कई जगह पढ़ती सुनती हूँ की हम सभी को हमेसा सकरात्मक
बाते करनी चाहिए उससे जीवन में उत्साह आता है उर्जा मिलती है जबकि
नकारात्मक बाते हम में निराशा भर देते है, हमें काम करने से रोकते है , न
केवल खुद सकरात्मक बाते करनी चाहिए बल्कि ऐसे लोगो से भी दूर रहना चाहिए जो
की हर समय नकारात्मक बाते करते है , नकारात्मक उर्जा कभी भी हमें अच्छा फल
नहीं देगी | किन्तु मै इस बात से बहुत ज्यादा सहमत नहीं हूँ मुझे तो लगता
है की हर समय सकारात्मकता की बात करने वाले भी नकारात्मकता को कुछ ज्यादा
ही नकारात्मक ढंग से लेते है | यदि आप वास्तव में ये मानते है की सकारात्मक
बाते करे वैसा ही सोचे तो मुझे लगता है की आप को इस तरह की बातो को भी एक
सकरात्मक ढंग से लेना चाहिए | मेरा तो मानना है की सकरात्मक व्यक्ति वो है
जो हर गलत से गलत और बुरी से बुरी बात में से भी कुछ अच्छा निकाल ले | एक
किस्सा गाँधी जी का पढ़ा था ( कितना सच है पता नहीं किन्तु अच्छा है ) की
गाँधी जी पानी के जहाज से कही जा रहे थे रास्ते में जब वो डेक पर खड़े थे तो
किसी अंग्रेज ने एक पेज पर उनके बारे में बुरा बुरा लिख कर उन्हें भेज
दिया उन्होंने उसे पढ़ा उसमे से पिन निकाल कर अलग रख और पेज को जेब में डाल
दिया जब उनके सहयोगियों ने पूछा की उसे रखा क्यों है फेक क्यों नहीं दिया,
तो उन्होंने कहा की दूसरी तरफ का पेज सादा है वो मेरे लिखने के काम में
आयेगा और पिन तो बहुत ही काम की चीज है इस जहाज पर ये कहा मिलती | असल में
तो ये आप के ऊपर है की आप चीजो को कैसे ले रहे है , कही गई बातो को कैसे
समझ रहे है | अक्सर हम सभी ( मेरा परिवार ) जब भी कोई नया काम करने के लिए
जाते है तो उसकी बुरईयो और बाद में आ सकने वाली परेशानियों के बारे में
पहले विमर्श करते है , या काम संफल नहीं हुआ तो उसके बाद क्या करना है ये
भी सोच लेते है , लोग कहते है की जिस काम को पहले ही मान लिया की ये संफल
नहीं होगा तो फिर वो कैसे सफल होगा और जब पहले के लिए ही आत्मविश्वास नहीं
है तो दूसरा भी कैसे होगा , या तुम लोग बुराई तो पहले देखते हो इस तरह तो
कोई भी काम नहीं कर सकती हो या कोई भी व्यक्ति तुमको पसंद ही नहीं आयेगा |
पर हमारी नकरात्मक सोच बड़ी सकरात्मक होती है हमारा मानना है की अच्छा हुआ
तो बहुत अच्छा है किन्तु बुरा हुआ तो हम पहले से उसके लिए तैयार है और बुरा
होने पर रोने, घबराने और निराश होने में अपना समय नहीं व्यर्थ करेंगे
क्योकि हमारे पास पहले से ही एक प्लान बी भी तैयार रहता है , या कभी हम
किसी चीज की बुराई देखते है तो हम ये सोचते है की इसमे ये बुराईया है तो
इनसे बचा कैसे जाये , इनका समाधान कैसे करे या उसका सामना कैसे करे ( कुछ
चीजो, समस्याओ और लोगो की सोच का कोई समाधान नहीं होता है तब उनका सामना
करना पड़ता है ), इस तरह तो हम चीजो को एक तरह से बुराई मुक्त कर देते है
या कम से कम हानिकारक बना देते है | हम खुद तक ही नहीं रुकते है जब दूसरे
भी हम से किसी बारे में राय मंगाते है तो ज्यादातर हम उस चीजो से जुडी
गलतियों बुराइयों और समस्याओ की तरफ ही लोगो का ध्यान पहले दिलाते है ,
मेरा मानना है की उस चीज की अच्छाई तो सामने वाला पहले ही देख चूका है तभी
वो काम करने जा रहा है तो जब वो हमारी राय मांग रहा है तो ये हमारी
जिम्मेदारी है की उससे जुडी समस्याओ को भी वो पहले समझ ले ताकि बाद में
उसका नुकशान न हो, कभी कभी लोग इस बात को समझ लेते है किन्तु कभी कभी होता
ये है की जब वो व्यक्ति हर हाल में वो काम करना चाहता है और हमसे बस हामी
भरवाने आता है तो उसे हमारी बाते नकरात्मक लगने लगती है | मै सोचती हूँ की
किसी चीज के साथ जुडी अच्छी चीजे तो हमारे पास आने के बाद हमें मिल ही
जाएँगी उसको लेकर पहले से ही ज्यादा बाते करने की जरुरत ही क्या है जब पास
होंगी तो उपयोग भी होता रहेगा किन्तु किसी नुकशान से बचने के उपाय तो पहले
ही सोच लेने चाहिए क्योकि उसके सर पर आ जाने के बाद कई बार आप कुछ भी नहीं
कर पाते है सिवाए पछताने के और ये सोचने के की पहले ही इस बारे में क्यों
नहीं सोचा | जबकि हर समय सकारात्मक कहने सुनने और सोचने की बाते कभी कभी
इन्सान को हर सिक्के का एक ही पहलू देखने के लिए मजबूर कर देती है, वो
पहलू जो बस अच्छा अच्छा है और ये सोच हमें असावधान बनाती है, बुरे वक्त
और बुरी चीजो के लिए तैयार नहीं होने देती है एकतरह से ये हमें आधा अँधा
बना देती है जो सिर्फ अच्छा अच्छा देखता है और समस्याओ बुराइयों को नहीं देख पाता है और कभी कभी तो इन्सान में अति आत्मविश्वास भर देता है | नतीजा ये
होता है की जब हर समय अच्छा अच्छा सोचने वाले के साथ बुरा होता है तो वह
अन्य की तुलना में कुछ ज्यादा ही दुखी हो जाता है और मै सफल ही होंगा का
आत्म विश्वास ( असल में तो अति आत्मविश्वास ) से भरे व्यक्ति को असफलता हाथ
लगती है तो वो कही ज्यादा निराश हो जाता है कभी कभी इतना की फिर कभी
कामयाबी की सोचे ही नहीं खड़ा हो ही नहीं पाये , क्योकि उसे तो लगता है की
उसने तो बड़े सकारात्मक ढंग से हर अच्छी सोच और इरादे से काम किया कही कुछ
गलत था ही नहीं फिर भी सफलता नहीं मिली तो वो दुबारा कैसे मिलेगी , जबकि हर
काम में थोड़ी नकारात्मकता असफल होने का डर आप को फिर से अपनी गलतियों की
सुधार कर खड़े होने फिर से सफलता के लिए संघर्ष करने की हिम्मत देता है ( अब
ये भी जरुरी नहीं है कि सभी के साथ ऐसा हो ही ) , ये व्यक्ति की सोच पर
निर्भर है नकारात्मकता और बुराई से भागना हर समय सही हो ये भी ठीक नहीं है |
लोग अपने घरो में महाभारत का पाठ नहीं करते है क्योकि कहा जाता है की महाभारत का पाठ करने से घर में महाभारत होती है ये एक नकरात्मक पाठ होगा , जबकि मुझे लगता है की महाभारत का तो पाठ होना चाहिए और अंत में इस बात की शिक्षा खुल कर देनी चाहिए की पैसा , पद , गद्दी और राज्य का लालच इतना ख़राब होता है की १०० पुत्रो वाला वंश भी ख़त्म हो जाता है और एक पूरे वंशावली का नाश होने से किसी तरह बची थी ( यदि कृष्ण ने अश्वाथामा का चलाया तीर अपने ऊपर न लिया होता तो उत्तर के गर्भ में ही उसके बच्चे की मृत्यु हो जाती और पांडव वंश का भी नाश हो जाता ),यहाँ देखना ये है की हमें सिखाना क्या है , बुराई दिखा कर हमें लोगो को उससे सावधान करना है उससे जुडी परेशानिया और हानियों से लोगो को परिचित करना है और सकरात्मकता का इतना ऊँचा मानदंड नहीं खड़ा करना चाहिए रामायण और पुरुषोत्तम राम की तरह की लोगो को लगे की ये मानदंड तो इतना ऊँचा है की हम उसे कभी छू ही नहीं सकते है तो वैसा बनने का प्रयास ही बेकार है हम तो बुरे ही भले है | कहने का अर्थ, तात्पर्य , मतलब, यानि की ये है की सकारात्मकता और नकारात्मकता अपने आप में कुछ नहीं होती है ये आप की सोच है उसे अपने पर लेने का तरीका है जो उससे आप को लाभ या हानि कराती है |
अपडेट :- कभी कभी आप के बारे में नकरात्मक खबरे आप का कितना फायदा कर देती है इसी का उदाहरण देखा टीवी पर, परसों तक जो टीवी चैनल चीख रहे थे की अन्ना का आन्दोलन फ्लाप हो गया , अन्ना का जादू ख़त्म हो गया , अब लोग अन्ना के साथ नहीं आयेंगे , अन्ना के आन्दोलन से भीड़ नदारत, वो सारे टीवी चैनल कल से अन्ना के आन्दोलन में भीड़ को दिखा रहे है | असल में उन नकरात्मक खबरों ने उन लोगों में जोश भर दिया जो अभी तक काम , आलस जैसे अनेको कारण से बाहर निकल कर इस आन्दोलन से नहीं जुड़ रहे थे वो बाहर आ गये । यदि उनके बारे में कोई भी खबर ही नहीं दिखाई जाती तो शायद लोगों में ऐसा जोश नहीं आता ,यहाँ पर अन्ना के अन्दोअलन से जुडी नकारात्मक खबरों ने उन्हें फायदा पहुंचा दिया ।
चलते चलते
कहा जाता है की हर समय इन्सान को शुभ शुभ बोलना चाहिए क्योकि दिन भर में एक बार माँ सरस्वती हमारी जबान पर बैठती है औरउस समय जो कहा जाये वो सच हो जाता है और वो कब बैठेंगी ये कोई नहीं जानता इसलिए हर समय शुभ बोलना चाहिए | एक बार हमारी माता जी मेरी बहनों के साथ लक्ष्मी पूजा के लिए माला बना रही थी उसमे खासियत ये थी की वहा हर काम १६ बार करना होता है यानि माला में १६ गुड़हल के फुल होंगे साथ में १६ दुप और १६ चावल के दाने हर फुल के साथ बांधे जायेंगे , पूजा भी १६ दिन करने होते है दूसरा दिन आखरी था रात का समय था और अचानक से बिजली चली गई और काफी देर तक नहीं आई थी , ये मुश्किल काम कम रोशनी में संभव नहीं था , माता जी ने विनती की की ये लक्ष्मी मैया माला बनाने के लिए बिजली दे दो , लो जी मुंह से निकला था और बिजली आ गई , माला फटाफट बनना शुरू हो गई और जैसे ही माला पूरी हुई बिजली चली गई , ये देखते ही मेरी दोनों बहनों ने सर ठोक लिया और कहा की माता जी इतने दिन पूजा किया पाठ किया और बदले में माँगा भी तो क्या बस माला बनाने तक के लिए बिजली अरे कुछ बड़ा मांग लेना था न |
शिक्षा :- इस कथा से हमें ये शिक्षा मिलती है की बस शुभ बोलने से ही काम नहीं चलेगा जब भी बोलो तो कुछ बड़ा बोलो कुछ बड़े की मांग करो क्या पता कब सरस्वती मैया जबान पर विराजमान हो जाये |
तो जल्द ही मुझे पुलित्जर उसके बाद बुकर उसके बाद आस्कर और उसके बाद नोबेल शांति पुरुस्कार मिले ! सरस्वती मैया क्या आप ने सुना !!!
प्रस्तुत भाव से पूरी तरह सहमत!!
ReplyDeleteसावधानियों के लिए नकारात्मक सोच लेना बेहद ही जरूरी है।
हमारे सामने कोई भी योजना हो जो भी अच्छा होना है होगा। सही कहा आपने अच्छे के निर्धारण के बाद ही हमने योजना तैयार की है, इसलिए सर्वप्रथम उसके नकारात्मक पहलूओं पर ही विचार होना चाहिए।
बस यहां इतना ही कहना है कि नकारात्मकता विवेकपूर्वक सावधानियों तक सीमित होनी चाहिए। यदि लगातार नकारात्मकता का ही चिंतन होने लगे तो और वह निर्थक मंथन में बदल जाय तो हानिकर होती है।
उसी तरह 'शुभ शुभ बोलो' मुहावरा वस्तुतः 'शुभ शुभ सोचो' का रूढ़ प्रतीत होता है। यहां भी 'शुभ शुभ सोचने' मात्र से कोई भी कार्य शुभ नहीं हो जाता, बल्कि शुभ विचार मन को शुभ्र बनाए रखने में सहायक होते है जो शुभ मंगल के प्रति सुरूचि बनाए रखने को प्रोत्साहित करते रहते है।
लोग सकारात्मकता का दुर्पयोग भी बहुत करते है। जैसे दुनिया में जो कुछ भी बुरा घटता है उनकी बुराईयों को भी सकारात्मकता से स्वीकार कर लो। किसी में बुरी आदरें है तो उसे भी सकारात्मकता से लो। किसी का स्वभाव दूसरों के लिए नुक्सान देय है तब भी उसको सकारात्मक लो। यह सकारात्मकता का दुरपयोग है। सकारात्मकता 'सही' को मिलनी चाहिए तभी सार्थक है।
'आदरें' शब्द को 'आदतें' पढ़ें।
Deleteसकरात्मक हो या नकरात्मक दुरुपयोग तो हर चीज का गलत ही होता है |
Deleteअशुभ और नकारात्मक में अंतर , अशुभ का अर्थ हैं भविष्य में होने वाले कार्य के लिये जो हम बोले वो जो हम नहीं चाहे वो न बोले यानी अपनी पसंद का . अपनी चाहत का नियति से करवाने के लिये जरुरी हैं की हम वो कहे जो हम चाहते हैं .
ReplyDeleteनकारात्मक और सकारात्मक एक ही सिक्के के दो पहलु हैं हैं , जो हम चाह रहे हैं दूसरा वो कह दे तो हम को वो सकारात्मक लगता हैं वरना नकारात्मक
आप की माँ ने जब आप को टोका तो उनका मंतव्य था अगर डिलीवरी के लिये जा रही हो तो गोदी में बच्चा होगा जब वापस आओ ये सोचो
आप ने जो बहिन को बताया वो सावधानी थी उसमे सकारात्मक नकारात्मक कुछ था ही नहीं
मै विदेश जाती हूँ , पहली बार गयी पापा / माँ को कहा ये ब्लैंक चेक हैं साइन किया अकाउंट का , समस्या हो/ अनहोनी हो जाए निकाल ले , दोनों नाराज , अच्छा अच्छा बोलो , मैने कहा ये सावधानी हैं , आगे से अपनी बहिन को बता दिया इस ड्रावर में सब कागज़ और चेक रहते ब्लैंक साइन किये , अनहोनी में तुम देख लेना , वो साधारण रूप से बोली ओके .
किसी भी अभिभावक के लिये बच्चे की मौत से भंयंकर कुछ नहीं सो उनकी अपनी सोच
ब्लॉग जगत में मेरी छवि नकरातमक , क्यूँ क्युकी जिस दिन से आई यहाँ के लोगो की सही सोच को आसन शब्द में बिना लाग लपेट कह दिया . ब्लॉग पर परिवार ना बनाये , कुछ महिला भी नाराज , क्यूँ , क्युकी उनके मुह बोले भाई , बेटे दूसरो पर आक्षेप करते हैं , और ये कह दिया तो मै नकारात्मक आज माँ कहा और बेटा कहां , अब वही बेटा लम्पट , लोफर होगया . वही भाई शोषण करने वाला होगया , और वो पिता जो ब्लॉग पर मिल गया था बेटी को प्रेम पत्र लिखता या उसको क...या कहता दिख गया
अब कहां गयी वो सकारात्मकता जो ढोल बजा बजा कर दिखाई जा रही थी ,
नारी ब्लॉग नकारात्मक , नकारात्मकता को बढ़ावा देता , संबंधो को बिगाड़ता इत्यादि इत्यादि और आज वही ब्लॉग लोगो ने हमारे या तुम्हारे बिना वोट मांगे दशक के पांच पसंदीदा ब्लॉग में शामिल हैं जबकि मैने हमेशा परिकल्पना पुरूस्कार को सही नहीं ठहराया आज भी नहीं मानती पर मै तो नारी ब्लॉग को भी अपना नहीं मानती , मैने बनाया , लोगो ने पढ़ा , लोगो ने लिखा वो परिकल्पना समुदाय जिसने पिछले साल एक ब्लॉगर के कहने पर मेरे ऊपर आक्षेप लगाया था की मैने कब ब्लॉग लिखना शुरू किया और कब प्रोफाइल बनाया वो जानकारी मै गलत दे रही हूँ आज नारी ब्लॉग को सम्मानित कर रहा हैं तो मेरी नकारात्मकता मुझे मंजूर हैं
बाकी तुम बड़ी तेज ब्लोगर हो बात को कैसे पकड़ लेती हो अभी प्रवीण के ब्लॉग पर पढ़ लिया :)
तो जल्द ही मुझे पुलित्जर उसके बाद बुकर उसके बाद आस्कर और उसके बाद नोबेल शांति पुरुस्कार मिले ! सरस्वती मैया क्या आप ने सुना !!!
Deletetathaastu
@ जो हम चाह रहे हैं दूसरा वो कह दे तो हम को वो सकारात्मक लगता हैं वरना नकारात्मक |
Deleteबिल्कुल सही कहा आप ने ज्यादातर यही होता है और आशीर्वाद के लिए धन्यवाद ! नहीं मिला तो आप से ही पूछूंगी की ठीक से आशीर्वाद नहीं दिया क्या :)
नकारात्मक सोच भी अपनी जगह जरूरी है...सिक्के का दूसरा पहलू देखने पर मजबूर करती है.
ReplyDeleteकिसी भी कार्य को करने से पहले उसके दोनों पहलुओं पर विचार जरूरी है..सिर्फ अच्छा-अच्छा ही सोचते रहें ..और बुरा हो गया तो संभालना मुश्किल हो जाता है.
जैसा कि आपने कहा है..हमेशा 'प्लान बी' भी तैयार रखना बहुत जरूरी है..पर अक्सर लोग इसे अनदेखा कर जाते हैं.
पर ज्यादातर लोग सिक्के का एक ही पहलू देखेते है, जिसमे उनका फायदा हो |
Deleteजब से ये प्रबंधन के क्षैत्र में आये हैं, पता नहीं कैसे ये प्रबंधन की मानसिकता निजी जीवन में भी प्रवेश कर गई और अब जबकि प्रबंधन से हट गये हैं तब भी यह मानसिकता है, कि हमेशा अपने काम समय पर हों और अगर कोई रिस्क है तो पहले ही विश्लेषण करके उसे मिटा दिया जाये। इसके लिये नकारात्मक बातों को सकारात्मक तरीके से सोचने की बहुत जरूरत होती है।
ReplyDeleteऔर हाँ यह तो मैं भी मानता हूँ कि हमेशा अच्छी बातें बोलो और बड़ा मांगो तभी बड़ा मिलेगा, क्योंकि माँ सरस्वती का जबान पर वास होता है।
सहमती जताने के लिए धन्यवाद ! पर माँ सरस्वती का वास कभी कभी ही होता है और वो भी कब होगा कोई नहीं जानता |
Deletejab maan 'saraswati' jaban pe aati hai tab sayad maan kali-durga nepathya me chali jati hai.....
Deletepranam.
English me ek kahawat hai, Think of the best & prepare for the worst!Maine apne jeevan me yahee seekha hai. Jab jab anhonee taiyyaree nahee kee, zindagee bhar pachhtana pada hai.Rachana ji se sehmat hun.
ReplyDeleteबहुत सही कहावत है |
Deletenakaratmak soch nahi rakhna chahiye ye nahi kah sakte... par sakaratmak soch par isko haawi nahi hone dena chahiye....!
ReplyDeleteसंतुलन होना बहुत जरुरी है कोई भी किसी पर हावी ना हो |
Deleteअंशुमाला जी,
ReplyDeleteशायद आपकी ही कोई पोस्ट थी नारी ब्लॉग पर जिस पर मैंने कहा था कि आप हमेशा सकारात्मक रवैया भी नहीं रख सकते.मेरे शरीर में कोई तकलीफ है तो मैं डॉक्टर से अपने शरीर केवल उन्हीं अंगों के बारे में बताऊँगा जिनमें मुझे तकलीफ है न कि अच्छे से काम कर रहे अंगों की तारीफ करूँगा और डॉक्टर भी ये नहीं कहेगा कि देखिए आपकी एक किडनी तो खराब हो गई लेकिन आपके हाथ पैर बिल्कुल ठीक काम कर रहे है इन पर आपको गर्व होना चाहिए.
अब अपनी तकलीफ के बारे में बताना भी किसीको नकारात्मकता लगता हैं तो लगे.पर हाँ निराशावादी होना सही नहीं होता जैसे कि मुझे ये आशा नहीं छोडनी चाहिए कि मैं ठीक हो सकता हूँ और डॉक्टर को भी चाहिए कि वह मुझे बीमारी क्या है ये तो बताए पर मुझे भरोसा भी दिलाए कि मैं ठीक हो जाऊँ.वर्ना बीमारी तो बाद में मारेगी पर उसकी बातें मुझे पहले ही ऊपर पहुँचा देगी.
वैसे आप भी देख लीजिए अन्ना के आंदोलन में लोग काम या आलस के कारण नहीं आ रहे या डर के कारण.
आपने पिछली बार कहा था कि मध्यम वर्ग डर गया है :)
मैंने भी इस पोस्ट में वही कहा है की नकारात्मकता को भी थोड़ी सकारात्मक ढंग से लेना चाहिए
Deleteऔर उस पोस्ट में तो मध्यम वर्ग को ललकारने जैसा था वही नकरात्मक बात कहा उन्हें जोश में लाने की चेष्टा जैसा इस बार मीडिया ने किया है |
हाँ तो मीडिया ने यह काम किया ना दोनों बार पहले भी और अब भी और बिना मध्यम वर्ग को डरपोक बताए किया(ये अलग बात है कि इसका इस बार कोई फायदा नहीं हुआ).आप मध्यम वर्ग की कोई आलोचना करती चाहे तो उसे डरा बताकर ही तो कोई बात नही थी पर आपने अपनी तरफ है कारण बताया था कि मध्यम वर्ग क्यों डर गया हैं और मेरी असहमति इसी तर्क से थी और असहमति मतलब असहमति, इसे हम सकारात्मक या नकारात्मक के रूप में नहीं देख सकते.वैसे मुझे लगता है कि ये नकारात्मक और सकारात्मक को लेकर सभी की सोच भी अलग अलग होती है कोई एक परिभाषा तय नहीं कि जा सकती.
Deleteअंशुमाला जी एक चीज और ...
ReplyDeleteये आजकल आस पडोस में किस तरह की बहस चल रही है अंदर का जानवर जाग गया और ये सब?
मुझे तो लगता है कि हमें उन लोगों से फिर भी थोडी उम्मीद रखनी चाहिए जिनके अंदर का जानवर हावी भले ही हो लेकिन कहीं एक कोने में इंसान भी दुबका बैठा हो जिसे किसी प्रकार जगाया या उठाया जा सके.लेकिन उन पर मेहनत बेकार है जिनके भीतर के जानवर ने अंदर बैठे इंसान को मार ही डाला हो उस बेचारे की भ्रूण हत्या ही कर डाली हो.ऐसा भी क्या आशावाद.
पता नही ये नकारात्म है या सकारात्मक यहाँ लिखना सही है या नहीं पर हम तो लिख दिया हूँ आप तक बात पहुँचानी थी.अब आप चाहे तो कमेंट हटा सकती हैं.हम नकारात्म रूप में नहीं ना लूँगा.
मैंने पोस्ट में लिखा है कुछ केस हाथ से निकल चुके होते है उनका फिर सामना ही करना पड़ता है |
Deleteमैं नकारात्मकता को व्यवहारिक सोच के ज्यादा करीब पाती हूँ...... बाकि अति तो किसी भी तरह की सोच की न हो यह ज़रूरी है ही .....
ReplyDeleteमै आप से सहमत हूं |
Deleteनकारात्मकता के सकारात्मक पहलू|
ReplyDeleteजिन पहलुओं का जिक्र आपने किया है, ये वो नकारात्मकता नहीं है जिसे आम बोलचाल में हम लोग लेते हैं| कोई भी नीति बिना इन सब बातों पर विचार किये नहीं बनती| ऐसा हुआ तो क्या होगा के साथ ऐसा न हुआ तो क्या होगा, इस पर भी हमेशा विचार करना चाहिए| प्रबंधन में SWOT analyis जहां स्ट्रेंथ की बात करता हैं वही वीक्नैसेस, ओपोर्चुंनिटीस और थ्रेट्स की बात भी करता है| इस सबके अलावा, मैं तो इसका सबसे ज्यादा उपयोग सूडोकू हल करने में करता हूँ, कि इस बोक्स में ये नंबर नहीं आ सकता:)
सरस्वती मैया आपको नोबेल शान्ति, नोबेल साहित्य, नोबेल फिजिक्स, नोबेल कैमिस्ट्री वगैरह सभी श्रेणियों के पुरस्कार दिलवाएं| नकारात्मकता का उपयोग करते हुए हम तो कहेंगे कि नोबेल से नीचे तो कुछ सोचना ही नहीं है:)
@ नकारात्मकता के सकारात्मक पहलू
Deleteमेरी पोस्ट के लिए बेहतर शीर्षक !
व्यावसायिक क्षेत्र में जरुर इसको महत्व देते होंगे किन्तु आम जीवन में तो लोग बस आच्छा अच्छा ही सुनना पसंद करते है और चाहते है की सामने वाला बस उनकी हा में हा मिलता रहे नहीं किया तो आप नकरात्मक सोच वाले है और सुडोको तो मै भी इस तरह ही हल करती हूँ मुझे लगता है यही बेहतर तरीका है | नोबेल के लिए अब इतना भी मत कहिये की पहले ही नकरात्मक सोच आ जाये की सरस्वती माँ के मन में :)
gandhi ji ne pin rakh liya tha ye kahkar ki jo kam ki cheez hai vah main rakh raha hoon jo bekar hai use hata raha hoon .sach hai ki kabhi kabhi nakaratmak soch bhi hamare liye sahi sabit hoti hai aur hame bahut si pareshaniyon se bacha leti hai.बहुत सुन्दर प्रस्तुति.आभार. मोहपाश को छोड़ सही राह अपनाएं . रफ़्तार ज़िन्दगी में सदा चलके पाएंगे .
ReplyDeleteइस तरह के कहानिया कितनी सच होती है पता नहीं इसलिए जितनी मुँह उतने वर्जन सामने आते है, मैंने भी बस कही पढ़ा था |
Deleteआपका मुख्य पेराग्राफ इतना लम्बा हो गया है कि पढने में कठिनाई हो रही है- (नकारात्मक भाव)। जीवन में अच्छे और बुरे की हमेशा विवेचना होनी चाहिए।
ReplyDeleteअजित जी
Deleteआप सही कह रही है पैरा ज्यादा लम्बा हो गया है पहले दो पैरे बनाये थे तो अचानक याद आया की ज्यादा पैर होने पर भी किसी ने टोक दिया था :(
सकारात्मक या नकारात्मक भाव स्वयं में कुछ नहीं हैं,वे हमारे ऊर्जा-स्तर के प्रतीक मात्र हैं। इसमें भी संदेह नहीं कि हमारी सोच का न सिर्फ हम पर,बल्कि हमारे परिवेश पर भी असर पड़ता है। शुभ बोलना हमारे जीवन का अंग होना चाहिए,बात चाहे दूसरों के बारे में ही क्यों न हो। जिस दिन व्यक्ति में यह परिवर्तन होगा,उसे न तो किसी ग्रंथ की आवश्यकता रहेगी,न पुरस्कार की!
ReplyDelete@शुभ बोलना हमारे जीवन का अंग होना चाहिए,बात चाहे दूसरों के बारे में ही क्यों न हो।
Deleteकिन्तु यदि व्यक्ति वैसा हो ही नहीं की उसके बारे में कुछ शुभ अच्छा बोला जाये और कोई हम से उसके बारे में राय मांग रहा हो तो क्या हमें अच्छा अच्छा बोलने की जगह राय मांगने वाले को सच ना बता दिया जाये कही हमारा शुभ बोलना उसके हनी ना करा दे |
जिसे आप नकारात्मक सोच कह रही हैं, असल में वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। किसी भी घटना या समस्या के बारे में हर पहलू से सोचना नकारात्मकता नहीं है।
ReplyDelete*
सरस्वती मैया पता नहीं हैं भी कि नहीं। और अगर हैं तो पता नहीं उन्होंने सुना कि नहीं। लेकिन हमने तो सुन लिया है,सो अभी से बधाई दे देते हैं।
बीमा आदि इसी सोच के अंतर्गत लिया जाता है. प्लैन बी ही नहीं सी भी बनाना पड़ता है. वे मूर्ख होते हैं जो अपनी वसीयत नहीं करते.
ReplyDeleteकिन्तु यह थोड़ा सा नकारात्मक भी सोचने का गुण किसी को सिखाया नहीं जा सकता.
घुघूतीबासूती
अंधविश्वासी शुभ-शुभ की कामना करता है, बुरा होने पर किस्मत को कोसता है।
ReplyDeleteज्ञानी सिक्के के दोनो पहलू पर विचार करता है और शुभ की कामना करता है। बुरा होने पर किये गये कार्यों की समीक्षा करता है। जान जाता है कि मैने कहाँ गलती करी।
योगी दोनो पहलू पर विचार करता है। अच्छे और बुरे को सम भाव से स्वीकार करता है।
सकारात्क सोच से आशय केवल अपने लिए नहीं सभी के भले की कामना से भी है। सभी, सभी के भले की सोचने लगें तो सोचिए यह संसार कितना अच्छा हो जायेगा।
Jaaki rahi bhawna jaisi.
ReplyDelete............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
सुन्दर आलेख के लिए बधाई...
ReplyDeleteमुझे लगता है कि हमारे ऊपर सकारात्मक होने का बहुत दबाव है. न्यू एज थिंकिंग ने भी यह विचार थोपना शुरू कर दिया है कि विश्व और विचार ऊर्जा की तरंगों से बनते हैं और नकारात्मक विचारों की तरंगें सकारात्मक विचारों और परिवेश को नष्ट कर देतीं हैं. मेरी समझ से यह सब छलावा है और पाखण्ड को बढ़ावा देता है. वस्तुतः हमें सिर्फ सत्य बोलना चाहिए और अप्रिय सत्य या तो बोलना नहीं चाहिए या सोच-समझकर बोलना चाहिए. मैं इसी बात पर अमल करता हूँ.बाकी बातें या तो मन को केवल दिलासा देतीं हैं या भ्रम में रखतीं हैं.
ReplyDeleteएक उदाहरण देता हूँ: हमारे यहाँ बेटे को हर मंगलवार को हनुमान दर्शन कराने का नियम है. उसकी तबीयत अक्सर ख़राब रहती थी इसलिए श्रीमती जी ने यह नियम बाँध लिया कि हर मंगलवार को उसके हाथ से हनुमान मंदिर में गुड़ रखाया जाए. अब, उसे मंदिर ले जाने की जिम्मेदारी मुझपर है लेकिन हर मंगलवार यह नहीं हो पाटा. कभी तो बात दिमाग से उतर जाती हैं, कभी कोई ज़रूरी काम आ जाता है इसलिए दफ्तर से लौटने में देरी हो जाती है, कभी बारिश-पानी. ऐसे में यदि कोई मंगलवार छूट जाता है तो श्रीमती जी को बहुत परेशानी होने लगती है. बच्चे हैं, सर्दी-बुखार चलता रहता है. किसके बच्चे साल भर पूरे भले-चंगे रहते हैं? लेकिन मैं जब ऐसे नियमों की व्यर्थता की बात करता हूँ तो मैं नकारात्मक बन जाता हूँ, लेकिन उनका हर समय बच्चों की तबीयत को दान, दर्शन और पूजा आदि से जोड़ते रहना क्या नकारात्मकता नहीं है?
आप की बात से सहमत हूँ की आज कल कुछ ज्यादा ही सकरात्मकता का राग आलाप जाता है मेरी पोस्ट भी उसी कारण थी | पत्नी का किया आप के लिए नकरात्मक है उनके लिए तो ये एक अच्छा कदम है , मेरी माता जी भी कई बार कहती थी की मेरी बेटी की नजर उतार दी तो इसमे बिगड़ ही क्या जायेगा कोई नुकशान तो नहीं हो रहा है ना , तो मै जवाब देती थी की की बीमारी है तो ठीक तो होगा ही अपने आप हो या दवा से हो नजर उतारने से तुम्हारा ये भ्रम बढेगा की बिटिया ठीक नजर उतारने से हुई है ( डरती थी ये भ्रम मुझे भी ना हो जाये ) अगली बार बीमार पड़ने पर डाक्टर के यहाँ ले जाने की जगह नजर उतारने के लिए कहोगी | मेरी बेटी आज ५ साल की हो गई है मैंने आज तक एक बार भी उसकी नजर नहीं उतारी है हा एक दो बार माता जी ने ही उतारी है , जब मात्र 2 माह की थी तो माता जी ने एक बार काजल लगाया था उसके बाद मैंने कभी काजल या उसका टिका नहीं लगाया , कभी मूंगा , चाँद तारा आदि भी धारण नहीं कराया | किन्तु एक बात याद रखिये की बच्चो के मामले में होगा वही जो उसकी माँ चाहेगी :))) बछो के मलाले में मते कुछ ज्यादा सतर्क होती है वो कही से भी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है वो पूरी तरह से दिल से सोचती है ,आप बस एक काम कर सकते है वो ये की बेटे को कोई नुकशान ना हो और बाकि जितनी तरह की अहानिकारक क्रिया कलाप हो वो आप को करना ही पड़ेगा :)
Deleteसब सोच का खेल है हर इंसान की अपनी एक आला सोच होती है जिसके आधार पर यह तय होता है कि वह सोच सकरात्म्क है या नकारात्मक हाँ कभी-कभी सोच परिस्थियों पर निर्भर हो जाती है मगर आपकी इस बात से सहमत हूँ कि कोई भी कार्य को करने से पहले उससे जुड़े सभी पहलुओं पर विचार कर लेना ही समझदारी है। क्यूंकि होनी, होकर ही रहती है उसे कोई नहीं टाल सकता। मगर अपनी ओर से सावधानी बरतना ही एक समझदार इंसान कि पहचान है।
ReplyDelete
ReplyDeleteमैं भी हमेशा यही बोलता हूँ, भगवान् कभी भी तथास्तु बोल सकते हैं... इसलिए... अच्छी अच्छी बातें करनी चाहिए... लेकिन वो कहते हैं न
Hope for the BEST BUT Be Prepared for the WORST...
बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteबधाई
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।