कुछ समय पहले लता जी के जन्मदिन पर उनका एक साक्षात्कार देखा जिसमे वो बता रही थी की संगीत के लिए अपने जुनून के कारण कभी उन्हें अपने अविवाहित होने को "मिस" नहीं किया | कहते है संगीत आप को कई दुखों परेशानियों और तनाव से बाहर निकालने का काम करता है किंतु चित्रा सिंह ने तो उससे ही परहेज का लिया था | मुझे लगता है की यदि वो गाना गा रही होती संगीत से जुड़ीं होती तो निश्चित रूप से वो उन्हें उनके दुख से बाहर निकालने का काम करता उन्हें जीने का हौसला देता किंतु उन्होंने उससे ही मुंह मोड़ लिया | देखा है मैंने कई बार महिलाओ को किसी क़रीबी अपने के जाने के बाद सारे सुख आनंद को त्याग करते और अपने दुखों को पालते हुए उन्हें अपने सिने से लगा हर समय जिंदा रखे हुए | मेरी परिचित थी उनका जवान विवाहित बेटे की दुर्घटना में मौत हो गई इधर बहु ने अपने सारे श्रृंगार त्यागा उधर उन्होंने भी सब त्याग दिया बस एक सिंदूर ही धारण करती थी | सब उनकी वाह वाह करते थे पर मुझे वो अच्छा नहीं लगता था लगा की जैसे वो अपने दुख को हर समय जिंदा और अपने सामने रखना चाहती है न केवल अपना बल्कि अपनी बहु और उसकी एक मात्र बेटी के भी दुखों को | क्या अच्छा ये नहीं होता की वो अपना क्या अपनी बहु का भी श्रृंगार त्यागने न देती बस सिंदूर और बिझिया जैसे विवाहित होने की निशानियो को ही छोड़ देती , उसे भी जीने का हौसला देती और अपने भी एकलौते पुत्र के मौत को भुलाने का प्रयास करती और पोती को भी एक खुश हाल जीवन देती | आखिर क्यों महिलाएँ अपने दुखों को संजो कर रखती है, क्यों नहीं उसे छोड़ देती है |
चित्रा सिंह ने भी वही किया, किसी कलाकार के लिए उसका कला ही उसको सबसे ज्यादा आनंद देता है जो उसे दुनिया के तकलीफों परेशानियों से उबरता है उनसे दूर करता है और उन्होंने उससे ही छोड़ दिया | कभी सोचती हुं की जगजीत सिंह ने उनसे फिर से गाने को नहीं कहा होगा, शायद कहा होगा हो सकता है कई बार मनाया भी होगा, पता नहीं वो मना नहीं पाए या वो मानना ही नहीं चाहती थी | पुरुष के साथ मजबूरी है कई बार अर्थोपार्जन की तो कई बार दुनियादारी की की वो दुःख को कुछ समय जीता है फिर उसके आगे निकल जाता है या उसे हर समय याद नहीं रखता दिल के कोने में छुपा कर रखता है | एक जगह चित्रा सिंह का साक्षात्कार पढ़ा जहा उन्होंने कहा की जगजीत सिंह का दुख भले न दिखता हो पर वो भी काफी दुखी थे बेटे के जाने से और कई बार रात में उठ कर रियाज़ करने लगते थे | वही संगीत उनका जुनून जिसने उनका साथ दिया उस दुःख तकलीफ़ से बाहर आने में उससे लड़ने में पर चित्र सिंह वो नहीं कर पाई या नहीं करना चाहा |
जिस दिन सुना की जगजीत सिंह ब्रेन हैमरेज के कारण अस्पताल में वेंटिलेटर पर है , ( ब्रेन हैमरेज और वेंटिलेटर इन दो शब्दों से अच्छे से परिचित हूँ दो अपनों को खोया है इन शब्दों के साथ ) समझ गई की अब वो वापस घर नहीं आयेंगे | उसी समय ज्यादा दुख चित्रा सिंह के लिए हो रहा था | दो दिन पहले ही अपनी एक रिश्ते की मौसी के दुखद मृत्यु की खबर मिली थी | पता चला की तीन महीने पहले ही मौसा जी की कैंसर से मृत्यु हो गई थी तब से ही बिलकुल मानसिक संतुलन खो बैठी थी खुद का कोई होश ही नहीं था अपनी आवश्यक जरूरते भी वो खुद से नहीं कर पा रही थी | कारण था मौसा जी से उनका बेहद लगाव क्योंकि दोनों लोगो को कोई संतान नहीं थी और जीवन में लगभग ५० वर्ष दोनों ने बस एक दूसरे के सहारे एक दूसरे के साथ जी कर ही बिताये थे | भाई के बच्चे को अपने बच्चे की तरह पाला किंतु बड़ा होते ही वो उन्हें छोड़ लड़ झगड़ अपने माँ बाप के पास चला गया | आ कर किसी ख़ुशी का चला जाना दुख को कई गुना बढ़ा देता है इस दुख ने दोनों को और भी करीब ला दिया था , दोनों में से किसी एक का जाना वही हाल करता जो अंत में मौसी का हुआ , वो तीन महीने भी उस दुःख को बर्दाश्त नहीं कर पाई | अपने आप को संभालने के लिए किसी को उन्होंने मौक ही नहीं दिया समय ही नहीं दिया |
जाने वाला तो चला गया खुद को सभी तकलीफों तनावों से आज़ाद कर गया , किंतु जिसे पीछे छोड़ गया है उसके दुख को सहने के लिए जो पहले ही जीवन से निराश हो चला हो उसके बारे में सोच एक चिंता सी होने लगती है | बार बार मन में ख्याल आ रहा है की क्या हालत होगी उनकी क्योंकि जगजीत सिंह की मृत्यु भी आकाल मृत्यु है , जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था उनके लिए एक बड़ा झटका है | बस उम्मीद करती हूँ की आज जो भी उनके आस पास होगा उन्हें अच्छे से हौसला दे रहा होगा इस दुख से उन्हें उबरने में मदद कर रहा होगा उन्हें अच्छे से संभाल रहा होगा |
क्या कहूँ अंशुमाला.जगजीत सिंह जी के जाने का दुःख...
ReplyDeleteपरन्तु सच कहा है तुमने जाने वाला चला जाता है पर वक्त तो रुकता नहीं उसके आसपास के लोगों की जिंदगी तो चलती ही रहती है.बहुत कुछ है कहने को पर फिर कभी.अभी तो मन बहुत व्यथित है.
सही कहा आपने कि - " महिलाएँ अपने दुखों को संजो कर रखती है, क्यों नहीं उसे छोड़ देती है ? "
ReplyDeleteकुछ दुःख अपने - अपने भावनात्मक लगाव की वजह से भी होते हैं. और कई बार कई लोग उसे व्यक्त करने के लिए ऐसे व्यवहारों का सहारा लेते हैं जो औरों के समक्ष भी उनके दुःख की अभिव्यक्ति हो.
जगजीत जी के जाने से मैं भी काफी आहत हूँ. उनसे जुड़े लोगों के दुःख को महसूस करने के लिए एक व्यक्तिगत प्रयास मैं भी कर रहा हूँ अपनी ओर से. काफी कष्ट होता है उससे एक झटके से अलग हो जाना जिससे आप काफी दिल से जुड़े हुए हों.
चित्रा जी के प्रति संवेदना ही प्रकट कर सकता हूँ.
क्या कहूँ मुझे भी कुछ समझ नहीं आरहा है औरों की तरह मेरा मन भी बहुत व्यथित है। मैंने भी इस विषय पर कुछ लिखा है
ReplyDeleteसमय मिले तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com
death comes without any warning but leaves a lot of pain behind
ReplyDeleteअंशुमाला जी,
ReplyDeleteसही लिखा है, आपने...सबको एक ही जिंदगी मिलती है...किसी के जाने पर उसे यूँ गँवा देना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती. कुछ दिनों का दुख समझ में आता है..लेकिन जैसे आप...खाना, पहनना नहीं छोड़ते वैसे ही जिंदगी के अन्य पहलुओं से मुख नहीं मोड़ना चाहिए...बल्कि उसके परिवार वालों को..दोस्तों-सहेलियों को...आस-पास वालों को कोशिश करनी चाहिए कि वह अपनी जिंदगी समेट कर नए सिरे से शुरू करे...कोई हॉबी अपनाए..या फिर पुरानी हॉबी जारी रखते हुए...एक सामान्य जिंदगी गुज़ारे. अक्सर होता ये है कि..लोग क्या कहेंगे...इस संकोच से ही पीड़ित व्यक्ति दुख की चादर अपने ऊपर से नहीं खिसकाता....और लोग भी उसके इस रूप की तारीफ़ करते हैं...जबकि खुद जिंदगी का हर लुत्फ़ उठाते हैं.
जहाँ तक चित्रा सिंह की बात है...जगजीत सिंह ने ही एक इंटरव्यू में कहा था..कि वे पब्लिकली परफॉर्म नहीं करती..पर घर में रियाज़ करती हैं. फिर भी उनके दुख की थाह नहीं ली जा सकती...उनकी बेटी के बच्चे (या एक बेटा या बेटी ) हैं जो अब करीब उन्नीस-बीस साल के होंगे...उम्मीद है वे अपनी नानी के करीब होंगे और उन्हें सहारा दिया होगा.
अंशुमाला जी,
ReplyDeleteआपने सही कहा चित्रा जी के दुख का अंदाजा सचमुच हम नहीं लगा सकते.आम महिलाओं की बात करूँ तो सुना है कि कई महिलाएँ खुद ये प्रार्थना करती रहती है कि पति से पहले उन्हें ही मृत्यु आए.क्योंकि एक तो पति को खोने का दुख ऊपर से वैधव्य को लगभग अभिशाप मानने वाला समाज का रवैया.सजने सँवरने वाली बात पर आपसे सहमत हूँ.और ये सिंदूर वगेरह तो विवाहित को भी तभी लगाना चाहिए जब वो खुद चाहे ताकि ऐसा कोई अंतर कभी हो ही नहीं.
अंशुमाला जी,
ReplyDeleteदुखो की अभिव्यक्ति स्त्री और पुरुष के लिए ही नहीं, स्त्री स्त्री और पुरुष पुरुष के लिए भी भिन्न-भिन्न होती है... पुत्र शोक के बाद जगजीत सिंह ने भी गाना गाना बंद कर दिया था.. और काफी समय के बाद उन्होंने उस दुःख से लड़ने के लिए गाना शुरू किया... जिन्होंने जगजीत सिंह को 'कुर्ती मलमल दी' गाते सुना होगा वो अनुमान लगा सकते हैं कि उनके हाल के गायन में और तब के गानों में कितना कितना अंतर आ गया था. यह सही है कि स्त्री स्वभाव से कोमल होती है, इसलिए अभिव्यक्ति स्पष्ट दिखाई देती है.. जबकि पुरुष को नाटक करना पड़ता है.
चित्रा जी के साथ मेरी संवेदनाएं हैं!! परमात्मा उनको यह पीड़ा सहने की शक्ति दे!!
JAGJIT KA JANA KO LEKAR SB LOG APNI TRAH SA DUKH JTA RHA HAIN...PR YA SAHI HA KE UNKA JANA NA SBSA JYADA AKELA KR DIA HAI CHITRA KO...jindgi unka lia km muskil phla he nhi thi...ab to ya aur pahar jaise ho gayi hai...CHITRA SA JROORI ES SAMVEDNA PR KHAS TAUR PR DHYAN DILANA KA LIA... AABHAR...!
ReplyDeleteजगजीत सिंह जी का यों अचानक चला जाना बहुत लोगों के लिए हृदय विदारक घटना है. शोक-संतप्त परिवार को इस घड़ी में हम दिलाशा के अलावा और दे ही क्या सकते हैं. परमात्मा उन्हें यह दुख सहने की हिम्मत दे.
ReplyDeleteसभी का मन व्यथित है उनके जाने से..... नमन ..श्रद्धांजलि..
ReplyDeleteचित्रा जी की पीड़ा तो सबसे बढ़कर है.... ईश्वर उन्हें शक्ति दे यही प्रार्थना है.....
दुःख दुःख
ReplyDeleteदुःख दुःख...
कई लोगों को विधाता मात्र दुःख सहने के लिए ही पृथ्वी पर भेजता है.
दुखद
ReplyDeleteमैंने चित्रा सिंह की आवाज़ भी बहुत पसंद की है. लेकिन उनके दुखों को भी समझा जा सकता है. काश वे इनसे निजात पाने के लिए संगीत का ही सहारा लें...
ReplyDeleteमैं भी बिल्कुल आप सरीखी स्थिति में था। दिल चाहता था कि वे वापस आयें परंतु ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था आशंका बलवती हो रही थी। काल के आगे किसकी चली है?
ReplyDeleteदुख होना एक अलग बात है लेकिन दुखों को चादर बनाकर ओढे रखना, समझदारी नहीं है। रूढीवादी परिवारों मे तो कुछ बंदिशे समझ भी आती हैं लेकिन शिक्षित और ज्ञानवान परिवारों में ऐसा होना समझ नहीं आता है।
ReplyDeleteआज जब तमाम लोग जगजीत सिंह की स्वर्णिम स्मृतियों को संजोने में लगे हैं,अच्छा हुआ कि आपने एक भिन्न संदर्भ में मामले को देखने की कोशिश की। पूरा प्रसंग बताता है कि हमारी बाहरी दुनिया चाहे जो हो,संवेदना के अनेक स्तरों पर हमारी भीतरी दुनिया एक-सी है। संगीत भी इससे इतर नहीं। रियाज़ का संबंध गले से ज्यादा है,जबकि गायन का हृदय से। दोनों का अपना तारतम्य जुड़ा हो,तभी बात औरों तक पहुंचाई जा सकती है। हृदय अगर पीड़ा से छलनी हो,तो कोई कैसे गाए,क्या गाए!
ReplyDeleteमुझे उस दिन चित्रा सिंह की एक ग़ज़ल याद आ रही थी -
ReplyDelete"तू नहीं तो जिन्दगी में और क्या रह जाएगा
दूर तक तनहईयों का सिलसिला रह जाएगा"
जगजीत बहुत याद आते हैं..:(
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