September 18, 2010

कही आपकी श्रद्धा किसी की मुसीबत ना बन जाये - - - - - - - mangopeople

सात वार और नौ त्यौहारों के हमारा देश में हर तीज त्यौहार को मनाने का उत्साह एक जैसा ही होता है क्या होली क्या गणपति पूजा क्या दुर्गा पूजा और क्या दीवाली सभी त्यौहार बड़े धूम धाम और बड़े शोर गुल जी हा शोर गुल के साथ मनाया जाता है बिना इस बात की फ़िक्र करे की इससे किसी और को परेशानी हो सकती है | पूजा पंडालो में बजता तेज संगीत हो या मूर्तियों के आगमन और विसर्जन के समय बजता ढोल नगाड़ा या पटाखों का शोर या घंटो सड़क पर नाच नाच कर उसको जाम करना हो सब कुछ बिना किसी चिंता बिना किसी फ़िक्र के दिल खोल कर बजाया और किया जाता है | एक सामान्य आदमी तो इसे श्रद्धा के कारण सह भी ले पर उनका क्या जो बीमार हो जिनकी परीक्षाये हो जिनसे दस दस दिन तक रोज सुबह शाम ये शोर ना बर्दाश्त होता हो जो चैन से सोना चाह रहे हो या जिसके पास श्रद्धा ना हो या किसी और धर्म का हो | अभी हाल ही में मैंने समाचार पत्रों में पढ़ा की किसी ने इस बात पर फतवा लिया है की क्या रोजा रखने वालो को सुबह बार बार मस्जिद से  अजान लगा कर जगाना सही है क्योंकि इससे बीमार लोगों बच्चों और दूसरे धर्म के लोगों को परेशानी होती है | फतवा दिया गया की हा ये गलत है | फतवे के बाद भी क्या इस बात को सभी ने माना, नही | जब लोग कोर्ट के दिए आदेश को भी हर जायज़ - नाजायज तरीके से तोड़ने की कोशिश करते है उससे बचने की कोशिश करते है तो किसी और की वो क्या बात सुनेंगे | फिर कोर्ट ने ये तो कह दिया की रात दस बजे के बाद गाना बजाना मना है और उसके आदेश के कारण दस बजते ही सारे बड़े बड़े स्पीकर बंद हो जाते है पर जो सुबह आठ बजे से बारह बजे तक और शाम को चार बजे से दस बजे तक इन भोपुओ से तेज संगीत बजाय जाता है उसको कैसे रोका जाये और रात दस बजे के बाद विसर्जन के लिए जाती मूर्तियों के साथ होने वाले शोर को कैसे रोका जाये | उस पर से वो कभी कभी तो एक ही जगह रुक कर घंटो नाचना शुरु कर देते है बिना ये सोचे की उनके ऐसा करने से उनके पीछे हजारों लोग जाम में फस जा रहे है जिनमे से कुछ लोग ज़रुरी काम से जा रहे होंगे या कोई बीमार अस्पताल जा रहा होगा | इसी तरह होली के हुड़दंग और दीवाली के पटाखे भी लोगों को परेशान करते है | जब होली के कुछ दिन पहले से ही घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है मुंबई दिल्ली जैसे शहरों में तो नहीं पर उत्तर भारत के छोटे शहरों में कोई भरोसा नहीं होता की कब कौन कहा से आप के ऊपर रंग डाल दे और आप के कपड़े ख़राब होने के बाद कह दे की बुरा न मानो होली है | सबसे ज्यादा मुसीबत लड़कियों और महिलाओ को होती है रंगों के साथ ही हुड़दंगियो से | उसी तरह दसहरे के बाद से दीवाली बीतने के चार दिन बाद तक पटाखों का शोर कान के परदे फाड़ता रहता है |
कुछ लोग यह भी कहते है कि "जी ये तो साल का त्यौहार है कौन सा रोज रोज आने वाला है दो चार दस दिन उत्सव मना भी लिया तो किसी को क्या परेशानी है" | तो मैं आप को सिर्फ अपनी परेशानी बताती हुं | जन्माष्टमी के एक महीने पहले से ही  गोविन्दाओ की टोली तेज तेज गाने बजा कर अभ्यास करती रही जन्माष्टमी बीता फिर गणपति आ गया अब इसमे भी गये बारह दिन भजन सुनते फिर तुरंत ही नवरात्रि आ जाएगी फिर दस दिन गये देवी भजन सुनते या डांडिया पंडालो में बजते फ़िल्मी गानों को, फिर पंद्रह दिन बाद ही पटाखे बजने शुरु हो जायेंगे क्योंकि दीवाली पास होगी और दीवाली के चार दिन बाद तक ये पटाखे बजते रहेंगे | साल का त्यौहार बस एक दो दिन का उत्साह के नाम पर मैं पूरे चार महीने जुलाई अगस्त से अक्तूबर नवंबर तक ये सब हर साल झेलती हुं | एक स्वस्थ , सामान्य इन्सान होने के कारण ये सब झेल लेती हुं पर जो बूढ़े है बच्चे है  बीमार है उनका हाल क्या होता होगा |
क्या भगवान के प्रति श्रद्धा दिखाने या कोई उत्सव या त्यौहार मनाने का बस यही तरीका है | क्या हम थोड़ा और अनुशासित हो कर अपने तीज त्यौहार नहीं मना सकते है | मैं ये नहीं कहती की होली पर रंग ना खेला जाये पर इसे होली को एक दिन और अपने करीबियों तक ही सीमित किया जा सकता है जो नहीं चाहते या जो आप से अजनबी है उन्हें रंगने की जरुरत ही क्या है | क्या दीवाली पर तेज आवाज़ के पटाखे बजाने ज़रुरी है हम रोशनी वाले कम आवाज़ वाले पटाखे बजा कर और दो दिन पटाखे बजा कर भी दीवाली मना सकते है उसके मजे ले सकते है | पूजा पंडालो में इतना तेज और देर तक संगीत बजाने की जरुरत ही क्या है | पूजा पंडालो का मजा तो उसे देखने आये लोगों के उत्साह से है ना की तेज बजते भजनों से | ये भी नहीं कह सकते है की तेज बजते भजन पंडालो के होने की सूचना देता है पंडाल तो खुद में इतने बड़े होते है की कोई भी उसे देख सकता है फिर लाईटो की सजावट तो खुद ही इस उत्साह में बढ़ोतरी करता है | मुंबई में हर साल मैं विसर्जनविसर्जन के दौरान भी देख चुकी हुं | ये श्रद्धा का कौन सा रूप है क्या ये सही है | निश्चित रूप से हमें अपने अराध्य के विसर्जन के समय हमें ख़ुशियाँ मनानी चाहिए पर इसके लिए सारे रास्ते नाचने की क्या आवश्यकता है ये काम हम पंडाल के पास और फिर विसर्जन स्थल के पास भी कर सकते है या फिर चलते  हुए करके |
मुझे याद है की जब मैं छोटी थी तो मुझे भी पटाखे जलाना अच्छा लगता था आवाज़ जितनी तेज होती मजा उतनी ही ज्यादा आता था पर बड़े होने के बाद दूसरों की परेशानी देख कर और इससे होने वाले शोर को देख कर वो सब बुरा लगने लगा और पटाखे जलाने बंद कर दिया अब आप कब बड़े होंगे | 



 

26 comments:

  1. @अंशुमाला जी
    लेख अच्छा है , सीख भी दे रहा है
    पर कुछ है जो थोड़ा थोड़ा चुभ रहा है
    मैं दावे से नहीं कह सकता पर श्रद्दा की जगह उन्माद या ऐसा कोई शब्द नहीं आना चाहिए
    क्योंकि सबसे जयादा परेशानी [इस प्रकार की ] शादियों के कथित सीजन में होती है
    अब समस्या तो वही है [ध्वनि प्रदूषण ] पर श्रद्दा का इस स्थान पर कोई प्रयोग नहीं कर सकता [मैं शादी विवाह की ही बात कर रहा हूँ ]
    मैं विरोध नहीं कर रहा हूँ पर क्या मैं सही हूँ?? , वैसे व्यंग्यात्मक दृष्टि से आपकी बात बिलकुल ठीक लगती है

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  2. आज थोड़ी असहमति की इज़ाज़त है....?
    वैसी ही अधुनिकता की अंधी दौर में हम कई परंपराएं बिसराते जा रहे हैं।

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  3. गौरव जी

    आप सही कह रहे है शादियों में भी तेज संगीत बजता है पर वो ज्यादातर एक दिन के लिए होता है | मंदिरों में भी जब शिव रात्रि आदि पर्वो पर एक दिन के लिए भजन बजता है तो कोई परेशानी नहीं होती है पर जब ये क्रम दस दस दिन तक चलता रहे तो परेशानी बन जाती है | मुझे लगता है की पूजा पंडालो में बजने वाले भजन श्रद्धा के कारण बजते है उन्माद में नहीं हा वो नाचते है वो जरुर उन्माद होता है |

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  4. मनोज जी

    आप सही कह रहे है की हम आधुनिकता के साथ काफी कुछ भूलते जा रहे इसी लिए तो मैंने भी इनको बिल्कूल बंद करने की जगह थोडा कम करने अनुशासित होने की बात की है |

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  5. @शादियों में भी तेज संगीत बजता है पर वो ज्यादातर एक दिन के लिए होता है
    हा हा हा मुझे पता था वही "एक दिन" वाली बात होगी इसीलिए मैंने "शादियों का कथित सीजन" कहा था

    चलिए जो भी हो पोस्ट बहुत अच्छी है मूल भावना आसानी से समझ में आ रही है , और क्या चाहिए ?? :)

    इसी तरह लिखती रहिये

    आभार :)

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  6. गौरव जी

    शुक्र है आपने पोस्ट की मूल भावना समझ ली :)

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  7. @ अंशुमाला जी

    शब्दों में क्या रखा है बात तो भावनाओं की ही है, [मैं बेसिकली उसी पर ध्यान देता हूँ इसीलिए तो होते हैं आए दिन पंगे] :)

    आप से बात करना हमेशा सुखद ही होता है कभी कभार कम्युनिकेशन में गड़बड़ को इग्नोर कर सकते हैं :)

    इन मुद्दों का साइज बड़ा हैं ना यह भी एक कारण हो सकता है, कोई बात नहीं, सब ठीक है :)

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  8. अन्शुमालाजी..... पोस्ट का विषय अच्छा है....
    बस बात इतनी है की दूसरों का कुछ ख्याल कर कोई भी काम किया जाय
    तो सभी के लिए बेहतर है....

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  9. आपने सवाल सही उठाया है। हम लोग इतने परिपक्व नहीं हुये हैं कि सर्वसमाज के हित की सोच सकें। सबको सिर्फ़ अपने हिस्से के पुण्य, लाभ आदि की चिन्ता है। और इस सबमें कोई भी धर्म और मजहब पीछे नहीं है। कानून भी हैं, लेकिन उनका पालन नहीं होता।
    इस शोर शराबे वाली बात पर और ऐसी बातों पर एक दूसरे कोण से देखिये, हम एक धर्मनिरपेक्ष देश में रह रहे हैं। मुझे ये पसंद है या नहीं, ये अलग बात है लेकिन हमारा संविधान, हमारा कानून इसे धर्मनिरपेक्ष दर्जा देता है, तो हमें उसे मानना ही चाहिये। लेकिन जब सरकार द्वारा और राजनैतिक पार्टियों द्वारा एक विशेष समुदाय को छूट, चाहे वो हज सब्सिडी के जरिये हो या जायरीन के लिये शिविर लगाकर हो, वहाँ तक तो हमें स्वीकार्य है लेकिन यदि कांवड़ के लिये कैंप लगाये जायें तो आपने देखा ही होगा कि ब्लॉगजगत पर भी कितनी बहस चली थीं। होली पर ’save water’ और दीवाली पर ’say no to crackers' के सरकारी विज्ञापनों से अखबारें पती रहती हैं, लेकिन ’वैलेंटाईन डे’ या ’फ़्रैंडशिप डे’ पर मैंने आजतक कोई अपील नहीं पढ़ी कि पब्लिक स्थानों पर संयम से काम लिया जाये। उस समय व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नारा बुलंद हो जाता है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि जब कानून सब को एक नजर से देखता है तो उसके execution में भी एकरूपता होनी चाहिये। शायद विषय से ज्यादा विचलन तो नहीं हुआ।
    a fittest post by virtue of manopeople.

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  10. संजय जी

    ऐसा नहीं है की सरकार हिन्दुओ के लिए कुछ नहीं कर रही है | जहा तक मेरी जानकारी है मानसरोवर यात्रा काफी कम कीमत पर सरकार कराती है निजी टूर वाले तो लाखो रूपये लेते है | कावड यात्रा के समय भी सभी तीर्थ स्थलों पर वही व्यवस्था करती है बिना किसी कावडीये से कुछ लिए उसी तरह छोटे मोटे मंदिरों मेलो में जो व्यवस्था होती है वो कई बार सरकार द्वारा ही किया जाता है | जिस तरफ अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता है | रही बात तुष्टिकरण वाली निति की है तो ये तो राजनितिक दलों की गलती है उनकी वोट बैंक की राजनीति है | वोट बैंक की राजनिती से तो कोई भी नहीं बच पाया है अब देखिये पूरी दुनिया के बाजार को ओपन करने वाला अमेरिका अब आउट्सोर्सिंग बंद कर रहा है सिर्फ कुछ समय के लिए वहा पर कुछ चुनाव होने वाले है उनके बाद ये फिर से शुरू हो जायेंगे |

    रही बात पानी बचाओ और पटाखों के जलाने के तो मै भी शायद यही बात कह रही हु | आज के युवा को नसीहत भाषण या डरा कर हम कुछ नहीं करा सकते है उनसे तो इन मुद्दों पर बात की जा सकती है परिवार, दोस्तों, अध्यापको द्वारा |

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  11. अंशुमाला जी,
    पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूं...आपके विचारों से तो आपके कमेंट्स के ज़रिए परिचित हूं...यहां आकर और भी अच्छा लगा...

    समस्या यही है कि हमने धर्म को अफीम की गोली की तरह बना लिया है...जिसको खाने के बाद इंसानियत की भी सुध नहीं रहती...दिक्कत वहीं से शुरू होती है जब हम अपने आराध्यों को गली-मोहल्ले के चौराहों पर लाकर बिठा देते हैं...पूरी वोकल-पावर और हाई-फाई साउंड सिस्टम के साथ जागरण करने वाली मंडलियों का अगर कोई सच जान ले तो शर्म से वहीं गढ़ जाए...ये सब दिखावा अपमैनशिप के लिए किया जाता है...कहीं सड़कों पर महाआरती की जाती है तो कहीं सड़कों पर ट्रैफिक को अवरूद्ध कर शबेरात पर पटाखे छोड़े जाते हैं...निदान सिर्फ एक ही नज़र आता है जो हमारे देश में व्यावहारिक होने में अब भी काफी वक्त लगेगा...धर्म को घर पर मानना चाहिए...घर से बाहर काम पर आ गए तो सिर्फ भारतीयता आपका धर्म होना चाहिए...आपमें सही मायने में भारतीयता होगी तो दूसरे की परेशानी को समझना आप खुद-ब-खुद सीख जाएंगे...

    जय हिंद...

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  12. ये सच है कि लगातार होने वाला शोर श्रद्धा के कारण हो या उत्सव के कारण , बीमार ,वृद्धों को परेशान करता है ...
    मगर वहीँ यह बात भी सच है कि त्यौहार का उल्लास भी जरुरी है ...दोनों के बीच संतुलन होना चाहिए ...!

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    .
    .
    अंशुमाला जी,
    आपने सही सवाल उठाया है...पर सबसे बड़ा सच यह है कि भीड़ हमेशा भीड़ के जैसा ही बर्ताव करती है...और सभ्य नागरिक सभ्यों सा... चाहे लाउड स्पीकर का प्रयोग हो या आयोजनों/पूजा/नमाज के नाम पर सड़क घेरना... हर एक के लिये कायदे बने हैं... पर जिनके ऊपर इन कायदों को लागू करवाने का दायित्व है...वह भी भीड़ का हिस्सा बन गये हैं... और भीड़ की मानसिकता को 'जनभावना' कह जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं...

    हमारी ज्यादा से ज्यादा आबादी नागरिक बने, भीड़ नहीं...इसी में इस समस्या का हल है।


    ...

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  14. मोनिका जी

    समस्या यही तो है की हम आपने आगे किसी और की सोचते ही नहीं है |

    खुशदीप जी

    धन्यवाद

    आपने सही कहा भारतीयता की भावना ना केवल इस समस्या को बल्कि देश की कई समस्याओं को हल कर सकती है |

    प्रवीण जी

    @जिनके ऊपर इन कायदों को लागू करवाने का दायित्व है...वह भी भीड़ का हिस्सा बन गये हैं...

    हाल में ही रविश जी की अयोध्या पर एक रिपोर्ट देखी जिसमे दिखाया गया की वहा की सुरक्षा के लिए तैनात बटालियन ने सरयू नदी के किनारे एक छोटे से मंदिर का निर्माण करा दिया | अब बताइये इसका क्या किया जाये | सही कहा आपने यदि क़ानूनों का पालन कराने वाले आपने पूरी ज़िम्मेदारी निभाये तो कोई समस्या ही ना रहे |

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  15. जागरूक लिखा है ... समाज में सभी को कुछ संवेदनशील बनना होगा ... दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखना होगा .... सभी समाज का प्रारूप समझना होगा ...

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  16. सोचने वाली बात है.. उत्तम आलेख के लिए आभार..

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  17. आपने सही कहा है की लोगों को दूसरे के बारे में सोचना चाहिए पर यही तो नहीं होता है और दुनिया की हर समस्या की जड़ भी यही है की हम सिर्फ आपने बारे में ही सोचते है दूसरो के बारे में नहीं |

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  18. सार्थक सोच पर आधारित पोस्ट....

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  19. i want your email id please can you email the same to me my id is on my profile

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  20. @समस्या यही है कि हमने धर्म को अफीम की गोली की तरह बना लिया है...जिसको खाने के बाद इंसानियत की भी सुध नहीं रहती

    @हाई-फाई साउंड सिस्टम के साथ जागरण करने वाली मंडलियों का अगर कोई सच जान ले तो शर्म से वहीं गढ़ जाए

    @निदान सिर्फ एक ही नज़र आता है जो हमारे देश में व्यावहारिक होने में अब भी काफी वक्त लगेगा...धर्म को घर पर मानना चाहिए...घर से बाहर काम पर आ गए तो सिर्फ भारतीयता आपका धर्म होना चाहिए.

    खुशदीप जी मेरा प्रणाम स्वीकार करें , एक दम सीधी चोट की है [वैसे मैं भारतीयता की जगह मानवता शब्द ज्यादा पसंद करता हूँ , फिर भी आपकी बात पर १०० प्रतिशत सहमत हूँ ]

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  21. aapne to ankhen hi khol di:))
    bhare traffic ke beech doston ke saath baaraton me naachte hue hamne to kabhi socha bhi nahi tha ki isse dusro ko kitni pareshani ho sakti hai.haalanki thoda sudhaar to hum already kar hi chuke hai.ab kam se kam begaani shadiyon me to nahi hi naachte:))bachpan ki baat kuch aur thi.kai baaraton ko jabardasti late karwaya tha.par aap kahti hai to aage se dhyaan rakhenge.post achchi lagi.

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  22. itni late aane par to tippanee bhi baasi lagne lagti hai.par kya kare baaraton ko late karate karate khud ke bhi late hone ki aadat pad gai hai.

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  23. anushashit hokar kuch bhi kare to bura nahi hai....aapka kahna bhi sahi hai!

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  24. A perfect balance is required in all spheres.

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  25. गणेशचतुर्थी के दिनों में नींद पूरी करने के लिए मैं मुंबई से बाहर चला जाता था. मैं नहीं समझता कि शोर से श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है. शोर तो शोर है.

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