आज कल बड़े जोर शोर से सभी टीवी चैनलों पर भारत का निर्माण हो रहा है और इस निर्माण पर करोड़ो रूपये खर्च कर रही है वो सरकार जो कहती है की उसके पास जनता को सब्सिडी देने के लिए पैसे नहीं है , अब कोई पुछे की सरकार की छवि निर्माण के लिए किस पेड़ से पैसे आ रहे है ( उस पेड़ का नाम है आम जानता की जेब ), शायद राजनीति में सबक लेने की परम्परा नहीं है यदि होती तो मौजूदा सरकार पूर्व में इण्डिया शाइनिंग का हाल देख कर ये कदम नहीं उठाती | बचपन में नागरिक शास्त्र की किताब में पढ़ा था की किसी देश की सरकार का काम बस लोगों से टैक्स वसूलना और खर्च करना नहीं होता है उसका काम ये भी है की अपने देश में रह रहे गरीब ,असहाय लोगों को हर संभव मदद भी करना और उनके लिए जीवन की प्राथमिक जरूरतों को पुरा करना , सब्सिडी उसी के तहत आती है ताकि गरीब लोगों तक भी उन सुविधाओ को पहुँचाया जा सके जो उनके बस में नहीं है , सरकार ये काम देश से आंकड़े जुटा कर करती है किन्तु जब सरकार के आकडे ही सही नहीं है तो वो ठीक से योजनाए कैसे बनाएगी , ३२ रु रोज कमाने वाले को गरीब ना मानने वाली सरकार भला गरीबो के लिए क्या करेगी | विश्व बैंक का दबाव है की सब्सिडी ख़त्म की जाये किन्तु समस्या सब्सिडी नहीं है समस्या ये है की सही लोगों को सब्सिडी नहीं मिल रही है | महंगाई को सबसे ज्यादा बढ़ाने का काम करता है डीजल की बढ़ती कीमते क्योकि डीजल की कीमत बढने के साथ ही सभी सामानों की माल ढुलाई का खर्च बढ़ता है और एक ही बार में सभी चीजो के दाम बढ़ जाते है | प्रयास तो ये करना चाहिए था की डीजल की खपत कम किया जाये उसे केवल कुछ जरुरी कामो के लिए प्रयोग किया जाये ना की महँगी बड़ी गाडियों के लिए या बिजली के उत्पादन आदि के लिए , होना तो ये चाहिए था की बाजार में सभी डीजल गाडियों और एक के बाद एक आ रही बड़ी महँगी डीजल गाडियों पर बड़ा टैक्स लगाना जाये ,( कुछ आर्थिक सलाहकारों ने यही राय दी थी किन्तु सरकार ने उसे माना नहीं क्यों वही बेहतर बता सकती है ) इससे सरकार की आमदनी भी बढ़ती और लोग डीजल गाड़िया लेने से परहेज करते उसकी खपत कम होती और सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम होता , इसी तरह डीजल के अन्य गैर जरुरी प्रयोगों को रोक कर सब्सिडी के बोझ को कम किया जा सकता था, किन्तु सरकार ने बड़ी कार कंपनियों को नाराज करने के और महँगी गाड़िया खरीदने वालो पर टैक्स का बोझ डालने के बजाये एक आसान रास्ता अपनाया की डीजल की ही कीमत बढ़ा दिया जाये और पूरे देश को हर रूप में इसका बोझ सहने के लिए मजबूर किया जाये |
यही काम उसने गैस पर दी जा रही सब्सिडी पर भी किया , कहने को वो सब्सिडी दे रही है किन्तु जिसे मिलना चाहिए उसे मिल ही नहीं रहा है | साल में मुझे ६ सिलेंडरो की जरुरत होती है जो मौजूदा नियम के अनुसार मुझे सब्सिडी वाली मिल जाएगी किन्तु बेचारी मेरी गरीब काम वाली बाई जिसे साल में ९ से १२ सिलेंडर की जरुरत है उसे पूरी सब्सिडी नहीं मिल रही है , हाल में ही आर टी आई के जरिये पता चला की एक बड़े उधोगपति , सांसद जिन्हें कोल ब्लोक भी मिला था उन्हें साल में करीब ७०० से ऊपर सब्सिडी वाले सिलेंडर मिल रहे थे , इसे देख कर आप समझ सकते है की योजनाओ में कितनी गड़बड़ी है सब्सिडी असल में मिलना किसे चाहिए था और मिल किसे रही है, क्या कोई उद्योगपति सांसद या जिनकी आय साल में १० लाख रूपये से ऊपर है इस लायक होता है की उसे एक भी सब्सिडी वाला सिलेन्डर मिले , लेकिन जो नियम अभी सरकार ने बनाया है इससे भी उन्हें ६ सब्सिडी वाले सिलेंडर तो मिलेंगे ही, इस नियम से सिलेंडरो की कालाबाजारी ही ज्यादा होगी , साथ ही ये नियम कम से कम भारत जैसे देश में जहा संयुक्त परिवार की परम्परा है वहा के लिए तो बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है जहा माता पिता बच्चो के साथ ही रहते है , कुछ समय पहले पढ़ा था की अब से एक पते पर बस एक ही गैस कनेक्शन मिलेगा ये बड़े शहरों में एकल परिवारों के लिए तो ठीक है किन्तु छोटे शहरो और गांवो में जहा संयुक्त परिवार है या एक ही घर में कई भाई रहते है वहा के लिए ये नियम कैसे ठीक होगा | समझ नहीं आता की सरकार में बैठे लोग जो नियम कानून बनाते है उन्हें भारतीय परिवेश रहन सहन की कोई भी जानकारी है भी या नहीं | एक टीवी चैनल पर सुना की सरकार कहती है की देश में २८ % लोग ही एल पी जी का प्रयोग करते है और जिसमे से आधे से ज्यादा शहरी लोग है यदि ये खबर सही है तो आप अंदाजा लगा सकते है की सरकार के पास कितने गलत आंकड़े है और गलत आंकड़ो के साथ वो गलत नियम ही बनाएगी |
नीति नियम बनाने वाले क्या, सरकार की प्राथमिकता तय करने वाले भी भारत के बारे में और उसकी प्राथमिकता के बारे में कितना जानते है उस पर भी शक होता है, एक तरफ देश में एक के बाद एक राज्य में कुपोषण की खबरे हमें शर्मसार कर रही थी वही यु एन के रिपोर्ट ने तो हमें पाकिस्तान और अफ़्रीकी देशों से भी गया गुजरा बता दिया कुपोषण के मामले में , जहा सरकार की प्राथमिकता भूख कुपोषण से मर रहे लोगों तक भोजन पहुँचाने की होनी चाहिए थी वहा सरकार किराना में एफ डी आई लाने के लिए अपनी सरकार ही दांव पर लगाने के लिए तैयार थी | सरकार के चिंता का विषय गरीब भूखे लोग नहीं बल्कि वो है जिन्हें कभी अपने खाने पीने की चिंता करने की जरुरत ही नहीं होती है और सरकार उनकी चिंता में मरी जा रही है ( असल में तो उन लोगों की भी चिंता नहीं है असल चिंता तो अमेरिकी कंपनिया उनके हित और अमेरिका में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव है ) | वो सरकार जो खुद कई बार अपने किसानो को उनकी फसलो का ज्यादा दाम देने के बजाये विदेशो से सडा गला अनाज कई गुना महंगे दामो पर खरीद कर लाती है वो उम्मीद कर रही है की कोई विदेश कंपनी उनके किसानो को उचित दाम दे कर रातो रात अमीर बना देगी , मतलब गरीबी हटाओ का उनका नारा कोई विदेशी कंपनी पुरा करेगी , और वो अपना मुनाफा छोड़ कर ऐसा क्यों करेगी इसका जवाब तो सरकार ही दे सकती है | यदि किसानो के भले का तर्क देने वाले भारत के किसानी का हाल देखते तो ऐसा नहीं कहते , शायद उन्हें पता नहीं है की गरीब वो किसान नहीं है जिनके पास सैकड़ो एकड़ जमीने होती है या जो आधुनिक खेती करते है जिनकी संख्या काफी कम है गरीब वो किसान है जिनके बस दो चार बीघा जमीन है और पैदावार बहुत कम जिनकी संख्या देश में लाखो है , पता नहीं ये वालमार्ट वाले कैसे एक एक छोटे किसान के पास सीधे जा कर उनसे माल खरीदेंगे जो आज तक हमारे भारतीय व्यापारी नहीं कर पाये वो भी सीधे खरीद कर ज्यादा माल कमा सकते थे | ये भी समझ नहीं आता की यदि रिटेल में एफ डी आई इतना ही भारतीय उपभोक्ता के लिए फायदे मंद है और वो महंगाई को जमीन पर ला देगी ( ये काम भी हमारी सरकार नहीं कर पाई वो तो बस तारीख पर तारीख देती रही और महंगाई बढ़ती रही उसके लिए भी आउट सोर्सिंग की जा रही है की २०१४ चुनावों तक सस्ते माल बेच दो उसके बाद जो चाहे करते रहना कौन पूछने वाला है यहाँ ) तो फिर १० लाख लोगों वाले शहर तक की इसे क्यों सिमित किया जा रहा है इसे पूरे भारत में लागु करना चाहिए था, केवल बड़े शहर ही क्यों सस्ते समान का लाभ ले , छोटे शहरो गांवो के लोगों को भी इसका फायदा मिलना चाहिए , साथ में जितना माल बेचेंगे उतना हमारे किसान खुशहाल होंगे ( जो वालमार्ट खुद अमेरिका में भी चीनी सस्ते समान बेचता है वो हमारे यहाँ हमारे लोगों से समान ले कर बेचेगा, ३०% समान भारत से खरीदने की सर्त का क्या हाल होता है वो किस रूप में प्रयोग होता है वो भी दिख जायेगा ) |
जो सरकार लोकपाल, महिला आरक्षण जैसे अनेको बिल को आम सहमती के नाम पर लटकाए रहती है वो इन मुद्दों पर आम सहमती बनाने की जरुरत नहीं समझती है बल्कि अपनी सरकार तक को दांव पर लगा देती है और रातो रात काम होता है नोटिफिकेशन जारी हो जाता है | यदि सरकार देश से महंगाई , भ्रष्टाचार , कुपोषण आदि समस्याओ को ख़त्म करने की इतनी इच्छा शक्ति दिखाती तो देश कहा से कहा पहुंचा गया होता | करीब १०-१२ साल पहले एक खबर पढ़ी थी की अमेरिका के एक कस्बे में वालमार्ट अपना स्टोर खोलना चाह रहा था, तो वहा के प्रशासन ने पहले लोगों से राय जानने के लिए इस मुद्दे पर वोटिंग कराई और ९०% लोगों ने स्टोर खोलने का विरोध किया और कहा की वो यहाँ के छोटे स्टोर चला रहे लोगों के हितो को अनदेखा नहीं कर सकते है , क्या भारत में कभी ऐसा हो सकता है , शायद कभी नहीं यहाँ तो हम एक बार वोट देने के बाद अपने हाथ और जबान कटवा लेते है ५ साल के लिए |
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनके जन्मदिन पर ढेरो बधाई और अपने जन्मदिन के पहले ही वोट के बदले हम जैसो को रिटर्न गिफ्ट में इतना कुछ देने के लिए धन्यवाद !
चलते चलते
इधर सरकार ने सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरो की संख्या कम की उधर बाजार में अचानक से राजमा , मटर, बैगन , गोभी की मांग आसमान छूने लगा , असल में लोगो ने महंगे सिलेंडरो को देखते हुए तय किया की वो बाकि के गैस का उत्पादन खुद कर लेंगे !
इस सबका वास्तव में आखिर जिम्मेदार है कौन क्या केवल सरकार ? मुझे नहीं लगता इस सबके जिम्मेदार कहीं न कहीं हम खुद भी हैं जैसा कि आपने खुद ही लिखा यहाँ तो हम एक बार वोट देने के बाद अपने हाथ और जबान कटवा लेते है ५ साल के लिए इतना ही नहीं बहुत लोग तो वोट देते भी नहीं और जो देते हैं वो पता नहीं क्या सोचकर देते हैं और नतीजा सामने है देश कि वर्तमान स्थिति मेरे हिसाब से तो इस सब के लिए केवल सरकार को दोषी ठहराया जाना गलत है।
ReplyDeleteपल्लवी जी
Deleteसमस्या ये है की हमारे पास बेहतर विकल्प नहीं है दो बड़ी पार्टिया है ज्यादातर मुद्दों पर दोनों की एक सी राय है और काम भी वो मिली भगत करके करते है , बाकियों का भी वही हाल है , दूसरे जनता तो भागीदारी करना चाहती है किन्तु वोट मिलने के बाद कोई उसके बारे में सोचता ही नहीं उससे कोई राय ही नहीं लेता तो वो क्या करे |
पूरे आलेख के साथ चलते चलते ने कमाल पर धमाल कर दिया :).
ReplyDeleteधन्यवाद !
Deleteजोरदार।
ReplyDeleteपर असरदार हो तब ना !
Deleteअंशुमाला जी,
ReplyDeleteइस तरह के मुद्दों पर तो सहमति खरीद ली जाती है, इनकी एकता तो तब देखते बनती है जब इनकी खुद की तनख्वाह बढ़ाने का समय आता है. कहाँ का विरोध, कहाँ के विरोधी.. और जनहित के विधेयक बिखर जाते हैं ये लोग.. बस और क्या चाहिए.. हो रहा भारत निर्माण!!
मगर चलते-चलते वाले सिलिंडर ने तो ज़बरदस्त धमाका किया है!! कई लोगों को ख्याल रखना पडेगा कि कहीं सोते में टेक-ऑफ न हो जाए और बिना पासपोर्ट/वीजा के अंकल सैम की गोद में जा गिरें!!
Deleteजनहित के विधेयक तो बस हाथी के दांत होते है जो बस जनता को दिखाने के लिए होते है |
तब तो अंकल सैम को भी समझ आ जायेगा की भारतीय कितने जुगाडू होते है :)
आज तो धो डाला ... जय हो !
ReplyDeleteकुछ तो फर्क है, कि नहीं - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
बुलेटिन में मेरे ब्लॉग शामिल करने के लिए धन्यवाद !
Deleteलोग कहते हैं कि शिक्षा से ही देश को सही ढंग से चलाया जा सकता है लेकिन यहां तो अर्थशास्त्री स्वयं बिराजमान हैं फिर पूरा ही अर्थतंत्र फेल कैसे हो गया? देश के प्रति प्रतिबद्ध लोगों की आज आवश्यकता है। इसके लिए समग्र क्रान्ति की आवश्कता है। लेकिन भूखी-नंगी जनता क्रान्ति कैसे कर सकती है बस चन्द टुकड़ों के खातिर बिक जाती है।
ReplyDeleteजो शिक्षा प्रधानमंत्री जी ने लिया है वो उद्योगपतियों को समृद्ध करने के लिए लिया है गरीबो के लिए नहीं , वो जी डी पी को देखते है , कुपोषण से उन्हें कोई मतलब नहीं है |
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ReplyDeleteइसमें कई बातें हैं... पहली बात तो यह कि 6 सिलेंडर संयुक्त परिवार के लिए नहीं है बल्कि एकल परिवार के लिए है... कानूनन परिवार का मतलब पति-पत्नी और बच्चे ही होता है... हालाँकि आपका कहना सही है कि अमीरों को 6 सिलेंडर पर भी सब्सिडी क्यूं दी जाए? हालाँकि मेरा मानना तो यह है कि सब्सिडी किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए... बल्कि गरीबों के लिए अलग से प्रोग्राम चलाने चाहिए... सब्सिडी जैसे प्रोग्राम में हमेशा ही भ्रष्ठ व्यापारियों और अफसरों को ही फायदा होता है...
ReplyDeleteजहाँ तक डीज़ल के रेट कम करके डीज़ल गाड़ियों पर टेक्स बढाने की बात है... तो यह भी व्यवहारिक नहीं है... और ऐसा भी नहीं है कि डीज़ल का प्रयोग केवल कारों में ही होता है, बल्कि लोग बिजली के लिए जेनरेटरों में तथा अमीर ट्रांसपोर्टर्स भी सब्सिडी के डीज़ल का प्रयोग करके मोटा मुनाफा कमाते हैं... अगर आप देखेंगे तो पाएंगी कि डीज़ल के रेट केवल पांच रूपये बढ़ें हैं जिससे कि किसी 100 रूपये की वस्तु पर हद से हद 30 पैसे तक ट्रांसपोर्ट का अतिरिक्त भार पड़ेगा, लेकिन व्यापारियों ने कहीं कहीं तो 20-25 प्रतिशत तक रेट बढ़ा दिए हैं.... क्योंकि इस नेचुरल प्रोसेस को बहुत अधिक हाईप कर दिया जाता है...
मेरा तो यहाँ भी यही मानना है कि जो भी वास्तविक रेट हैं, उपभोक्ताओं से वही लेने चाहिए... वैसे भी डीज़ल के रेट कम होंगे तो डीज़ल कम्पनियाँ नुक्सान में जाएंगी... जहाँ तक महंगाई बढ़ने की बात है तो उससे बचने के लिए डीज़ल पर सब्सिडी जैसे कृतिम उपाय छोड़ कर, दूसरे उचित विकल्प ही अपनाने चाहिए... जैसे कालाबाजारी को रोकना इत्यादि...
तीसरी बात यह कि आज के वैश्वीकरण के युग में बाहर की कंपनियों को इस डर के कारण रोकना कि हमारे व्यवसाय बर्बाद हो जाएँगे, सही बात नहीं है... बल्कि आज के परिप्रेक्ष में तो केवल हौव्वा खड़ा करना मकसद भर है... अगर हमारी कम्पन्यों को बर्बाद होने का खतरा होता तो सबसे पहले भारतीय कम्पनियाँ एफ.डी.आई. का विरोध करती लेकिन ऐसा नहीं है... हाँ यह अवश्य है कि मुकाबला करने में जो उनकी कमजोरियां हैं सरकार को उसमें उनकी मदद करनी चाहिए....
और हाँ .. वालमार्ट छोटे किसानो से सीधे माल नहीं खरीदने वाला है... वह केवल बड़े किसानो से या फिर छोटे-छोटे किसानो के समूहों से ही खरीदारी करता है... और ऐसा इसलिए है कि उसने विश्व की सर्वाधिक मजबूत सप्लाई चैन विकसित की है... जिसके कारण वह किसानो से सीधे माल खरीदकर अपनी दुकानों में आसानी के साथ डिस्ट्रीब्यूट कर देता है और शायद ऐसा वह अधिक डिमांड के कारण भी आसानी से कर पाता है. हालाँकि भारतीय कम्पनियाँ भी इस माडल पर चल सकती हैं, लेकिन उसके लिए बहूत महनत और बेहतरीन योजनाएं बनाने की आवश्यकता है... और अभी भी छोटे स्तर पर कई भारतीय कम्पनियाँ ऐसा कर भी रही हैं... जहाँ तक दस लाख तक की आबादी की बात है तो ऐसा फैसला केवल राजनीती के कारण लिया गया है... वैसे भी वालमार्ट बड़े शहरों में ही अपने स्टोर खोलना चाहेगा जहाँ अधिक ग्राहक मिल सकें.... क्योंकि उनका कम मार्जिन का फंडा भी अधिक विक्रय होने पर ही सफल हो पाता है...
शाह नवाज जी
ReplyDeleteफिर से एक बार पता करे इस एकल परिवार में माता पिता भी आते है अविवाहित बच्चे भी , और भारत जैसे देश में ३ से ६ बच्चे होना बड़ी आम बात है खासकर गरीब घरो में | गरीबो के लिए अलग से ना जाने कितने कार्यक्रम चल रहे है सब भ्रष्टाचार की भेट चढ़ते है , वो भी सरकार दूर नहीं करती है , दूसरे माध्यम वर्ग के लिए ये बोझ सहना भी आसन नहीं है , उससे अच्छा होता की सरकार कई दूसरी जगहों से पैसे निकलवाती जैसे २ जी , कोयला आदि की नीलामी करा कर , और भ्रष्टाचार को रोकने की इच्छा शक्ति दिखा कर , तब पैसे की कोई कमी नहीं होती |
डीजल गाडियों पर टैक्स लगाना कैसे अव्यवहारिक हो सकता है जरा विस्तार से बताइये , क्योकि मुझे लगता है ये ज्यादा व्यवहारिक होता और सब एक नंबर में होता , कुछ समय पहले यदि आप ने खबरों को देख होगा तो ये बाते आ रही थी , बिजली उत्पादन की बात मैंने भी लिखी है किन्तु सरकार उसे भी नहीं रोकती है क्योकि वो काम भी रसूख वाले ही करते है , गरीब नहीं और उन पर सरकारे हाथ नहीं डालती है , ट्रांसपोटर को सब्सिडी का क्या लाभ मिल रहा है , सब्सिडी का पैसा उसके जेब में नहीं जाता है वो अपनी लागत और मुनाफे के हिसाब से ही पैसा वसूलता है डीजल पर सब्सिडी हटा दीजिये उसे थोड़े ही कोई नुकशान होगा वो सीधे दाम बढ़ा देंगे , और आप सरकार के ३२ रु वाला गणित लगा रहे है , ट्रांसपोटर के लागत में हर दूसरे चौराहे पर हफ्ते के लिए खड़े पुलिस वालो का खर्च , ख़राब सड़को के कारण हो रहे नुकशान और देरी का खर्च और बढ़ती महंगाई में उसके और ड्राइवर के परिवार का खर्च भी जोडीये |
मुझे तो ये बात समझ नहीं आती की सरकारे डीजल आदि पर क्या सब्सिडी दे रही है , आप को पता है की केंद्र और राज्य सरकारे मिल कर पेट्रोलियम पदार्थो पर कितना टैक्स लेती है , एक तरफ वो हम से भारीभरकम टैक्स ले रही है दूसरी तरफ कहती है की सब्सिडी दे रही है | महंगाई रोकने का उपाय सरकारे कर पाती तो बात ही क्या थी , सरकार तो हर मोर्चे पर फेल है |
आप से किसने कहा की बाहरी कंपनियों के आने से हमारी कंपनिया बर्बाद हो जाएँगी , छोटे किराना व्यावसायिको की बात की जा रही है , कंपनिया तो खुश होंगी क्योकि इससे तो उन्हें पूंजी मिलेगी कितनी ही भारतीय कंपनिया कम पूंजी के कारण और घाटे के कारण अपना स्टोर बंद कर चुकी है , देखिएगा नये स्टोरों की जगह वही बंद हो चुकी स्टोरों को ही मील कर दोनों कंपनिया चलाएंगी |
किसानो को लेकर मैंने भी कही है की हमारे देश के जो असल में गरीब किसान है जिनकी संख्या ही सबसे ज्यादा है तो आत्महत्या करने को मजबूर है उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला है जिनके फायदे के नाम पर वालमार्ट को बुलाया जा रहा है , और ना ही दलालों से छुटकारा होने वाला है ये दलाल ही किसान से सस्ते में खरीद कर वालमार्ट को मुनाफा ले कर बेचेंगे किसान की हालत वही की वही रहेगी , और उपभोक्ता और छोटे कंपनियों की हालत क्या होगी उसकी एक झलक आप को रविश जी के ब्लॉग क़स्बा पर मिल जायेगा जहा वो बता रहे है की कुछ साल पहले तक आशीर्वाद आटे ने कैसे अपनी बड़ी पूंजी से घाटा सह कर कुछ छोटे कंपनियों की कमर तोड़ी और उसके बाद अपने दाम दुगने के बराबर कर सब माल वापस पा लिया , मतलब ना उपभोक्ता को फायदा ना इसनो को |
@वैसे भी वालमार्ट बड़े शहरों में ही अपने स्टोर खोलना चाहेगा जहाँ अधिक ग्राहक मिल सकें.... क्योंकि उनका कम मार्जिन का फंडा भी अधिक विक्रय होने पर ही सफल हो पाता है...
बिल्कुल सहमत वही बात तो मै भी कह रही हूँ की ये हमारे भले के लिए नहीं उनके हितो के लिए लाया जा रहा है
पूरी व्यवस्था ही चौपट है...नेताओं को कब से फिकर होने लगी..देश हित और जनता के हित की.....
ReplyDeleteनीति नियम बनाने के पीछे बहुत सी लॉबीयाँ काम करती हैं और बस उनके और अपने हित का ही ध्यान रखा जाता है.
जबतक शिक्षित..समर्पित लोग देश की बागडोर नहीं संभालेंगे ..अधिक से अधिक संख्या में उस राजनीति की कीचड़ में पैर रखने को तैयार नहीं होंगे ,उनकी मनमानी हमें मन मार कर सहती ही रहनी पड़ेगी.
शिक्षित लोगों की क्या कमी है राजनीति में हा देश के लिए समर्पित लोगों की है |
Deleteहर हथकंडा सिर्फ इनके अपने स्वार्थ से जुड़ा है..... भारतीय जनता सच में बेचारगी का अहसास करती है इन लोगों के ऐसे निर्णयों पर ..... सार्थक लेख
ReplyDeleteऔर ५ साल का इंतजार करती है |
Deleteअब ज़माना दूरदर्शन का नहीं रहा। लोगबाग राजनीतिक विज्ञापनबाज़ी से काफी हद तक अप्रभावित रहते हैं। इंडिया शाइनिंग का हश्र हम देख चुके हैं। कांग्रेस भी भारत निर्माण का हश्र भुगतेगी,ऐसी उम्मीद इसलिए जगी है कि अब समाचार माध्यमों की पहुंच पहले से कहीं ज़्यादा है और उनमें से कइयों ने जागरूकता प्रसार में अच्छी भूमिका निभाई है।
ReplyDeleteप्रभाव तो नहीं पड़ता है किन्तु वो करोडो रूपये जो खर्च किये जा रहे है वो तो हमरा पैसा है ना |
Deleteजनता से आनेवाले टैक्स का पेड है ना ।
ReplyDeleteपेड़ हमारा और फल कोई और खा रहा है |
Deleteशायद किसी को याद आ जाए, बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक नाटक की रिहर्सल को बेस बनाकर एक नाटक आया था, जिसमें एक पात्र का काम था बैकग्राउंड में वायलिन बजाना| बाकी सब अपना अपना पार्ट प्ले करते रहते थे और वो सरदारजी इशारा किये जाने पर वायलिन बजाने लगते थे| वो बोर हो रहे थे तो बीच बीच में नींद की झपकी आ जाती थी, फिर कोई उन्हें झकझोरता तो वो एकदम से चौंककर वायलिन बजाने लगाते| मजा तब आया जब वो सो गए और उधर से चाय वाला सबके लिए चाय लेकर आया| सोये हुए सरदारजी को जैसे ही उसने चाय देने के लिए हिलाया, वो एकदम से चौंककर वायलिन बजाने लगे|
ReplyDeleteनाटक ही चल रहा है, सब पूरी ईमानदारी से जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं| सरदारजी पूरी ईमानदारी से वायलिन बजाने में जुटे हुए हैं, साल छह महीने में एकाध बात बोल देते हैं और उसी पर सारे उनकी बात पकड़ लेते हैं, बहुत नाईंसाफी है|
रातों रात जो दृढ़ता दिखी है, उसमें जनता की गर्दन पर दबाव बना देने की रणनीति भी है, एक तो जनता का ध्यान बंटेगा और दूसरे चुनाव से पहले गर्दन पर पकड़ थोड़ी सी ढीली कर दी जायेगी| सांस आने लगेगी तो हम आमपीपल पिछले चार साल की टंगी भुलाकर चैन की सांस लेंगे और फिर से ऐसा करेंगे कि ये नाटक बार बार चलता रहे|
संकट है तो सरकार का लाव लश्कर ख़त्म किया जाए, देखिये कितनी बचत होगी|
चलते चलते के हिसाब से ENO की बिक्री बिलकुल बंद हो गयी होगी )
पैसे का रोना रो रहे प्रधानमंत्री तीन साल पूरे होने पर डिनर पार्टी करते है और ७७०० से ऊपर की एक प्लेट खाना खिलाते है सैकड़ो मेहमानों को :(
Deleteयदि सरकार देश से महंगाई , भ्रष्टाचार , कुपोषण आदि समस्याओ को ख़त्म करने की इतनी इच्छा शक्ति दिखाती तो देश कहा से कहा पहुंचा गया होता |
ReplyDeleteबिलकुल सच बात .....सरकार अगर ईमानदारी से देश का भला करना चाहे तो भला क्यों नहीं होगा ...किन्तु वोट की राजनीती से ऊपर कोई सोचता नहीं ...!!
पैसे आम भारतीय पेड़ों पर नहीं एग्ज़ाटिक विदेशी पेड़ों पर लगते हैं.
ReplyDeleteघुघूती बासूती