December 31, 2016

राजनीति के घोड़े की अढाई चाल -------mangopeople



                                                     राजनीति में किसी भी चीज और फैसलो पर न तो ज्यादा आश्चर्य करना चाहिए और न ही ये सोचना चाहिए की जो हो रहा है वही सत्य है | कई बार उसके मायने बहुत अलग अलग और कई सारे होते है और निशाने पर कोई और होता है | जिन्हें लगता है कि यूपी चुनाव का तिराहा ( सपा बसपा ,बीजेपी ) अब चौराहा बनाने वाला है ( २-सपा ) तो उन्हें अभी इंतजार करना चाहिए , चुनाव के आधिकारिक धोषणा तक | ये कमाल की बात नहीं है की आज से मात्र ५ साल पहले तक हम जिस सपा को उसकी जातिवादी , अल्पसंख्यक तुष्टिकरण , और बाहुबलियों गुंडों का पार्टी के रूप में जानते थे अचानक से वो पार्टी आज विकासवादी नजर आ रही है | ये विकास आदि पिछले ५ सालो तक इस तरह उभर के सामने नहीं आ रहा था जैसा की अब दिखाया जा रहा है , अब से पहले तक उसकी वही पुरानी छवि ही थी | यही करना है कि विकास के नाम पर केंद्र कि सत्ता पाने वाली बीजेपी भी यहाँ ध्रुवीकरण कि राजनीती कर रही थी |

                                                  किन्तु अचानक से अंसारी बंधुओ और अतीक अहमद जैसो का विरोध कर अखिलेश ने बीजेपी को सकते में ला दिया और विरोध भी इतना प्रबल की परिवार में ही दंगल की स्थिति हो गई | अब बीजेपी के ध्रुवीकरण की राजनीति का क्या होगा , जो अंसारी , अतीक अहमद के धर्म और उनके आपराधिक कार्यो को जोड़ सपा के मुस्लिम तुष्टिकरण से अपनी राजनीति चला रहे थे | अखिलेश ने एक झटके में इन दोनों का विरोध कर एक ही बार में उसकी राजनीति की हवा निकाल दी | सन्देश साफ दिया की पिता की तरह उनके लिए धर्म मायने नहीं रखता है , गलत आदमी गलत ही रहेगा चाहे वो किसी भी धर्म का हो वो उन्हें स्वीकार नहीं है |

                                                उसके बाद अखिलेश को विकास पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया गया | छवि को पूरी तरह से बदल दिया गया , धर्म , जाति, की राजनीति करने वाली पार्टी अब विकासवाद की और बढ़ रही है | एक दिन में विकास के लिए सैकड़ो उद्घाटनों और फीता कटाई का काम शुरू हो गया , जो परियोजनाए आधी अधूरी भी पूरी हुई थी उनका भी उद्घाटन कर प्रदेश को समर्पित कर दिया गया | ये जवाब था उस राजनीति का जो केंद्र में सत्ता पाने के लिए बीजेपी न की थी | जब ढाई साल पहले लोग २००२ को याद कर उनके खिलाफ प्रयोग कर रहे थे तब वह भारत के उज्जवल भविष्य का विजन लोगो के सामने रखा रहे थे , नजीता सभी को पता है | आज अखिलेश ने वो विकाश पुरुष का दांव भी चल दिया , जो असल में मोदी यहाँ चलने वाले थे | बुआ से उनकी अदावत बस भाषणों तक सिमित थी , वो दिखा रहे थे की उनकी लड़ाई बसपा से है किन्तु मात देने का काम वो बीजेपी को कर रहे थे , जो उनके लिए उनका मुख्य प्रतिद्वंदी है |

                                               अब दुनिया के सामने दो विकल्प है पुरानी राजनितिक दांव चलने वाले मुलायम और आधुनिक विकास की बात करने वाले पुत्र अखिलेश | लोग अब इन दोनों में से एक का चुनाव कर रहे है , बसपा और बीजेपी तो गायब ही हो गई , कांग्रेस तो पहले ही उनके पाले में जाने के लिए लालायित है | उसको भी घुटनो पर आने तक इंतजार में रखा जायेगा | अब बीजेपी के पास न विकास का मुद्दा बचा है न ध्रुवीकरण का उस पर से कोई ऐसा स्थानीय चमत्कारिक नेता भी नहीं है जिसे वो मुख्यमंत्री के रूप में घोषित कर सके , जैसा की केंद्र में उन्होंने मोदी को किया था | जबकि अब सपा के पास अखिलेश का नाम और चेहरा है मुख्यमंत्री पड़ के लिए ,जो न केवल काम कर रहे है बल्कि पुराने पड़ चुके राजनितिक दावो से भी खुद को अलग कर चुके है | उनके किया काम भी लोगो के सामने है बिलकुल वैसे ही जैसे मोदी गुजरात में किये अपने कामो को दिखा कर केंद्र में सता पा गए |

                                            सपा का एक बहुत ही अच्छा दांव जिसने न केवल सारा ध्यान लोगो और मिडिया का अपने ऊपर केंद्रीत कर लिया बल्कि अपनी छवि भी बदल दी | अब वो अखिलेश जो पहले ही राहुल , तेजप्रताप , तेजस्वी के आगे ज्यादा काबिल नजर आ रहे थे वो अब और योग्य उम्मीदवार लगने लगे | इस दांव पर वाह वाह किया जा सकता है और अब सवाल बीजेपी और मोदी से अब आप का जवाब और चाल क्या होगी |



December 22, 2016

अच्छे विचार पढाई और पद के मोहताज नहीं - - - - - mangopeople


                                                             भले समाज किसी की पढाई लिखाई, काम और पद से उसको, उसके विचारो को , बोलने समझने को आंकता हो किन्तु वास्तव में इसका संबंध हो ये जरुरी नहीं है । आज बेटी के स्कूल में प्रोजेक्ट डे था विषय था मुम्बई । आज से पहले ही स्कूल में डब्बे वाले से लेकर जितने भी तरह के लोग यहाँ की खासियत है उन्हें स्कूल में बुलाकर बच्चो से मिलवाया गया उनके बारे में विस्तार से बताया गया था और बच्चो को धारावी तक घुमाया गया था । आज कायर्क्रम में इन सब के जिक्र के आलावा भविष्य के मुम्बई बात की गई यहाँ लगे सभी मूर्तियों माध्यम से । जो सबसे खास था वो था बच्चो ने बताया कैसे मुम्बई में पुरे देश से लोग आ कर रहते है और करीब हर राज्य समुदाय से आये बड़े बड़े सफल नामो को गिनाया गया । 
                                                                आज मुख्य अतिथि के रूप में डब्बा वालो के एसोसिएशन के प्रमुख और रेलवे के कोई बड़े ऑफिसर आये थे । कार्यक्रम के बाद मुख्य अतिथियों को बोलने के लिए कहा गया । पहले डब्बा वाले आये ठीक ठाक हिंदी में छोटी सी बात कही कि , आज कार्यक्रम देख कर बहुत अच्छा लगा बच्चो ने बताया की मुम्बई मिनी भारत है , यहाँ पुरे देश की संस्कृति देखने को मिलती है , सब यहाँ मिल कर रहते है । आप सभी ने बच्चो को बहुत ही अच्छी शिक्षा दी है यही कल के भविष्य है और यही शिक्षा उन्हें मिल कर रहना सिखायेगी । बिना रुके अटके सीधी बात कह दी , जो रटा रटाया नहीं बल्कि कार्यक्रम को देख पर बोला गया एक विचार था ।
                                                              फिर बारी आई रेलवे वाले की , बड़े ऑफिसर थे किन्तु वो यही समझ नहीं पा रहे थे की बोले क्या । शुरुआत बच्चो की और कार्यक्रम की तारीफ से की वो भी अटक अटक कर , साफ कहा की मुझे पता नहीं था कार्यक्रम इस प्रकार का होगा ( लगा होगा बच्चे गानो पर नाचेंगे बस ) , फिर बोले रेलवे पर बोलूंगा , बड़ी मुश्किल से ये बोल पाये की बच्चो को रेल में कैसे सफर करना चाहिए ये बताये ( ये नहीं कह पाये की बच्चो को ट्रेन में सफर के दौरान सुरक्षा उपयो के बारे में बताइये , जैसे चलती लोकल ट्रेन में न चढ़े , उतरे या दरवाजो पर खड़े न हो आदि ) फिर तुरंत ही कैशलेस पर कूद पड़े , बच्चो को बताइये की वो रेलवे में कैशलेस सेवा ले सकते है और हमने अब शुरू किया है सभी को प्रयोग करना चाहिए , इसके आगे उनकी ट्रेन नहीं जा पाई। पुरे भाषण में एक लाईन भी बिना अटके नहीं बोल पाये उससे ज्यादा साफ दिख रहा था कि वो जो बोल रहे है , असल में बोलना नहीं चाह रहे , क्योकि वो बच्चो से और उस कार्यक्रम से मेल नहीं खा रहा था ।

                                                              ये ठीक है कि सभी अच्छे वक्ता नहीं होते किन्तु जब आप मुख्य अतिथी है तो आप को पता होना चाहिए की आप को बोलना होगा और बोलने के लिए आप के पास विचार होना चाहिए । संभव है कि आप ने कुछ और तैयार किया था और स्थिति कुछ और हो गई , किन्तु आप के सोचने समझने की शक्ति और पढाई लिखाई इसी दिन के लिए होती है की आप हर स्थिति को संभाल ले , यदि वो विपरीत होतो और भी । किन्तु उससे भी ज्यादा जरुरी है विचारो का होना , तैयारी तो डब्बे वाले ने भी नहीं की होगी , किन्तु उस कार्यक्रम को देख कर ही बोलने लायक विचार तो दिमाग में आ ही गये , जो एक पढ़े लिखे व्यक्ति के दिमाग में नहीं आये ।

December 20, 2016

फेयरनेस क्रीम एक नस्लवादी सोच -------mangopeople


                                                     कुछ साल पहले एक सेल्स गर्ल आई मैम हमारी कंपनी का फेयरनेश क्रीम ले लीजिये उसका कोई मुकाबला नहीं है , मैंने कहा मैं फेयरनेस क्रीम नहीं लगाती । अपनी आंखे बड़ी बड़ी कर बोली क्या आप फेयरनेस क्रीम नहीं लगाती , ठीक है पहले कौन सी लगाती थी । मैंने जवाब दिया मैंने कभी फेयरनेस क्रीम नहीं लगाई है , अब धुप से बचने के लिए आप की कंपनी का क्रीम लगाती हूँ लेकिन फायदा कोई नहीं है । फिर उसने ज्ञान दिया की मुझे तो फेयरनेस क्रीम लगनी चाहिए । हम चार भाई बहन चार अलग अलग रंग के है , पूरा खानदान ही करीब मिली जिला प्रजाति का है , इसलिए घर में कभी काला गोरा रंग मुद्दा ही नहीं रहा और न कभी हमें गोरे होने की क्रीम लगाने के लिए कहा गया । विवाह मे ये समस्या बनी किन्तु अंत में विवाह के लिए आप का व्यवहार , स्वभाव ही महत्वपूर्ण होता है । बाद में सांवली दीदी और खुद मेरा विवाह भी गोरे, दूध से गोर ( शब्द जो समाज प्रयोग करता है ) लोगो से हुआ , साफ है उनके लिए भी रंग कोई मुद्दा नहीं था । जबकि मेरे गोरे भाई बहन के जीवन साथी सांवले आये ।

                                                  एक न्यूज चैनल बता रहा है कि उसने एक साल से गोरे होने की क्रीम का विज्ञापन नहीं दिखाया है , उसके अनुसार गोरे होने की क्रीम एक तरह की नस्लवादी सोच है । उसका कहना बिलकुल सही है की आज की तारीख में जिस तरह से इन क्रीम को बेचने के लिए आक्रमक प्रचार किया जाता है उससे ये एक बड़ी समस्या जैसी बन गई है । आप गोरे नहीं है तो जीवन में आप का कुछ हो ही नहीं सकता । पहले इसे केवल विवाह में समस्या के तौर पर देखा जाता था किन्तु अब तो साफ प्रचारित किया जाता है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में आप सफल ही नहीं हो सकते यदि आप गोरे नहीं है । लडकिया क्या लड़को में भी ये हीन भावना और तेजी से भरी जा रही है । उनके लिए अलग से गोर होने के लिए क्रीम लाया गया है । खूब अच्छे से समझाया जाता है कि लड़कियों की क्रीम आप पर नहीं चलेगी और बिना गोरे हुए आप भी कुछ नहीं कर सकते । आप के तो जीवन लक्ष्य ही है कि दो चार लडकिया आप के आगे पीछे चिपक कर खड़ी रहे और रंग गोरा न हुआ तो आप ये लक्ष्य नहीं पा सकते ।
                                              ऐसा नहीं है कि हमारे समाज में रंग को लेकर कोई भेद ही नहीं था , था और बहुत गहराई से था , इसे तो वर्ण व्यवस्था तक से जोड़ दिया गया था । लेकिन तब लड़कियों के रंग को ही देखा जाता और विवाह ही एक मुद्दा होता था और उसके लिए घरेलु उबटन आदि का प्रयोग किया जाता था । किन्तु उसका स्तर ये नहीं था कि हर किसी को बस गोरी बहु ही चाहिए या समाज में हर जगह बस गोर लोग ही चाहिए । किन्तु आज बच्चे होते ही उसके रंग को लेकर चर्चा होने लगती है , ये बात लोग अक्सर नहीं समझते की रंग तो ज्यादातर परिवार के सदस्यो के रंग जैसा ही होगा । लोग तुरंत गोर होने के उपाय बताने लगते है , यहाँ तक की बच्चे के जन्म के पहले बच्चे गोर हो उसके लिए भी उपाय बताये जाते है  गर्भवती स्त्रियों को करना चाहिए । आजकल कंपनियों ने इसे महामारी की तरह बना दिया है । गोरी बहु चाहिए से मामला कर्मचारी खासकर यदि वो फ्रंट डेस्क के लिए हो तो गोरा ही होना चाहिए तक पहुँच गया है । इस कारण लडके और लडकिया में सवाले होने पर आत्मविवास कम हो जाता है और शुरू हो जाते है इन कंपनियों का बैंक बैलेंस बढ़ाने । जबकि वास्तव में किसी क्रीम से गोरा होना संभव नहीं है । आप धुप से बचने के उपाय कर सकते है किन्तु अपनी त्वचा के वास्तविक रंग को क्रीम से गोरा नहीं कर सकते है ।

                                               कई बार इस पर चर्चा समाज में हो चुकी है इसे ख़राब भी माना गया किन्तु शायद हमारे अपने अंदर ही ये कमी है की इसको एक मुहीम जैसा नहीं बना सके की बाजार अपने रुख को बदल सके , जबकि कई मुद्दों पर बाजार ने अपने आप को बदला है । शायद समाज भी उसी नस्लवादी सोच का बना गया है जिसका फायदा बाजार उठा रहा है । एक बार नादित दास को इस मुहीम से जोड़ा गया और जो तस्वीर उनकी ली गई उसमे भी उन्हें उनके वास्तविक रंग से ज्यादा साफ दिखाया गया । अब आप सोच सकते है कि समाज की समझ क्या है । टीवी पर कितने ही धारावाहिक आये जो इस सवाल रंग की समस्या को लेकर शुरू हुए किन्तु दो तीन साल बाद ही जब अभिनेत्री की पुरानी तस्वीर से जब धारावाहिक शुरू हुआ था से मिलाया गया तो पता चला की अभिनेत्री को भी मेकअप लगा कर दो साल में धीरे धीरे पहले से और साफ रंग का बना दिया गया ।
                                             ये सोच बचपन से समाज , परिवार द्वरा बच्चो में भर दी जाती है । मेरी बेटी जब कुछ तीन साल की हुई तो मुझे पता चला की इतने समय में ही सभी ने उसके साफ रंग को लेकर इतनी तारीफ की , इतनी बाते उसके सामने की कि उसे लगने लगा काला या सांवला रंग होना एक बुराई है और इस बात को उसके छोटे से दिमाग से निकालने में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी । अब अंदाज लगा सकते है कि समाज से इस सोच को बाहर निकालने में कितनी मेहनत करनी पड़ेगी , पर शुरुआत तो करनी ही होगी । ऐसे उत्पाद के विज्ञापन को नहीं दिखाने के लिए चैनल को बधाई दिया जाना चाहिए सराहना चाहिए और दुसरो को भी ऐसा कुछ करने के लिए दबाव डालना चाहिए ।

     फेयरनेस क्रीम एक नस्लवादी सोच 

December 17, 2016

लघु कथा पॉजिटिव एटीट्यूट -------mangopeople



 "क्या बात है शीशे में खुद को इतना गौर से देख खुद ही मुस्कुरा रही हो " 
" हां यार पता न था कि मैं अभी भी इतनी जवान जहान हूँ " 
" ये लो अभी हफ्ता भर पहले बालो को रंगने की सोच रही थी , आँखों के निचे रिंकल देख , रिंकल क्रीम को गाली दे रही थी अचानक सब बदल गया "
" हां वही तो , मेरा बर्थडे आने वाला था सोच रही थी बाप रे चालीस की हो जाऊंगी अब अपनी और केयर करना शुरू कर देना चाहिए , फिर ऐसी तारीफ मिली की लगा मैं बेकार की बात सोच रही थी ।  "
" तारीफ किसने की जरा हमें भी तो बताओ , कौन है जो हमारे पीछे इतनी तारीफे कर चला जाता है तुम्हारी "
" तुम्हारे पीछे कहा तुम्हारे सामने ही तो कल रात किया तुम्हारी मामी बहन ने , पहली बार देखा न मुझे , फ़िदा हो गई "
" तुम्हारी तारीफ कब "
" अरे तुमने सूना नहीं , उन्होंने मुझे क्या कहा , बहु सिंदूर बिछिया पायल कुछ नहीं पहनती , बाहर कुँआरी दिखना चाहती हो क्या , ताकि चार लडके लाईन मारे । बस तब से ही सोच रही हूँ कि हाय अभी भी ऐसी दिखती हूँ की बाहर लडके मुझे लाईन मारे । 
" वाह क्या गजब सोचती हो , सच्ची , इसे कहते है पॉजिटिव एटीट्यूट "
" करना पड़ता है , ऐसा सोचना पड़ता है , उन्हें तो मैंने मुंह तोड़ जवाब दे दिया जीवनभर याद रखेंगी मुझे , अंत में मेरी हा में हा मिला कर गई । लेकिन खुद को कैसे संतुष्ट करू खुद को कैसे बहलाऊ कि किसी ने मेरे पति के सामने मेरे चरित्र पर उँगली उठा दी और वो चुपचाप सुनता रहा । फिर अपने दिल को बहलाने के लिए ऐसा सोचना पड़ता है ।" 

December 15, 2016

आज़ादी की आड़ में अनुशासन से परहेज ------mangopeople




                                                                              मुम्बई में स्कूलों में बच्चो को मेहंदी,नेल कलर , बिंदी , टिका आदि फैशन वाली चीजे लगाना मना है । कुछ लोग बाज नहीं आते और बच्चो में मेहंदी लगा देते है नतीजा बच्चो को भुगतान पड़ता है । कुछ मम्मियां इस पर भिनभिनाती रहती है और मुझे समझ नहीं आता की किसी शादी में बच्चो ने मेहंदी न लगाया तो उससे उनके उत्साह में क्या कमी आ जायेगी ।  आम लोगो की सुरक्षा के लिए कोई नियम बनता है जाँच पड़ताल होती है तो सबसे ज्यादा आम लोग ही उस पर चिल्ल पो मचा देते है । अरे मॉल में पर्स चेक कर रहे है जैसे उसमे बम हो , जाँच से क्या होगा , कोई पर्स बम ले कर आयेगा क्या । सबको पता है की दो पहिया वाहन चलाते समय हेलमेट लगाना है , जैसे ही चेकिंग शुरू होती है लोग बोलना शुरू कर देते है , कमाई के लिए खड़े है , टारगेट मिला है , बेवजह परेशान कर रहे है, जल्दी है , जाम लगा है । यहाँ तक की शौचालय बनाने और शहर साफ करने जैसे मुद्दों के खिलाफ भी लोग बोलने लगते है । सभी को रातभर डांडिया करना है , शादियों में नाचना है तेज आवाज में संगीत बजा कर , रात १० -११ बजे सब बंद का नियम आजादी के खिलाफ है । 

                                                                            असल में तो लोगो को नियम मानने अनुशासन में रहने से परेशानी है । जैसे ही कोई नियम बनता है लोग आपत्तियां उठाना शुरू कर देते है , और कई बार इसमे सबसे आगे वो होते है जिनका उस नियम से कोई मतलब ही नहीं होता है । खबर आई सरकार ने कुछ पॉर्न साईट पर बैन लगा दिया , लो जी सभी को कुछ भी देखने की आजादी याद आ गई उसका विरोध ऐसा शुरू हुआ जैसे की पढाई करने पर रोक लगा दी गई है । विरोध करने वाले से पूछा भाई दिन में कितनी बार पॉर्न देखते है , नहीं नहीं हम नहीं देखते है ये सब , जब नहीं देखते है तो विरोध क्यों कर रहे है , जो देखते है उनकी तो आजादी के खिलाफ है ना । हे प्रभु जिस चीज को लोग देखते है किन्तु उसको स्वीकार करने को तैयार नहीं है , हिम्मत नहीं है उस पर किसी भी तरह का बैन इन्हें स्वीकार नहीं , जबकि उन्हें ये भी नहीं पता की सारे पॉर्न साईट पर बैन नहीं हुआ था , सिर्फ उन पर हुआ था जिन पर बच्चो के पॉर्न वीडियो थे , वो भी कोर्ट के कहने पर , वरना ये सारे मुद्दे तो हमारी सरकारों के लिस्ट में कही आती ही नहीं ।

                                                                       आजादी के नाम पर असल में हम अनुशासित होने से डरते है , आजादी का मतलब हमारे लिए ये है कि हम जो चाहे करे और हमें कोई न रोके , लेकिन जैसे ही किसी और की घूमती छड़ी हमारे नाक पर लगती है हमें सारे नियम कानून अनुशासन याद आ जाता है इस देश में तो कोई नियम कानून ही नहीं है , कोई देखने वाला ही नहीं है , किसी को पड़ी ही नहीं है । अब राष्ट्रगान का मामला ले लीजिये , कोर्ट ने जैसे ही सिनेमा में राष्ट्रगान बजने की बात की सबसे पहले याद आये विकलांग , वो कैसे खड़े होंगे , बेचारे विकलांग । सामान्य स्कुल में पढने , रोजगार के समान अवसर , सार्वजनिक इमारतों को विकलांगो के लायक बनाने जैसे अपने अधिकारों के लिए वो कितना लड़े आंदोलन किया कोई उनके साथ न आया , आज सिनेमा हॉल में ५२ सेकेण्ड वो कैसे खड़े रहेंगे इसके लिए अचानक सभी को उनकी याद आ गई । कोई बीमार हुआ तो वो कैसे खड़ा रहेगा , वो बेचारा बीमार तीन घंटे बैठ कर फिल्म देख सकता है बस , हमारी देखने की सुनने की आजादी का क्या हमें नहीं सुनना है तो मत जाइये सिनेमा हॉल , कोई जबरजस्ती नहीं है । किसी भी संस्थान, जगह स्कुल कॉलेज का जो नियम है उसके तहत ही आप वहां रहा सकते है तो रहिये वरना मना कर दीजिये । हम अपने बच्चो को मदरसों, गुरुकुलो में नहीं भेजते , हमें नहीं पसंद वहां ही शिक्षा व्यवस्था , आप भी मत जाइये जहाँ के नियम कानून आप को पसंद नहीं ।

                                                                               

December 06, 2016

खेल खेल में -------mangopeople




                                                                     करीब चार महीने पहले बेटी का चुनाव इंटर स्कूल खेल प्रतियोगिता के लिए हुआ । स्कूल में तो वो मैडल जीतती रहती थी ये पहली बार स्कूल से बाहर जा रही थी । हम भी खुशी ख़ुशी वह पहुंचे वहा का नजारा कुछ देर देखने के बाद लगा जैसे ओलंपिक में आ गये है । कुछ बच्चे से जिनके अपने नीजि प्रशिक्षक थे , पैरो में महंगे स्पोर्ट शूज जो खेल के लिए बने थे , कपडे भी खेल के लिए बने खास ,वो महंगे स्कूलों से थे । कुछ क्लब के लोग ग्रुप में थे सभी के एक जैसे कपडे , कपड़ो पर क्लब का नाम , खेल के तमाम इंस्टूमेंट भी उनके पास थे । लगा जैसे वो यूरोप , अमेरिका की टीमें , बिलकुल प्रेक्टिस करते दिख रहे थे की खिलाडी है उनके सामने हमारी ये भारतीय टीम कहा टिकेगी । हमारे ५ बच्चो ने स्कूल पीटी ड्रेस पहन रखी थी कॉटन के सफ़ेद पैंट और शर्ट और पैरो में सफेद पीटी वाले जुते । माथा ठोक लिया सारे हालात को देख और सोच कर , खुद हमें एक दिन पहले पता चला की हमारे बच्चे किस किस प्रतियोगिता में थे , ५० और २०० मीटर की रेस के लिए उनका प्रशिक्षण था जाओ मैदान के २० चक्कर लगा लो । मैंने बच्चो से सवाल किया क्या कभी तुम्हारी खेल टीचर ने तुम्हारे रेस का टाइम आदि देखा एक दूसरे से रेस करवाई , जवाब था नहीं । लगा २० चक्कर लगाव के टीचर क्या मैराथन की तैयारी करवा रही थी और २०० मीटर में मेरी बेटी को ले लिया वो हमेसा ५० और १०० में स्कूल में भाग लेती है ।

                                                                 वैसे हमारी भारतीय टीम अकेली नहीं थी कुछ और एशियाई और अफ़्रीकी टाइप टीम भी थी , पर इन सब में एक टीम चाइना भी थी जो कम संसाधन के बाद भी अच्छे प्रशिक्षण के कारण कई प्रतियोगिता जीती कोई बहुत छोटा स्कूल था । हम भी अपने बच्चो के अपने लेबल पर तैयारी करवा सकते थे किन्तु हमें तो जानकारी तक नहीं थी । ५० से ६० बच्चो के बीच हमारे बच्चे दो के सेमीफाइनल और रीले रेस के फ़ाइनल में पहुंची किन्तु मैडल नहीं जीती । बच्चे बहुत उदास हुए और एक तो रोने ही लगी जो सबसे धीमी थी और उसके चयन पर भी आश्चर्य हो रहा था ,हमने उन्हें सांत्वना दे काम चलाया । अब कुछ दिन पहले फिर से एक दो दिन पहले हमें खबर कर दिया गया , नतीजा वही निकाला इस बार तो ७० से ८० बच्चे थे किन्तु हमारे बच्चे उदास नहीं थे , वो दूसरी बार में ही हार के आदि हो गये और वह ४ दिन की पिकनिक मना कर चले आये । इस बार हम सब ने तय कर लिया की स्कुल में इस बात की शिकायत की जाएगी की बच्चो का स्तर दूसरे स्कूलो से प्रतियोगिता के लायक हो तभी उन्हें भेज जाये केवल हार का अनुभव लेने और उसकी आदत पड़ने के लिए न भेजे । जितने की संभावना होने पर ही लोग और मेहनत करते है किन्तु जहाँ जितने की उम्मीद ही न हो तो जरुरी मेहनत भी नहीं की जाती ।

                                                                 लगा ऐसे ही हमारी भारतीय टीम भी जाती होगी बड़े खेल प्रतियोगिताओ में , न ढंग का प्रशिक्षण , न संसाधन , न ढंग के खिलाड़ियों का चयन और न जितने का जज्बा । ये ठीक है प्रतियोगिता में भाग लेने से आप का अनुभव बढ़ता है और हर कोई जीत नहीं सकता किन्तु वहा से आने के बाद उनके खेल का आंकलन होता है ,क्या ये देखा जाता है की उनका प्रदर्शन पिछली बार से बेहतर हुआ है तब उन्हें आगे भेजा जाये । यहाँ होती है राजनीति और अब तो साजिस कर खिलाडी को फंसा कर प्रतियोगिता से बहार करने का भी प्रयास होने लगे । जब पहले स्तर पर बच्चो की प्रतियोगिताओ का ये हाल है की जितने और हारने वालो में एक बड़ा अंतर है तो वो जितने वालो को बड़ी चुनौती नहीं देता है और न जितने वाले का स्तर बढ़ता है । फिर ये भी देखा की जो आयोजक ये प्रतियोगिता करा रहे थे उनको जीतने वालो या कुछ प्रतिभावान बच्चो से कोई मतलब नहीं था , उनको आगे बढ़ाने या अच्छा प्रशिक्षण देने में उनकी कोई रूचि नहीं थी , जो होना था वो अपने स्तर पर होना था । जो इस लायक है वो अपने बच्चो को खेलो में ज्यादातर भेजते नहीं और जिन्हें भेजना है उनके पास संसाधन नहीं ।