भारत में चीजो को तब तक घिसा जाता है जब तक की उसे घिस सकते है या तब तक जब की चीज की इज्जत ना उतार जाये या अपनी इज्जत ना उतरने लगे, चीजो का एक एक कतरा हम प्रयोग करते है | सबूत के तौर पर किसी के घर से फेकी जा रही टूथपेस्ट के ट्यूब की हालत आप देख लीजिये उसकी हालत बात देगी की कैसे उसमे से पेस्ट का आखरी कतरा भी निकालने के लिए उस पर क्या क्या जुल्म नहीं किये गये है किस किस तरह से उसे नहीं तोडा मरोड़ा गया है कभी कभी तो उसे काट कर उसमे से काछ कुछ कर पेस्ट निकाल ली जाती है ,और टूथ ब्रस बनाने वाली कंपनिया भले चिल्लाती रहे की अपने ब्रस हर तीन महीने में बदल दे लेकिन कोई भी उनके अपने सामान की बिकी बढ़ाने वाले चोचलो में नहीं पड़ते है हम सब से तो उसे तब तक नहीं बदला जाता, जब तक की वो बिल्कुल घिस कर काम करने के लायक ना रहे |
असल में हम भारतीय हर चीज की पूरी कीमत वसूलना जानते है | याद है बचपन में वो हवाई चप्पल उसकी सबसे पहले आगे से बेल्ट टूट जाती थी तुरंत मोची को आठ आना दे कर सिलवा लिया जाता था क्या मजाल की किसी के दिमाग में उसे फेकने का खयाल भी आ जाये | जब मोची की सिलाई भी दो तीन बार करवाने के बाद बेकार हो जाये तो पिता जी से शिकायत होती थी, नहीं नही उसे फेक कर दूसरी लाने की फरमाइश नहीं होती, कहा जाता की अब तो इसके लिए नया पट्टा ला दीजिये और सात रुपये में नया पट्टा आ जाता और चप्पल फिर से काम के लायक हो जाती पर कई बार ये भी होता था की आगे का छेद ही बड़ा हो जाता था और पट्टा बार बार उसमे से निकल जाता था उसके बाद भी उसे बदलने का ख्याल नहीं आता चलते चलते या खेलते दौड़ते समय बार बार निकलता था तो तुरंत रुकते चप्पल का हाथ से उठते छेद में फीर से पट्टे का सर घुसाते और काम पर चल जाते | चप्पल तब तक नहीं फेकी जाती थी जब तक की वो पीछे से घिस कर पैर को गन्दा करना ना शुरू कर दे और जूतों में जब तक छेद ना हो जाये | फटे और अंगूठा दिखाने वाले मोजो की तो बात ही मत कीजिये वो तो हर दूसरे के पैर में नजर आ जाता था ( है ) |
कपड़ो की भी यही हालत थी रंग फीका हो जाना या घिस जाना कभी भी उसे फेकने या छोड़ने की वजह नहीं बनती थी उसे तब तक घिसा जाता था जब तक की वो फट ना जाये | बाहर कही पहने जाने वाले कपडे ही रंग उड़ने पर छोड़ा जाता था मतलब की उसे बाहर पहन कर जाना छोड़ा जाता था फिर उन कपड़ो को घर पर पहना जाने लगता था तब तक जब तक की वो पूरी तरह फट ना जाये | जी नहीं इसमे उधडी हुई सिलाई नहीं जोड़ी जाती है उसे तो सिल कर फिर से पहनने के लायक (?) बना दिया जाता था | उसी तरह शर्ट की कॉलर घिस गई कोई बात नहीं अभी तो बहुत चलेगा दर्जी को बीस रुपये दे कर कॉलर पलटवा लिया जाता है अरे अभी तो इस शर्ट को काफी चला सकते है बाकि जगह तो ठीक है | यहाँ तक की थोडा बहुत दाग लगे कपडे भी नहीं फेके जाते थे रखा दो जाड़े के दिनों में स्वेटर के निचे पहनने के काम में आयेंगे | पैंट घुटने से फट गया कोई बात नहीं जी काट कर हाफ पैंट बना दो | माँ की पुरानी साड़ियाँ यदि फटी नहीं है तो बर्तन खरीदने के काम आती थी यदि कही से फट गई है तो कई पुरानी फटी साड़ियों को साट साट कर कथरी ( घर में कपडे से बना पतला गद्दा ) बना दो |
पुराने स्वेटर का रंग पहन पहन कर उतर गया है या स्वेटर चढ़ कर छोटा हो गया है या तो उसे खोल कर दूसरे रंग मिला कर घर पहनने के लिए स्वेटर बना दो या फिर उस चढ़े स्वेटर को छोटे भाई को दे दो | कई बार देखा है की घर का बना कोई स्वेटर दस बीस रंगों का होता है देखते ही समझ आ जाता है की ये किसी के कल्पना या रचनात्मकता के रंग नहीं है सालो से कई स्वेटरो से बचे ऊन का एक बढ़िया प्रयोग भर है, यानी बचा ऊन भी लाख ( काम ) का | हम तो बित्ता दो बित्ता पतंग का नख भी नहीं फेकते थे उससे हाथ से पेंच लड़ने का खेल खेल लेते थे | साबुन घिस का छोटा हो गया कोई बात नहीं अभी तो काफी बड़ा टुकड़ा है अभी तो काफी काम आयेगा उसे टायलेट के बाहर रख दो हाथ धोने के काम आयेगा |
लिस्ट तो बहुत लम्बी है अब किस किस का नाम ले | कहने का अर्थ ये है की हम सामान क्या यहाँ तो आदमी खुद को भी तब तक घिसते है जब तक उसे घिसा जा सके | भरोसा नहीं है तो देख लो दादा को, अरे मेरे नहीं देश के दादा सौरभ दादा को ,आई पी एल में खिलाडियों की दो दिन नीलामी हुई पर हमारे गांगुली दादा को एक भी खरीदार नहीं मिला सब जानते है की दादा अब उपयोग के लायक घिसे जा चुके है उनमे अब कुछ नहीं बचा है लेकिन दादा है की मानने को तैयार ही नहीं है | उनको लगता है की थोडा काछ कुछ कर वो अब भी थोडा और घिसे जा सकते है | कहा था ना कि हमरे यहाँ लोग तब तक नहीं मानते जब तक कि उनकी इज्जत ना उतरने लेगे अब बताइये की अब क्या इज्जत बची दादा की, कि कोई खरीदार नहीं मिला | कुछ समझदार थे अनिल कुम्बले जैसे जो पहले ही बात को ताड़ गये और समझदारी दिखा कर पहले ही नाम वापस ले लिया और कह दिया कि वो आई पी एल से जुड़े तो रहेंगे पर खिलाडी के तौर पर नहीं | लेकिन गांगुली ने पिछली बार उनकी और उनकी टीम की फजीयत देख कर भी हकीकत को समझने से इनकार कर दिया और नतीजा सबके सामने है | अब शाहरुख़ ने उन्हें टीम से जुड़ने का प्रस्ताव तो दिया है लेकिन एक खिलाडी के तौर पर नहीं शायद उनकी इज्जत बचाने के लिए या ये कहे की उनका प्रयोग किसी और रूप में करने के लिए | यानी अब वो नहाने के नहीं हाथ धोने के लिए प्रयोग किये जायेंगे |
सौरभ ऐसा करने वाले पहले भारतीय खिलाडी नहीं है भारत में तो इसकी लम्बी लिस्ट है | खिलाडी तब तक खेल से सन्यास नहीं लेते है जब तक कि उन्हें टीम से निकाले बरसों ना हो जाये | अपना अच्छा दौर निकलने के बाद भी वो बार बार टीम के अन्दर बाहर होते रहते है लेकिन सन्यास नहीं लेते है जब तक की चयनकर्ता उन्हें टीम में लेने से साफ इनकार ना कर दे उसके बाद भी कई खिलाडी लगे रहते है टीम में वापसी की कोशिश में | वही कई विदेशी टीमो में खिलाडी अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन के दौर में ही सन्यास ले लेते है शेनवार्न , गिलक्रिस्ट , मैग्राथ , नतिनी , मुरलीधरन कई नाम है जिन्होंने अपने अच्छे दौर में ही सन्यास ले लिया | इससे हुआ ये की जहा उनका सम्मान सन्यास के बाद भी बना रहा लोग उन्हें याद करते रहे वही नये खिलाडियों को भी खेलने का मौका मिला | लेकिन हमारे यहाँ तो कई सीनियर खिलाडी ये जानते हुए की अब उनके कैरियर में कुछ नहीं बचा वो सन्यास लेने की सोचते भी नहीं सब यही कहते है की अभी तो उनमे काफी खेला बाकि है | ये केवल आज की बात नहीं है भारतीय टीम में ये रोग हमेशा से था | आप में से काफी लोगों ने देखा होगा रवि शास्त्री को छ छक्के उड़ाते,पर जब से मैंने उन्हें देखा है तब से तो यही देखा था की मैदान में आते ही उनकी हुटिंग शुरू हो जाती उनकी वो बोरिंग टुक टुक देख कर तो इतना खीज आता था की हम तो उनके आउट होने की दुआ करने लगते थे और उनके आउट होने पर सब खुशी मनाते थे | वन डे मैच को भी टेस्ट से भी बोरिंग बना देने का हुनर था उनमे | पर क्या मजाल की उन्होंने सन्यास के बारे में सोचा हो |
सौरभ गांगुली अपने समय के सफलतम कप्तानो में एक थे कायदे से तो कप्तानी से हटाये जाने के बाद ही बाइज्जत सन्यास ले लेना चाहिए था जिस तरह उनके ही समय के आस्ट्रेलियन कप्तान स्टीव वॉ ने किया था लेकिन नहीं अपनी जिद में कई बार टीम से अन्दर बाहर हुए और फिर बड़े बेआबरू हो दबाव में सन्यास की घोषणा करनी बड़ी | अनिल कुम्बले और श्रीनाथ जैसे खिलाडियों ने भी समय रहते सन्यास ले लिया था , महान हरफनमौला खिलाडी कपिलदेव का भी प्रदर्शन अंत में ख़राब होने लगा था किन्तु उनके विश्व रिकार्ड के लिए उन्हें टीम में रखा जाता था और उन्होंने भी समझदारी दिखाते हुए रिकार्ड बनते ही सन्यास की घोषणा कर दी |
कुछ ऐसा ही हाल अब मेरे फेवरेट राहुल द्रविण का है पता है की अब एकदिवसीय टीम में वापसी नामुमकिन है फिर भी वो सन्यास की बात ना करके टीम में वापसी की बात करते है | अच्छा होता की वो एकदिवसी से सन्यास ले कर केवल टेस्ट मैच में खेलते | शुक्र है इस बार आई पी एल में उन्हें खरीदार मिला गया पर ये तो निश्चित है की ये उनकी आखरी डील आई पी एल में है उम्मीद करनी चाहिए की वो गांगुली वाली गलती नहीं दोहराएंगे और समय रहते सही फैसला लेंगे |
गांगुली को लेकर दुःख भी होता है कि आज भारितीय टीम का जो रूप है वो उन्ही की देन है उन्ही की सोच का नतीजा है एक समय डरी सहमी हर समय रक्षात्मक खेल खेलनेवाली टीम को सौरभ ने ही इतना साहस भरा की वो आगे आ कर फ्रन्ट फुट पर खेलना शुरू किया मैच बचाने के लिए नहीं जितने के लिए खेलने लगी | आज उसी गांगुली का ये हाल अपनी ना समझी के कारण हो रहा है | अब फूकते रहे कोलकाता वाले शाहरुख का पुतला जो होना है वो तो हो चूका अब दादा कितने घिसे जायेंगे |
आज तो गजब ही कर डाला। पूर्व में परम्परा रही है कि जैसे ही कप्तानी गयी और खिलाड़ी ने संन्यास लिया लेकिन अब तो घिस-घिस कर चन्दन लगाया जा रहा है और अपनी बेइज्जती का सरेआम जुलूस निकलवाया जा रहा है। हर आदमी रिंग में बना रहना चाहता है। पूर्ण तृप्ति मिली आजके आलेख से, इसलिए टिप्पणी में ज्यादा कुछ नहीं कहना है नहीं तो यहाँ भी घिसने की ही बात हो जाएगी। बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteघिसने पर बहुत बारीक नजर डाली है बधाई
ReplyDeleteदादा तो बेज्जती कराने के बाद चुप भी बैठ जाये शायद लेकिन हमारे देश के नेता जब तक मर नही जाते तब तक ना तो खुद चैन से बैठते है ना बैठने देते है।
ganguly was my favorite player....
ReplyDeletebelieve me cricket is not the only reason, he can still play better than laxman in t20 matches....
this is pure business and politics....
we miss u dada.....
बहुत ही बेहतरीन लिखा है, दमड़ी वसूलने की आदत तो हम भारतीयों में है ही.
ReplyDeleteपर ये खिलाड़ी तो अच्छे - खासे पैसे वाले हैं...फिर भी शायद मैच से मिलने वाली बड़ी रकम ही उन्हें,सन्यास नहीं लेने देती. हर पुराने खिलाड़ी की फजीहत देख चुके हैं.फिर भी ये लोग नहीं सीखते. जबकि चाहें तो कितने रूप में वे क्रिकेट से जुड़े रह कर लाइम-लाईट में बरकरार रह सकते हैं.
मेरी भी प्रार्थना है कि 'द वाल' राहुल द्रविड़ भी अपनी फजीहत यूँ ना कराएँ. और अपने मित्र अनिल कुंबले का अनुसरण करें.
वाह क्या घिस घिस कर धोया है ,अब सूखेगा कैसे.ये बेज्जती करने वाले न खुद चैन से रहते हैं न रहने देते हैं किसी को.
ReplyDeleteआपने मेरी पोस्ट पर एक सवाल किया था .पर आपका आई डी न होने की वजह से जबाब नहीं दे पाई मैं.कृपया अपना मेल आई डी दे दीजिए.
बहुत अच्छी पोस्ट है। कहीं भी छप सकने लायक। फ्लैशबैक में जाकर पाया कि मैंने भी वह सब किया था जिस-जिस की आपने याद दिलाई। मुस्कुराए और मन ही मन आपको धन्यवाद देते पूरी पोस्ट एक ही सांस में पढ़ गया। फिर लौटूंगा।
ReplyDeleteaapka post aisa hota hai ki na chahte hue bhi chehre pe ek pyari see hassi aa hi jati hai...:)
ReplyDeletelekin aapke iss baat se main sahmat nahi ki Ganguly aaj ke IPL ke layak nahi tha, aur is karan usko koi kharid daar nahi mila!
sab kuchh politics hai madam jee...nahi to hamare dada...gilchrisht, dravid, kaif, jaise bahut saare se bahut aage hain...anyway..hamare dil me to barabar basenge..:)
chahe aap jo kahen!
uss kam*** SRK se puchhna chahiye jo Pak ke players ko to lena chah raha tha par usko DADA se problem ho gayee...!
mere samajh se to DADA sirf IPL nahi Team India me bhi hota, agar politics nahi kheli jaati...kabhi aankh mat kar ke net west trophy ya dada ka sixer yaad kariyega...:)
हैरानी नहीं.
ReplyDelete...कई लोग ऐसे होते हैं जो बुढ़ाने पर भी चटख रंग और भड़कीले फ़ैशन से बाज़ नहीं ही आते न !
बात अगर क्रिकेट की हो रही है तो बाकायदा इज्जत के साथ चले जाने वालों में सुनील गावस्कर का नाम भी है। और क्रिकेट से जुड़ रहने का सवाल है तो गावस्कर,रविशास्त्री इसके बढि़या उदाहरण हैं। अब दादा को यह बात समझ में नहीं आ रही तो शायद यही तरीका है।
ReplyDelete*
वैसे दादा के साथ सनत जयसूर्या और ब्रायन लारा को भी किसी ने नहीं खरीदा। तो विचार इस पर भी करना चाहिए कि 20-20 दमखम का फटाफट खेल है। इसमें तो नया खून ही चाहिए।
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बहरहाल अंत तक घिसते रहना तो हमारी संस्कृति है अत: पैसा वसूलने तक चीजों का इस्तेमाल तो करना ही चाहिए न।
मध्यमवर्गीय परिवार की आदतों से लेकर खिलाडि़यों तक की जबर्दस्त समीक्षा। हमारी तरफ़ एक पुरानी कहावत है ’भरा मेला छोड़ना।’ कहीं से उसी समय हटना चाहिए जब लोग पूछें कि क्यों छॊड़ चले? न कि इस मंजर का इंतजार किया जाये कि लोग पूछें कि ’जाते क्यों नहीं?’
ReplyDeleteवैसे एक पुराने खिलाड़े हुये हैं जस्सु पटेल, जिन्होंने एक मैच में बहुत शानदार प्रदर्शन करने के बाद सन्यास ले लिया था, कारण यही बताया था कि इससे बेहतर दोबारा नहीं कर सकूंगा। वैसे पहली बार बाहर होने के बाद सौरव ने जो कमबैक किया था, वो अपने आप में एक नजीर ही है। टीम की सोच बदलने वाली बात विल्कुल सही कही है।
वैसे हो सकता है इन्होंने प्रेरणा पाकिस्तानी खिलाड़ी से ली हों(आपने तो इग्नोर कर दिया उन्हें, साम्प्रदायिकता के आरोप से डर नहीं लगता?) जो बार बार सन्यास लेते थे और फ़ैसला वापिस ले लेते थे:))
मेरी आधी टिप्पणी संजय जी दिमाग़ से उड़ा ले गए.. लिहाज़ा उस लाईन पर बोलिंग नहीं करूँगा.. लेकिन बात क्रिकेट की होरही है तो जयंत विष्णु नार्लीकर की एक कहानी अक्स याद आ गई... एक खिलाड़ी रिटायरमेण्ट के पहले एक शानदार प्रदर्शन करना चाहता था. और एक वैज्ञानिक ने उसे उसके प्रतिबिम्ब(मिरर इमेज)में बदल दिया. दाहिने हाथ का खिलाड़ी मैदान में बाएँ हाथ से वो चमत्कार दिखा गया जिसे कहते हैं रेस्ट इज़ हिस्ट्री..
ReplyDeleteपर असल ज़िंदगी में यह चमत्कार खोजना होता है. एक ऐक्टर से किसी ने पूछा कि तुम्हारा बेहतरीन रोल कौन सा है... उसका जवाब था आने वाला!!
यह आनेवाला,गुज़रे से बेहतर होगा की उम्मीद ही सारे फ़साद की जड़ है!!
अंत में शुरुआती मिसाल मन मोह ले गए, शायद ही कोई होगा जिसने ये दिन न एंजॉय किये हों..
आखरी सीमा तक पर अच्छा आलेख...
ReplyDelete@ अजित जी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए |
@ दीपक जी
अरे वो तो कब्र में भी पैर लटकाए बैठे रहेंगे और हम लोगो को घिसते रहेंगे |
@ शेखर जी
मै तो खुद सौरभ की प्रसंसक हु चाहे जो भी वजह रही हो जो बात हमें या आप को पता है वो उन्हें भी पता होगी ही फिर क्यों नहीं समय रहते सही कदम उठाया और अपना नाम वापस नहीं लिया | उनकी इज्जत का जो जलूस निकला उससे तो मिजे भी दुःख हुआ |
@ रश्मि जी
सौरभ तो खानदानी पैसे वाले है और अपने दौर में वो काफी कमा भी चुके है फिर भी क्या पैसे का लालच है यदि हा तो मै कहूँगी की उस लालच ने सौरभ से अपनी कीमत वसूल ली |
@ शिखा जी
आप सभी टिप्पणियों से अपनी राय दे कर सुखा देंगे | :)
@ राधारमण जी
धन्यवाद | छपवाने के लिए कोई परिचय हो तो बताइए |
@ मुकेश जी
पहली लाइन पढ़ कर बड़ी ख़ुशी हुई ये बात मै भी किसी के लिए लिख चुकी हु |
और मुकेश जी आप ने भी तो वही बात कह दी जिसका मै विरोध कर रही हु आखिर खिलाडी को कितना घिसा जाये | दादा अच्छे खिलाडी थे उसमे कोई दो राय नहीं है किन्तु उनका सर्वश्रेठ समय बीत चूका है यदि हम इसी तरह पुराने खिलाडियों को घिसते रहेंगे तो नए को मौका कैसे मिलेगा | आप को पता है सचिन ,सौरभ और द्रविड़ की तिकड़ी ने कितने खिलाडियों को टीम में कभी आने का मौका ही नहीं दिया उनमे से कई अच्छे खिलाडी थे जबकि आप आस्ट्रेलियन खिलाडियों को देखिये वो अपने अच्छे दिनों में भी सन्यास ले लेते है ताकि दूसरो को भी मौका मिले | रही बात राजनीती की तो दादा पहले ऐसे भारतीय कप्तान थे जिनकी मर्जी से टीम चुनी जाती थी और उस समय उन्होंने केवल अपने पसंद के खिलाडियों को ही मौका दे कर खूब राजनिती की थी अब वही उन पर पलट कर आ रहा है | और मै भी दादा की बुराई नहीं कर रही हु मै तो खुद उनकी इस हालत पर दुखी हो और कह रही हु की वो यदि थोड़ी समझदारी दिखाते तो अपनी ये गत नहीं होने देते |
@ काजल कुमार जी
ReplyDeleteधन्यवाद |
@ राजेश जी
दादा पर ज्यादा दुःख तो इसी लिए हो रहा है क्योकि एक तो वो हमारे अपने है दूसरे उन्होंने टीम को एक बिल्कुल नई दिशा दी थी नई सोच दी थी आज की टीम भी उन्ही के सोच का नतीजा है जो दूसरो के जबड़े से जीत खीच कर ले आती है |
@ संजय जी
कहावत तो अच्छी कही आपने और ये कौन से महान खिलाडी थे मैंने आज तक इनका नाम नहीं सुना था ( क्या करे हर ज्ञान मेरा बस सतही ही है ) और सौरभ की वापसी के बाद भी ऊ इज्जत कहा थी टीम में याद है पाकिस्तान मे मैदान में कैसे द्रविड़ से बैटिंग आडर के लिए बहस किये जा रहे थे और उस पर उनकी खूब खिचाई हुई थी | पाकिस्तानी तो अपने ही पट्टीदार है उनकी भी आदत घिसने वाली ही है और हा एक बात बता दू की अब हम भी धीरे धीरे पुराने घिसे ब्लोगरो की श्रेणी में आ रहे है अब कौनो आरोप से डर नहीं लगता | :)
@ सलिल जी
लो जी मुझे तो लगता था की लोग केवल मेरे ही दिमाग से टिप्पणी चुरा लेते है | कहानी तो बहुत अच्छी बताई और ये अभिनेताओ वाली बात तो बिल्कुल सच है |
@ सुशील जी
धन्यवाद |
मझा आ गया ये पोस्ट पढकर .सभी उदाहरण सटीक है मन तो कर रहा है इसकी तारीफ में की बोर्ड पर अपनी उँगलियाँ घिस दूँ(ये तो कुछ ज्यादा ही हो गया).वैसे पहले के समय हर दूसरी हिंदी फिल्म में हीरो की दुखियारी माँ की हाथों की लकीरें अमीरों के घर बर्तन माँजते माँजते घिस जाया करती थी खूब घिसा था इस डायलॉग को हमारे फिल्मकारों ने जहाँ तक बात हैं गाँगुली की तो उनके प्रशंलसक उन्हे पसंद ही इसलिये करते है कि वे जल्दी से किसीकि सलाह नहीं मानते अपनी बात पर अड जाते है अब आपकी सलाह उनके भले के लिये है तब भी दादा तो दादा है वो कहते है न कि रस्सी जल गई पर बल नहीं गया
ReplyDeleteपिछली टिप्पणी में सही शब्द 'प्रशंसक' पढें
ReplyDelete@अंशुमाला जी,
रवि शास्त्री को खेलते हुए मैंने नहीं देखा लेकिन उनके लिये जैसी दुआएँ आप किया करती थी वैसी ही हमें भी कभी कभी आपके फेवरेट द्रविड और लक्ष्मण के लिये करनी पडती थी बंदे दोनों ही मैच विनर है इसमें कोई शक नहीं द्रविड की बेहतरीन टाइमिंग व लक्ष्मन के कलाईयो के सहारे लगाये गये स्ट्रॉक्स देखने लायक होते थे लेकिन कभी कभी दोनों ऐसी कछुआ छाप बैटिंग करते कि कछुऐ भी शरमा जाए.
धारदार व्यंग्य....जबरदस्त धुलाई....क्या कहने....मान गए आपको। दादा पर मानेंगे नहीं, मैने तो वैसे भी इस बार कि बोली को देखना भी गवारा नहीं किया था....बस बोर हो गया था......
ReplyDeleteजोरदार रचना
ReplyDeleteघिसे हुए को क्या घिसना!!!
sahi farmaya
ReplyDeleteअब गांगुली साहब भी करें तो क्या करें, जिंदगी में एक ही तो काम किया है, अचानक उसे छोड़ने में दुविधा आ गयी होगी, इसी पसोपेश में निर्णय नहीं ले पाएं होंगे. बाकी हिन्दुस्तानी जुगाड़ परंपरा तो हमें बहुत पसंद है, घिसाई तो नहीं, हम इसे निभाई के रूप में देखते है ;)
ReplyDeleteरही बात आपकी कलम की तो उसमे तो दिनों दिन निखार आता जा रहा है ;) जारी रखिये...
भारतीय मानसिकता की एक सुंदर खोज-रपट से उम्रदराज भारतीय खिलाड़ियों के अंतिम समय तक घिसे जाने की बड़ी अच्छी साम्यता व्यक्त की है आपने, एक रोचक लेख । बधाई स्वीकार करें ।
ReplyDeleteघिसाई तो करत-करत अभ्यास के ... है.
ReplyDeleteअन्शुमालाजी
ReplyDeleteआपने तो घर घर की कहानी ही कह दी |सास भी घिसते घिसते रसोई नहीं छोड़ना चाहती |(बहू बेचारी बदनाम होती रहती है शाहरुक खान की तरह )हमारे नेता भी ८० -९० साल के होते हुए भी यात्राये करते ही रहते है चाहे रथ यात्रा हो या श्रीनगर में तिरंगा फहराना हो ?और तो और राजेन्द्रकुमार (जुब्लिकुमार )५० साल के होने को आये और किताबे लेकर कालेज छात्र का अभिनय करते रहे घिसते रहे ?खैर लिस्ट बहुत लम्बी है |आपका आलेख बहुत कुछ कह गया |बढिया लिखा है |
विवेकानंदजी को जरुर पढियेगा|
वाह क्या घिस घिस कर धोया है| धन्यवाद|
ReplyDeleteबिल्कुल सही...... घिसने की यही रवायत है हमारे यहाँ.....
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