अचानक से कुछ महीनो से अपने लता मंगेशकर न होने क अफसोस हो रहा है, काश की मै भी लता जी जैसी कोई बड़ी सेलिब्रेटी होती, नहीं नहीं अचानक से मुझे गाने का शौक नहीं हुआ है असल में मै सोच रही थी की
यदि होती मै लता मंगेशकर तो मै भी अपने घर की तरफ आने वाले हवा, पानी, धुप को रोकने वाली सारी बाधाओ को अपनी ऊँची पहुँच और रुतबे का प्रयोग कर रोक लेती किन्तु मै ऐसा कुछ नहीं कर पा रही हूँ | लता जी ने तो एक बार धमकी दी की यदि उनके घर के आगे फ्लाई ओवर बना तो वो मुंबई ही छोड़ कर चली जायेंगी राज्य के मुख्यमंत्री तक से इस विषय में मिल आई और उनके सम्मान और सेहत को ध्यान में रखते हुए उस प्रोजेक्ट को रोक दिया गया | किन्तु मै आम आदमी हूँ मेरे और मेरे परिवार के सेहत की चिंता किसी नेता की किसी भी लिस्ट में नहीं आता है मरता है तो मरे हमें क्या ,जीता है तो हमें वोट दे नहीं तो जा कर कही मरे, बिगड़ती है उसकी सेहत तो बिगड़े हमें क्या |
एक तो पहले से ही मै कंक्रीट के जंगल मुंबई में रहती हूँ जहा हरियाली कम और सीमेंट के बड़े बड़े पेड़ चारो तरफ उगते जा रहे है जो खुद एक दुसरे का भी और कुछ छोटे पौधा का भी हवा पानी धुप रोक रहे है उस पर से विकास के नाम पर चल रहे नए प्रोजेक्ट ने तो हमारा साँस लेना भी मुहाल कर रखा है | पिछले एक दो सालो से अचानक लगने लगा की जैसे गर्मी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है अब हवा चलना बंद हो गया है, पश्चिम की तरफ हमारे बेडरूम की खिड़की से अब वैसी हवा नहीं आती जैसी की कुछ समय पहले तक आती थी | राज कुछ महीनो पहले पता चला जब एक दिन सुबह सुबह वो खिड़की खोली और सूरज की तेज रोशनी से आँखे चौंधिया गई | लगा ये भगवान क्या दुनिया ख़त्म होने का समय आ गया है सूरज पश्चिम से क्यों उग आया है | असल में सड़क के उस पार और ठीक हमारी खिड़की के सामने जो टावर खड़ा हो रहा था उस पर बड़े बड़े कांच लगा दिए गए थे जिससे सूरज की रोशनी टकरा कर सीधे हमारी खिड़की के अन्दर आ रहा था और तब पता चला की वही टावर हमारे घर आ रहे हवा को भी रोक रहा था | सड़क के उस पार एक पुरानी बंद पड़ी मिल थी और उसके बाद रेलवे ट्रैक था जिसके कारण दूर दूर तक खुली जगह थी जो बिना किसी बाधा के हमारे घर तक समन्दर से आने वाली हवा लाती थी साथ ही डूबते सूरज का सुन्दर नजारा भी दिखाता था जो उस टावर के खड़े होने के बाद बंद हो गई | वो टावर हमारे इलाके की शान बनता जा रहा है इस प्रचार के साथ की वो दक्षिण मुंबई का सबसे ऊँचा व्यवसायिक ईमारत है और कोई हम लोगो से पूछे की वो इलाके का शान कैसे पुरे इलाके की हवा को रोका रहा है | मामला यही ख़त्म नहीं होता है मेरे लिविंग रूम की बड़ी खिड़की दक्षिण दिशा में खुलती है वहा पर मैंने ३० -३५ गमले लगा रखे है (पहले गार्डेन में गमले होते थे, मुंबई में तो गमलो में ही गार्डेन है ) वहा पर पौधो को तो अच्छी धुप लगती ही है साथ ही वो रास्ता है मेरे घर में धुप आने का ,किन्तु अब कुछ महीनो बाद उस धुप पर भी रोक लगने वाली है क्योकि हमारे घर के सामने से मोनो रेल का ट्रैक बनने जा रहा है जो हमरी मंजिल से ऊपर बनेगा | हम जो पहले ही दूसरी मंजिल पर रहते है सामने से गुजर रहे फ्लाई ओवर से त्रस्त थे ( शुक्र था की वो मुख्य रास्ता न हो कर बस दो मुख्य सड़को को जोड़ने वाला छोटा रास्ता ही था जहा सुबह शाम ही भीड़ होती थी ) अब हमारे सर पर से मोनो रेल गुजरने वाली है वो लगभग तीसरी मजिल तक बनेगा | मोनो रेल दिल्ली की मैट्रो की तरह ही ब्रिज बना कर उस पर चलाया जायेगा | ये प्रोजेक्ट हमसे हमारी धुप ही नहीं छिनेगा बल्कि बरसात में मिलने वाला नजारा और मेरे पौधो को मिलने वाला बरसाती पानी भी रोकेगा जो बरसात के दिनों में उन्हें मिलता है |
किसानी के जमीन की और किसानो की , कटते जंगल की वहा रहते आदिवासियों की , पर्यावरण को हो रहे नुकशान की सभी को चिंता है आन्दोलन हो रहे है किसानो के हक़ में उद्योगपतियों को भगाया जा रहा है आदिवासियों के लिए आन्दोलन हो रहे है जंगल बचाने के लिए आन्दोलन हो रहे है | पर हम शहरो में रहने वाले मध्यमवर्ग के हवा पानी धुप को जो रोका जा रहा है उसकी सेहत के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है उसकी चिंता किसी को नहीं है न केंद्र सरकारों को न राज्य सरकारों को ( कम्बखत दोनों जगह तो एक ही सरकार है तो किसको हमारी चिंता होगी, उड़ीसा ,पश्चिम बंगाल, यु पी की तरह अलग अलग सरकारे होती तो बात कुछ बन सकती थी ) न यहाँ के समाज सेवको को ( मेधा पाटेकर तो उड़ीसा जा रही है कभी हम लोगो का दर्द भी देख लेती ) अब हमारे लिए कौन आन्दोलन करेगा क्योकि हम लता मंगेशकर तो है नहीं जो अकेले कुछ कहे ( मिल कर भी कहे तो कौन सुनने वाला है ) और कोई सुन ले या यहाँ से जाने की धमकी दे तो कई सुन लेगा ( ये तो गलती से भी नहीं कह सकती, यहाँ तो पहले से ही एक नहीं दो पार्टिया हमें भागने में लगी है कह दिया तो जरुर घर तक आ जाएँगी हमारी मदद के लिए सामान बंधवा कर स्टेशन तक छोड़ने के लिए ) | फिर आन्दोलन करे भी तो क्या करे हमारे पास जमीन तो है नहीं जिसके जाने का नाम ले कर लड़े, हम तो हवा में लटक रहे है न जमीन अपनी है न तो छत अकेले हमारी है और लड़े तो हवा पानी धुप के लिए कितने लोग साथ देंगे और हमारी सुनेगा कौन | हा ये हो सकता है की साथ देने कोई नहीं आये किन्तु आवाजाही की परेशानी झेल रहा एक बड़ा वर्ग हमारा विरोध करने जरुर चला आये |
मोनो रेल के लिए हमारे घर के सामने खड़े तीन बड़े बड़े पेड़ काट दिए गये जो हमारे घर आने वाली हवा का दूसरा स्रोत था और हमारे घर के आगे से जब वो आगे दो किलीमीटर तक बढ़ता है तो पुरे रास्ते में जो पहले पूरी तरह से पेड़ो से भरा था और पुरे रास्ते को बारह महीने पड़ने वाली मुम्बईया गर्मी से राहत देता था को जड़ से काट दिया गया | फर्क कल नहीं आज से ही पता चल रहा है दिन पर दिन असनीय गर्मी बढ़ती जा रही है अब उस रास्ते पर चलना उतना आराम दायक सकून भरा नहीं रहा , जबकि पहले ऐसा नहीं था पेड़ो से भरा वो रास्ता न केवल सूरज की गर्मी जमीन पर कम कर देता था साथ ही अच्छी हवा भी देता था , जो अब हमें नहीं मिल रहा है उस पर से बीच में ब्रिज बनने रास्ते के सकरे होने के कारण होने वाला ट्रैफिक जाम हमारे लिए बोनस है | जो गाडियों के प्रेट्रोल की खपत और बढ़ा रहा है साथ ही और ज्यादा धुँआ और ज्यादा शोर की जगह भी बनता जा रहा है | सिर्फ एक दो सालो में ये पूरा क्षेत्र विकास के नाम पर पर्यावरण पुरे वातावरण की बलि चढ़ा चूका है और लोग खुश है की विकास हो रहा है |
किन्तु सभी को इससे परेशानी नहीं है कुछ लोगो का नजरिया हमसे बिलकुल अलग है वो हमें मोनो रेल बनने और पुरे क्षेत्र में खड़े हो रहे बड़े बड़े कंक्रीट के जंगलो के लिए बधाई देते है की आप का एरिया तो काफी विकास कर रहा है मोनो रेल के आने से तो आप के घर की कीमत तो और भी बढ़ जायेगी ( जो पहले से ही आसमान पर है ) | आप को कही भी आने जाने के लिए और भी आराम हो जायेगा मुंबई को जोड़ने वाली तीनो लाइने आप के घर के दरवाजे पर होगी ( जिसका प्रयोग हम कभी कादर ही करते है शायद इसीलिए हमारा नजरिया दूसरो से अलग है ) | जबकि हमें अब लगने लगा है जैसे कुछ ही दिनों बाद हमें लगेगा की हम किसी स्लम में रह रहे है सामने ओवर ब्रिज ऊपर मोनो रेल आस पास तीन रेलवे स्टेशन , फिर शोर, भीड़, धुल, गर्मी, तो बोनस में हमें और मिलने ही वाले है |
ये सब हमारे ही क्षेत्र में नहीं हो रहा है ये तो पुरे मुंबई का हाल है | कहने के लिए तो संजय गाँधी नेशनल पार्क मुंबई का सबसे बड़ा हरित क्षेत्र है किन्तु अब ये धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है लोग नेशनल पार्क को काट काट कर घर बनाते जा रहे है और कुछ तो उनके अन्दर ही पूरी बस्ती बना कर रह रहे है | अब सुना है की सी लिंक परियोजना बंद कर दी जायेगी क्योकि ये महंगा पड रहा है अब उसकी जगह समुन्द्र के किनारों को पाट कर समुन्द्र के किनारे किनारे एक सड़क का निर्माण किया जायेगा | जबकि कई बार समुन्द्र को इस तरह पाटने को लेकर विरोध किया जा चूका है और इससे होने वाले नुकशान को भी बताया जा चूका है पर सुनने वाला कोई नहीं है, तब भी नहीं जब ये मुंबई कुछ साल पहले २६ जुलाई को आई बाढ़ की भयानकता को झेल चूका है जिसके लिए एक बड़ी वजह यहाँ पर बह रही मीठी नदी को पाट कर बिलकुल गायब कर देना भी था ( तभी से मीठी नदी भी गंगा बन चुकी है उसकी सफाई और रख रखाव के नाम पर करोडो हजम हो चुके है पर नदी अब भी वैसी की वैसी ही है जैसे की गंगा के गन्दगी कभी साफ नहीं हुई करोडो रुपये जरुर सरकारी तिजोरी से साफ हो गये ) |
ऐसा नहीं है की विकास बिना पर्यावरण को नुकशान पहुचाये हो ही नहीं सकता है किन्तु उसके लिए शायद ज्यादा दिमाग और पैसे खर्च करने पड़े जिसका काफी टोटा है हमारे देश में | नीति निर्माता हर प्रोजेक्ट वर्तमान देख कर बना रहे है भविष्य के बारे में कोई कुछ भी सोचने के लिए तैयार नहीं है और न ही इस अंधाधुंध होने वाले विकास के नाम के बर्बादी के बारे में | सभी हर मुश्किल का फौरी इलाज कर रहे है और इस इलाज से होने वाले साइड इफेक्ट के बारे में कोई भी सोचने के लिए तैयार नहीं है सभी का रवैया वही है तब की तब देख ली जाएगी या तब फिर उसके लिए भी कोई फौरी नीति बना ली जायेगी | इन सब से सबसे ज्यादा नुकशान किसे होगा शायद हमारे बच्चो को जो अभी अपने शारीरिक मानसिक विकास के दौर से गुजर रहे है पता नहीं उन पर क्या असर हो रहा है | बड़ो में दिन पर दिन बढ़ता चिडचिडापन गुस्सा तो हमें दिख रहा है पर बच्चो पर क्या असर हो रहा है हमें नहीं पता क्या पता जब तक हमें पता चले तब तक सब कुछ हमारे हाथ से जा चूका हो और हम सिवाय पछताने के उस समय कुछ न कर पाये |
चलते चलते
पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ का नारा दिया जा रहा है | करोडो रुपये का हर साल वृक्षा रोपण होता है लोगो से अपील की जाती है की तोहफे में पेड़ दे अपने आस पास पेड़ लगाये पर समझ नहीं आता की पेड़ लगाये कहा पर घर की छत पर या बीच रास्ते पर शहरों में पेड़ लागने के लिए भी जगह कहा है | मुंबई में तो कुत्ता भी अपनी पूंछ दाये बाये नहीं ऊपर निचे हिलाता है |
एक तो पहले से ही मै कंक्रीट के जंगल मुंबई में रहती हूँ जहा हरियाली कम और सीमेंट के बड़े बड़े पेड़ चारो तरफ उगते जा रहे है जो खुद एक दुसरे का भी और कुछ छोटे पौधा का भी हवा पानी धुप रोक रहे है उस पर से विकास के नाम पर चल रहे नए प्रोजेक्ट ने तो हमारा साँस लेना भी मुहाल कर रखा है | पिछले एक दो सालो से अचानक लगने लगा की जैसे गर्मी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है अब हवा चलना बंद हो गया है, पश्चिम की तरफ हमारे बेडरूम की खिड़की से अब वैसी हवा नहीं आती जैसी की कुछ समय पहले तक आती थी | राज कुछ महीनो पहले पता चला जब एक दिन सुबह सुबह वो खिड़की खोली और सूरज की तेज रोशनी से आँखे चौंधिया गई | लगा ये भगवान क्या दुनिया ख़त्म होने का समय आ गया है सूरज पश्चिम से क्यों उग आया है | असल में सड़क के उस पार और ठीक हमारी खिड़की के सामने जो टावर खड़ा हो रहा था उस पर बड़े बड़े कांच लगा दिए गए थे जिससे सूरज की रोशनी टकरा कर सीधे हमारी खिड़की के अन्दर आ रहा था और तब पता चला की वही टावर हमारे घर आ रहे हवा को भी रोक रहा था | सड़क के उस पार एक पुरानी बंद पड़ी मिल थी और उसके बाद रेलवे ट्रैक था जिसके कारण दूर दूर तक खुली जगह थी जो बिना किसी बाधा के हमारे घर तक समन्दर से आने वाली हवा लाती थी साथ ही डूबते सूरज का सुन्दर नजारा भी दिखाता था जो उस टावर के खड़े होने के बाद बंद हो गई | वो टावर हमारे इलाके की शान बनता जा रहा है इस प्रचार के साथ की वो दक्षिण मुंबई का सबसे ऊँचा व्यवसायिक ईमारत है और कोई हम लोगो से पूछे की वो इलाके का शान कैसे पुरे इलाके की हवा को रोका रहा है | मामला यही ख़त्म नहीं होता है मेरे लिविंग रूम की बड़ी खिड़की दक्षिण दिशा में खुलती है वहा पर मैंने ३० -३५ गमले लगा रखे है (पहले गार्डेन में गमले होते थे, मुंबई में तो गमलो में ही गार्डेन है ) वहा पर पौधो को तो अच्छी धुप लगती ही है साथ ही वो रास्ता है मेरे घर में धुप आने का ,किन्तु अब कुछ महीनो बाद उस धुप पर भी रोक लगने वाली है क्योकि हमारे घर के सामने से मोनो रेल का ट्रैक बनने जा रहा है जो हमरी मंजिल से ऊपर बनेगा | हम जो पहले ही दूसरी मंजिल पर रहते है सामने से गुजर रहे फ्लाई ओवर से त्रस्त थे ( शुक्र था की वो मुख्य रास्ता न हो कर बस दो मुख्य सड़को को जोड़ने वाला छोटा रास्ता ही था जहा सुबह शाम ही भीड़ होती थी ) अब हमारे सर पर से मोनो रेल गुजरने वाली है वो लगभग तीसरी मजिल तक बनेगा | मोनो रेल दिल्ली की मैट्रो की तरह ही ब्रिज बना कर उस पर चलाया जायेगा | ये प्रोजेक्ट हमसे हमारी धुप ही नहीं छिनेगा बल्कि बरसात में मिलने वाला नजारा और मेरे पौधो को मिलने वाला बरसाती पानी भी रोकेगा जो बरसात के दिनों में उन्हें मिलता है |
किसानी के जमीन की और किसानो की , कटते जंगल की वहा रहते आदिवासियों की , पर्यावरण को हो रहे नुकशान की सभी को चिंता है आन्दोलन हो रहे है किसानो के हक़ में उद्योगपतियों को भगाया जा रहा है आदिवासियों के लिए आन्दोलन हो रहे है जंगल बचाने के लिए आन्दोलन हो रहे है | पर हम शहरो में रहने वाले मध्यमवर्ग के हवा पानी धुप को जो रोका जा रहा है उसकी सेहत के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है उसकी चिंता किसी को नहीं है न केंद्र सरकारों को न राज्य सरकारों को ( कम्बखत दोनों जगह तो एक ही सरकार है तो किसको हमारी चिंता होगी, उड़ीसा ,पश्चिम बंगाल, यु पी की तरह अलग अलग सरकारे होती तो बात कुछ बन सकती थी ) न यहाँ के समाज सेवको को ( मेधा पाटेकर तो उड़ीसा जा रही है कभी हम लोगो का दर्द भी देख लेती ) अब हमारे लिए कौन आन्दोलन करेगा क्योकि हम लता मंगेशकर तो है नहीं जो अकेले कुछ कहे ( मिल कर भी कहे तो कौन सुनने वाला है ) और कोई सुन ले या यहाँ से जाने की धमकी दे तो कई सुन लेगा ( ये तो गलती से भी नहीं कह सकती, यहाँ तो पहले से ही एक नहीं दो पार्टिया हमें भागने में लगी है कह दिया तो जरुर घर तक आ जाएँगी हमारी मदद के लिए सामान बंधवा कर स्टेशन तक छोड़ने के लिए ) | फिर आन्दोलन करे भी तो क्या करे हमारे पास जमीन तो है नहीं जिसके जाने का नाम ले कर लड़े, हम तो हवा में लटक रहे है न जमीन अपनी है न तो छत अकेले हमारी है और लड़े तो हवा पानी धुप के लिए कितने लोग साथ देंगे और हमारी सुनेगा कौन | हा ये हो सकता है की साथ देने कोई नहीं आये किन्तु आवाजाही की परेशानी झेल रहा एक बड़ा वर्ग हमारा विरोध करने जरुर चला आये |
मोनो रेल के लिए हमारे घर के सामने खड़े तीन बड़े बड़े पेड़ काट दिए गये जो हमारे घर आने वाली हवा का दूसरा स्रोत था और हमारे घर के आगे से जब वो आगे दो किलीमीटर तक बढ़ता है तो पुरे रास्ते में जो पहले पूरी तरह से पेड़ो से भरा था और पुरे रास्ते को बारह महीने पड़ने वाली मुम्बईया गर्मी से राहत देता था को जड़ से काट दिया गया | फर्क कल नहीं आज से ही पता चल रहा है दिन पर दिन असनीय गर्मी बढ़ती जा रही है अब उस रास्ते पर चलना उतना आराम दायक सकून भरा नहीं रहा , जबकि पहले ऐसा नहीं था पेड़ो से भरा वो रास्ता न केवल सूरज की गर्मी जमीन पर कम कर देता था साथ ही अच्छी हवा भी देता था , जो अब हमें नहीं मिल रहा है उस पर से बीच में ब्रिज बनने रास्ते के सकरे होने के कारण होने वाला ट्रैफिक जाम हमारे लिए बोनस है | जो गाडियों के प्रेट्रोल की खपत और बढ़ा रहा है साथ ही और ज्यादा धुँआ और ज्यादा शोर की जगह भी बनता जा रहा है | सिर्फ एक दो सालो में ये पूरा क्षेत्र विकास के नाम पर पर्यावरण पुरे वातावरण की बलि चढ़ा चूका है और लोग खुश है की विकास हो रहा है |
किन्तु सभी को इससे परेशानी नहीं है कुछ लोगो का नजरिया हमसे बिलकुल अलग है वो हमें मोनो रेल बनने और पुरे क्षेत्र में खड़े हो रहे बड़े बड़े कंक्रीट के जंगलो के लिए बधाई देते है की आप का एरिया तो काफी विकास कर रहा है मोनो रेल के आने से तो आप के घर की कीमत तो और भी बढ़ जायेगी ( जो पहले से ही आसमान पर है ) | आप को कही भी आने जाने के लिए और भी आराम हो जायेगा मुंबई को जोड़ने वाली तीनो लाइने आप के घर के दरवाजे पर होगी ( जिसका प्रयोग हम कभी कादर ही करते है शायद इसीलिए हमारा नजरिया दूसरो से अलग है ) | जबकि हमें अब लगने लगा है जैसे कुछ ही दिनों बाद हमें लगेगा की हम किसी स्लम में रह रहे है सामने ओवर ब्रिज ऊपर मोनो रेल आस पास तीन रेलवे स्टेशन , फिर शोर, भीड़, धुल, गर्मी, तो बोनस में हमें और मिलने ही वाले है |
ये सब हमारे ही क्षेत्र में नहीं हो रहा है ये तो पुरे मुंबई का हाल है | कहने के लिए तो संजय गाँधी नेशनल पार्क मुंबई का सबसे बड़ा हरित क्षेत्र है किन्तु अब ये धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है लोग नेशनल पार्क को काट काट कर घर बनाते जा रहे है और कुछ तो उनके अन्दर ही पूरी बस्ती बना कर रह रहे है | अब सुना है की सी लिंक परियोजना बंद कर दी जायेगी क्योकि ये महंगा पड रहा है अब उसकी जगह समुन्द्र के किनारों को पाट कर समुन्द्र के किनारे किनारे एक सड़क का निर्माण किया जायेगा | जबकि कई बार समुन्द्र को इस तरह पाटने को लेकर विरोध किया जा चूका है और इससे होने वाले नुकशान को भी बताया जा चूका है पर सुनने वाला कोई नहीं है, तब भी नहीं जब ये मुंबई कुछ साल पहले २६ जुलाई को आई बाढ़ की भयानकता को झेल चूका है जिसके लिए एक बड़ी वजह यहाँ पर बह रही मीठी नदी को पाट कर बिलकुल गायब कर देना भी था ( तभी से मीठी नदी भी गंगा बन चुकी है उसकी सफाई और रख रखाव के नाम पर करोडो हजम हो चुके है पर नदी अब भी वैसी की वैसी ही है जैसे की गंगा के गन्दगी कभी साफ नहीं हुई करोडो रुपये जरुर सरकारी तिजोरी से साफ हो गये ) |
ऐसा नहीं है की विकास बिना पर्यावरण को नुकशान पहुचाये हो ही नहीं सकता है किन्तु उसके लिए शायद ज्यादा दिमाग और पैसे खर्च करने पड़े जिसका काफी टोटा है हमारे देश में | नीति निर्माता हर प्रोजेक्ट वर्तमान देख कर बना रहे है भविष्य के बारे में कोई कुछ भी सोचने के लिए तैयार नहीं है और न ही इस अंधाधुंध होने वाले विकास के नाम के बर्बादी के बारे में | सभी हर मुश्किल का फौरी इलाज कर रहे है और इस इलाज से होने वाले साइड इफेक्ट के बारे में कोई भी सोचने के लिए तैयार नहीं है सभी का रवैया वही है तब की तब देख ली जाएगी या तब फिर उसके लिए भी कोई फौरी नीति बना ली जायेगी | इन सब से सबसे ज्यादा नुकशान किसे होगा शायद हमारे बच्चो को जो अभी अपने शारीरिक मानसिक विकास के दौर से गुजर रहे है पता नहीं उन पर क्या असर हो रहा है | बड़ो में दिन पर दिन बढ़ता चिडचिडापन गुस्सा तो हमें दिख रहा है पर बच्चो पर क्या असर हो रहा है हमें नहीं पता क्या पता जब तक हमें पता चले तब तक सब कुछ हमारे हाथ से जा चूका हो और हम सिवाय पछताने के उस समय कुछ न कर पाये |
चलते चलते
पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ का नारा दिया जा रहा है | करोडो रुपये का हर साल वृक्षा रोपण होता है लोगो से अपील की जाती है की तोहफे में पेड़ दे अपने आस पास पेड़ लगाये पर समझ नहीं आता की पेड़ लगाये कहा पर घर की छत पर या बीच रास्ते पर शहरों में पेड़ लागने के लिए भी जगह कहा है | मुंबई में तो कुत्ता भी अपनी पूंछ दाये बाये नहीं ऊपर निचे हिलाता है |
सच ऐसे में तो यही लगता है कि मैनपुरी जैसे छोटे शहर में रह कर हम बेहद सुखी है ... कम से कम हवा और बारिश का मज़ा तो ले ही सकते है !
ReplyDeleteजब तक घर में थे बहुत मज़ा किये..लेकिन ये दिल्ली, और यहाँ का मौसम...
ReplyDeleteयहाँ तो बारिश का होना भी ब्रेकिंग न्यूज़ है...
इमारतों के बीच शहर बसता है और इंसान के नाम पर रोबोट भागते नज़र आते हैं...
और सबसे अजीब बात जो यहाँ देखी है, अधिकतर लोग जो यहाँ रहते हैं वो यही कहते हैं कि वो अपना बुढ़ापा अपने गाँव में बिताना चाहते हैं...
बाह जी बाह...ये भी खूब रही...
देश की कारोबारी राजधानी में रहने के गौरव की कीमत चुका रही हैं आप...
ReplyDeleteलता ताई का तो नहीं, किशोर दा का ये गीत गाकर ज़रूर खुद को दिलासा दीजिए...
कौन सुनेगा, किसको सुनाए...
इसलिए चुप रहते हैं...
जय हिंद...
Anginat samsyayeh hain in beterteeb badhte shahron me..... kisi bhi vikas yojna ka kriyanvan bhavi parinam dekhe bina ho raha hai .... aapki sabhi baaton se sahmat...
ReplyDeleteमुंबई ही नही इंदौर की भी यही हालत है....विकास चल रहा है ....
ReplyDeleteपहले मै सोचा करती थी सड़क के पास घर हो तो सुविधा रहेगी...मुझे ये पता नही थी "मेरे मन की" सड़क समझ लेगी ..खुद ही चल कर आ गई है मेरे घर के पास.....
@ मुंबई में तो कुत्ता भी अपनी पूंछ दाये बाये नहीं ऊपर निचे हिलाता है |
ReplyDelete** बहुत बड़ा कटाक्ष! शहरीकरण तो हम कर रहे हैं, पर पर्यावरण की चिंता किए बगैर। इससे नुकसान तो हमें ही होगा ना!
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ReplyDelete.
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नीति निर्माता हर प्रोजेक्ट वर्तमान देख कर बना रहे है भविष्य के बारे में कोई कुछ भी सोचने के लिए तैयार नहीं है और न ही इस अंधाधुंध होने वाले विकास के नाम के बर्बादी के बारे में | सभी हर मुश्किल का फौरी इलाज कर रहे है और इस इलाज से होने वाले साइड इफेक्ट के बारे में कोई भी सोचने के लिए तैयार नहीं है सभी का रवैया वही है तब की तब देख ली जाएगी या तब फिर उसके लिए भी कोई फौरी नीति बना ली जायेगी |
अंशुमाला जी,
गलती यहीं है, हमारे योजनाकारों के पास वह क्षमता नहीं है कि वह आने वाले पचास-साठ सालों को ध्यान में रख प्लानिंग कर सकें... फायर-ब्रिगेड रिस्पॉन्स ज्यादा रहता है यानि जब आग लगेगी तब बुझा लेंगे, वरना कोई वजह नहीं कि आपकी आवासीय कॉलोनी को यह सब झेलना पड़े!
...
महानगरों में रहने वाले सभी आम और खास लोगों के लिए हवा पानी धुप और अपने हिस्से का आसमान दुर्लभ होता जा रहा है और ऐसा क्यों है इस बात को प्रवीन शाह जी ने उल्लेखित कर ही दिया है. दिल्ली में मैं भी एक १५' गुना ३०' के आसमान के नीचे रहता हूँ. अभी तो हवा और धुप मिल रही है पर कब इसकी सप्लाई बंद हो जाय कुछ भरोसा नहीं.
ReplyDeleteलोग तो मुम्बई में रहने को सौभाग्य मानते हैं, मुझे तो कई लोग मिलते हैं जो कहते हैं कि जिन्दगी तो मुम्बई में ही है। हमें तो हमारा छोटा सा शहर ही पसन्द है। आप लोगों को सलाम।
ReplyDeleteआपने निराश कर दिया। काश मैं.., जब ऐसा ऐसा सोचने पर उतारू हो ही गईं थीं तो फ़िर सोच को पूरी उड़ान तो भरने देतीं। होना ही था तो कम से कम आलाकमान बनने की सोचना था, ये क्या कि मी मुंबईकर तक सिमट कर रह गईं? आप सड़क, पुल न बनने देने की सोच रही हैं, फ़िर तो पी.एम., लोकपाल बिल जैसे कानून आदि आपके इशारों पर बन\न बन रहे होते। और तो और, जिस वर्तनी को लेकर हम जैसे छेड़ जाते हैं, फ़िर इसी की तारीफ़ में कसीदे कढ़े जा रहे होते। बिटिया के स्कूल एडमिशन जैसी समस्यायें आने से पहले सैटल हो जातीं। जो ब्लॉगर आपकी तारीफ़ न करता या सहमत न होता, उसके खिलाफ़ सी.बी.आई. जाँच शुरू हो जाती। स्लेबस में पुरानी कविताओं में सुधार किये जाते -
ReplyDeleteमैडम की भृकुटि हिली नहीं,
तब तक पी.एम. मुड़ जाता था
आदि आदि।
आप भी रहीं वही मध्यमवर्गीय मानसिकता वाली। अब भी वक्त है, मानसिकता सुधारिये और ऊँचा सोचिये। नहीं तो हम असहमत होते रहेंगे।
चलते-चलते पर एक और जोक था कि किसी महानगर में रहने वाले को एक बोतल वाला जिन्न मिला और हुक्म करने के ऑफ़र पर जब आका ने एक फ़्लैट मांग लिया तो जिन्न ने जोरों की एक चपत अपने आका के सर पर मारी और बोला, ’फ़्लैट लेना\देना मेरे बस में होता तो मैं बोतल में रह रहा होता?"
आप लोगों को सलाम।
ReplyDeleteकुछ पाने के लिये बहुत कुछ खोना पडता है सुविधायें न मिलें तो सरकार को कोसते हैं विकास को कोसते हैं सुविधायें लेने के लिये कुछ तो खोना ही पडेगा नही तो चलो हम पिछले युग मे रहें और सरकार से कहें हमे नही चाहिते सडकें बिजली पानी। प्रकृति के दोहन के लिये हम ही तो कसूरवार हैं। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआपका लेख गहरी चिंता में डाल देता है...रेगिस्तान में होते हुए भी यहाँ हरयाली को इतनी खूबसूरती सहेजा गया है कि बस बार बार मन में अपने ही देश का ख्याल आता है कि काश अपने देश में भी हरयाली को बचाए रखने के साधन होते..
ReplyDeleteअंशुमाला!कुछ समय रुक जाओ मुंबई ही नहीं हर शहर का यही हाल होगा.
ReplyDeleteवैसे व्यवस्था तो हमारे देश की ऐसी है कि हर पल हर इंसान यही सोचता है..काश मैं .....( कोई भी सेलेब्रटी) होता.
अंशुमाला जी,
ReplyDeleteकभी पढ़ा था कि जो पॉलिटिशियन होता है वो केवल देश के वर्तमान पीढ़ी की सोचता है जबकि जो स्टेट्समैन होता है वह देश के अगली कई पीढियों के बारे में सोचता है।
किंतु देश की कौन कहे महानुभाव लोग अपना ही सोचने में लग गये हैं। कांट्रेक्ट लेकर, घूस पताई ले देकर तमाम चीजें बना बूनू कर सब कुछ गड़्म गड्ड कर दे रहे हैं।
ऐसे में किसी स्टेट्समैन के होने के बारे में केवल कल्पना ही की जा सकती है।
@ शिवम जी
ReplyDeleteजी हा आप ज्यादा सुखी है |
@ शेखर जी
शहर आने के बाद ही गांव की अहमियत समझ आती है |
@ खुशदीप जी
आम आदमी के पास चुप रहने के आलावा चारा ही क्या है |
@ मोनिका जी
सहमत होने के लिए धन्यवाद |
@ अर्चना जी
हा जब हम भी बनारस में थे तो यही सोचते थे तब हमारा घर गली में होता था अब सड़क के घर का नुकसान भोग रहे है |
@ मनोज जी
धन्यवाद |
@ प्रवीण जी
योजनकारो को अपने जीवित रहते श्रेय भी तो लेना है योजनाओ का, उनके मरने के बाद होने वाले नुकसानों से उन्हें क्या |
@ दीप जी
आप को और आप के बच्चो को हवा पानी धुप और आसमान हमेसा नसीब हो इसके लिए शुभकामनाये |
@ अजित जी
ReplyDeleteक्या कहूँ अजित जी यदि मान सकती है तो मान लीजिये मुझे मुंबई विवाह के पहले से ही नहीं पसंद था कारण, यहाँ के घरो का आकार, जिस फ़्लैट में रहती हूँ मायके में उससे बड़ा तो हमारा आँगन था | सलाम तो आप को करती हूँ |
@ संजय जी
दो बाते पहली की आम आदमी हूँ ,जो सोचेगा तो उतना ही जीतनी उसकी पहुँच होगी, जो आप की तरह खास होती तो जरुर अबोमा होने की सोचती ताकि पूरी दुनिया को अपनी उंगली पर घुमा सकती | दूसरी बात, हम भी अपने योजनाकारों से अलग थोड़े ही है फौरी राहत के लिए उपाय सोच लिया अगली परेशानी के लिए कुछ और होना सोच लुंगी, बस सोचना ही तो है :)) |
@ संजय चौरसिया जी
धन्यवाद |
@ निर्मला जी
ये तो सही है की विकास की मांग हम ही करते है और प्रकृति का दोहन भी हम ही करते है पर योजना बनाये वाले तो खास दिमागदार लोग है वो पर्यावरण को कुछ तो बचा ही सकते है जो वो नहीं कर रहे है |
@ मनप्रीत कौर जी
धन्यवाद | कुछ नए गानों के लिए जल्द ही आप के पास आती हूँ |
@ मीनाक्षी जी
साधन तो है पर कोई उसे प्रयोग करने के लिए तैयार नहीं है |
@ शिखा जी
सही कह रही है हमारे बनारस में भी एक फ्लाई ओवर बन रहा है इतनी बुरी हालत है शहर की कि हफ्ते भर में ही सेहत की बैंड बज गई |
@ सतीश जी
हम सभी बस अपने बारे में ही सोचने में लगे है देश के बारे में और आने वाली पीढ़ी के बारे में सोच ही कौन रहा है |
बहुत गहरा कटाक्ष......
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें।
अंशुमाला जी,
ReplyDeleteइतना तो अभी हमें नहीं झेलना पड रहा लेकिन पिछले पाँच सालों में जितना बदलाव देखने को मिला है उतना पहले कभी नहीं हुआ.सडकों को चौडा करने के लिये पेड यहाँ भी खूब काटे गये है ताकि सडक दुर्घटनाओं में कमी आ सके.एक चीज जो यहाँ कि सबसे अच्छी लगती है वो ये कि यहाँ बारिश के दिनों में सडकों को जलमग्न हुऐ कभी नहीं देखा जैसा कि दिल्ली और मुंबई में होता है चाहें कितनी ही जोरदार बारिश क्यों न हो पर आगे का कुछ नहीं कह सकते.
और अभी अपने घर के आस पास निर्माण से जो परेशानी आपको हो रही है उसकी तो आदत पड ही जाएगी.हम भी जब अपने नये घर में आये थे तो ट्रेनों की आवाज से शुरू शुरू में बहुत परेशान रहते थे क्योंकि ये कॉलोनी रेलवे लाईन के बहुत नजदीक थी और हर पंद्रह बीस मिनट बाद कोई न कोई ट्रेन यहाँ से गुजरती है पर धीरे धीरे हम लोग इसके अभ्यस्त हो गये हाँ मेहमानों को परेशानी होती है.
पूरे शहर का यही हाल है....कभी घर की खिड़की से....दो पहाड़ों के बीच उगता सूरज दिखता था...और मैं सबको गर्व से बताती थी,..मुंबई में रहकर भी इतना सुन्दर सूर्योदय...देखने को मिलता है...बस दो बरस बाद ही अब सूरज बीच आसमान में ही दिखता है.
ReplyDeleteघरों के आकार से याद आया....महानगरों के फ्लैट्स को हम कबूतर की ढाबली की संज्ञा देते हैं...:):
ReplyDeleteआपकी व्यथा पढ़कर समझ आया कि जितने बड़े शहर में रहो, उतनी बड़ी समस्याएं। आपने पीने के पानी का कोई जिक्र नहीं किया।
ReplyDeleteमैं आजकल भोपाल में हूं। भोपाल में भी मेरा अपना मकान नहीं है। यहां दो दिन में एक बार पानी की सप्लाई होती है। बंगलौर में जहां मैं रह रहा हूं वहां भी पानी की किल्लत है। बड़ी बड़ी आवासीय कालोनियां बन रही हैं। जो पहले से हैं उनमें रोज पानी के टैंकर दूर दूर से आ रहे हैं। सोचता हूं जिस दिन जमीन का पानी नीचे चला जाएगा,उस दिन इन बहुमंजिला इमारतों में रहने वालों का क्या होगा।
खास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिये,
ReplyDeleteयह हमारे वक़्त की सबसे बड़ी पहचान है!
अंशुमाला जी! अभी पत्ना एक हफ्ते रहकर लौटा हूँ... सारे शहर में फ्लाई ओवर बन गए हैं, लेकिन एक ईलाके को दूसरे व्यस्त ईलाके से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क महीनों से बन्द है.. कारण आप सोच भी नहीं सकतीं.. उसपर पड़ा है गन्धाता हुआ कचरा.. आहिस्ता आहिस्ता वो पूरी सड़क एक कचरा घर में तब्दील हो गई है...
अफसोस उसी जगह से कुछ दूर पर शेखर सुमन का घर है और पास में ही शत्रुघ्न सिन्हा का.. मगर वे तो मुम्बई में हैं, इस बास से दूर.. और इनके अलावा तो कोई सेलेब्रिटी नज़र नहीं आता.. और मेरे पास तो वो मिसाल भी नहीं कि कह सकूँ कि काश मैं फलाँ होता!!
Har taraf har jagah beshumar aadmi...
ReplyDeletefir bhi tanhayee ka hai shikaar aadmi...
Mumbai ho dilli
Janta hai bheegi billi.
भलाई का तो जी टैम ही न रहा। अपनी तरफ़ से देश की सबसे पावरफ़ुल हस्ती बनने की सोचने की सलाह दी थी, हमारी ही धुलाई कर दी:)
ReplyDeleteबहुत गहरा कटाक्ष
ReplyDeleteशहर के महानगर बनने से हमारे शहर के बाशिंदे भी इसी समस्या से गुजर रहे हैं ...
ReplyDeleteपर्यावरण की रक्षा के साथ शहर का विकास हो , क्या इस तरह की योजनायें नहीं बना सकती सरकारें ??
आपकी पोस्ट पढकर लगा कि बेचारा कुत्ता मुंबई में दायें बाएं पूंछ तो हिला ही नहीं पा रहा,अब ऊपर नीचे भी नहीं हिला पायेगा.उसकी दुम
ReplyDeleteसीधी ही रहेगी और कहावत हो जायेगी 'बारह साल बिना नली में रख्खे ही कुत्ते कि दुम सीधी की सीधी'.
आप अभी तक मेरे ब्लॉग पर क्यूँ नहीं आयीं?
आकर 'सरयू' स्नान कीजियेगा न.
अच्छा आलेख! मुझे तीन विकल्प दिखते हैं -
ReplyDelete1. सब लोग एकसाथ आम से खास बन जायें।
2. आम, खास, और खासुलखास का अंतर कम किया जाये
3. नगर नियोजन में अधिक नागरिकों की आवाज़ शामिल हो
अमेरिका में बडे-बडे नगर भी छोटी नगरपालिकाओं में बंटे हैं और नगर नियोजन सहित सभी मुद्दों पर टाउन हाल सभायें होती हैं और लोग उनमें भाग लेकर अपना पक्ष रखते हैं और निर्णयों में शामिल होते हैं। न्यू योर्क के मुख्य बाज़ार से लगा हुआ विशाल केन्द्रीय पार्क इस बात का उदाहरण है कि भू-माफिया की गिद्ध दृष्टि वहीं चलती है जहाँ चलाने की छूट दी जाती है।
भविष्य? वह क्या चीज़ है?
मुंबई में तो कुत्ता भी अपनी पूंछ दाये बाये नहीं ऊपर निचे हिलाता है |
ReplyDeletesari bat ek is line me hi likh dali aapne .sach me bahut dukh hota hai ki shahrikaran ke chakkar me paryavaran ka to satyanash hi ho gaya hai .achchha vyangyatmak aalekh .aabhar
aapki vyatha samjh sakti hu..ye hal sirf mumbai me hi nahi hai vikas ki rah par chal rahe chhote shaharon ki bhi yahi kahani hai. betarteeb nirman katate ped dooshit hawa...kabhi indore ka bhi hal bayan karoongi...aapse prerna le kar..abhar..
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