकिन उसमे इतिहास , भूगोल , विज्ञान , सच्चाई मत खोजिये | अब वो चाहे फिल्म के समर्थक हो या विरोधी | 

#सिने_माँ  



2 comments:

  1. बिल्कुल सही विश्लेषण ।

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  2. सही कहा है आपने। फिल्म आर्ट होने के साथ साथ व्यापार है इसलिए सोच समझ कर ही चीजें को हरी बत्ती दिखाई देती है। फिर भी चूँकि इनका असर व्यापक होता है तो एक जिम्मेदारी तो बनती ही है फिल्ममेकर की। जब वह इस जिम्मेदारी से विमुख होने लगता है तो मुझे लगता है टोका जाना चाहिए।

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