उसके बाद आया निजी समाचार चैनलों का जमाना और तब तक तो दुनिया से हमारी दूरी लगभग ख़त्म जैसी हो गई, अब ख़बरे सिर्फ देश नहीं देश के बाहर दुनिया हर कोने की जानकारी हम तक आने लगी थी और हम उसे ग्रहण करने के लिए भी तैयार थे हमारी जिज्ञासा और रूचि भी थी उन्हें जानने में और ये इच्छा केवल युवाओं में ही नहीं है | मुझे याद है मदर टेरेसा की पहली पुण्यतिथि थी तो मेरी दादी ने कहा की एक हफ्ते बाद प्रिंसेस डायना की भी पुण्यतिथि आयेगी मुझे आश्चर्य हुआ की मेरी दादी न केवल दोनों लोगो को जान रही है बल्कि एक साल पहले हुए उनकी मृत्यु भी उन्हें याद है , अभी मार्च में कजन की शादी में गई थी हम सभी बारात में मस्त थे और ताऊ चाचा लोगो में किसी और ही बात पर चर्चा चल रही थी तो पता चला की जापान में भूकंप और सुनामी आ गया जैसे जैसे लोग देर से आ रहे थे वो भी चर्चा में शामिल होते जा रहे थे और नई खबरों को उसमे जोड़ते जा रहे थे जो वो टीवी पर देख कर आ रहे थे | मतलब ये की न केवल अब सभी तरह के लोग हर तरह की खबरों से जुड़ना चाह रहे है बल्कि उसको याद भी रखते है और अपडेट भी करते रहते है | लोग ओबामा में रूचि तो लेते है साथ की क्लिंटन की प्रेम कहानियो की भी खबर में भी रूचि लेते है , क्रिकेट के देश में टाइगर वुड्स को जानने वाले भी कम नहीं है और उनके निजी जीवन को रस ले कर जानने वालो की भी कमी नहीं है | हर तरह की जानकारियों की बाढ़ आ रही है | कोई केवल अपनी पसंद की खबरों को देखता है तो कोई हर खबर पर नजर रखता है तो कोई बस सरसरी नजर से ही देख लेता है पर हा देखते सभी है | वजह भी है समय के साथ सब बदल गया , पहले कहा जाता था जिस गांव जाना नहीं उसका रास्ता क्या पूछना अब तो न केवल हर गांव का रास्ता जानने की इच्छा सभी में होती है बल्कि लोग उससे जुड़ी हर खबर तक पहुँचना चाहते है विश्वास न हो तो बताइये कितने लोग रालेगण सिद्धि को लोक पाल आन्दोलन के पहले जानते थे |
ये ख़बरे बस मनोरंजन, ज्ञान और जानकारी भर नहीं है, कई बार तुरंत मिल रही ख़बरे आप को सावधान भी करती है मुझे याद है कुछ साल पहले जब मुंबई में २६ जुलाई को बाढ़ आई थो तो पति और समर ट्रेनिग के लिए दो महीने के लिए आया छोटा भाई दोनों ही आफिस में फंस गए थे तो मैंने उन्हें टीवी पर देख कर बताया की पूरे शहर का कितना बुरा हाल है और वो लोग आफिस में ही रहे बाहर निकालने का प्रयास न करे वो लोग वही ज्यादा सुरक्षित है उसी तरह ज्यादातर ब्लास्ट की खबरे टीवी पर देख तुरंत पतिदेव को सावधान करती हूँ की आते जाते समय संभल कर रहे भले देर से घर आये और कई बार कही दूर घट रही खबर हमारे अगले कदम के लिए हमें सावधान करती है जैसे अभी हाल में ही सिक्किम में आये भूकंप ने मौका दे दिया ये जानने का की पतिदेव को भूकंप के समय क्या करना चाहिए इस बारे में कोई जानकारी नहीं है, उन्हें अच्छे से समझाया की क्या क्या उपाय तुरंत करके हम बचने का प्रयास कर सकते है ( बचे न बचे बाद की बात है बचने का प्रयास कैसे किया जाये ये तो पता ही होना चाहिए ) और दो रातों तक तो मैं खुद रात के कपड़े न पहन कर पूरे कपड़े पहन और सिरहाने एक शॉल रख सोती थी ( ऐसी आपदाओं में व्यक्ति यदि बच जाये तो उसके तन के कपड़े ही उसके पास बचते है और शॉल बेटी के लिए था कही आपदा के बाद मौसम ठंडा हो गया तो ) पहले दिन तो पति देव मेरे डरने पर हँसने लगे जब अगले ही दिन उन्हें पता चला की सिक्किम से चला भूकम्प महाराष्ट्र में भी आ गया तब जा कर मेरे डर को सही समझा | ( सच कहूं तो बच्चे के जीवन में आते ही आप कही ज्यादा सतर्क और हर चीज के प्रति आप जरुरत के ज्यादा सावधान हो जाते है सारी तैयारी इसी डर का नतीजा थी शुक्र है तैयारी को आजमाने की जरुरत अभी तक नहीं पड़ी उम्मीद है की आगे भी न पड़े | )
अब तो ये हाल है की खबरों और खबर पहुँचने वाले चैनलों का स्थान लोकतंत्र में चौथे खम्भे से आगे बढ़ता जा रहा है | अन्ना आन्दोलन उसका प्रत्यक्ष उदाहरन है , फिर जेसिका केस हो या रुचिका केस कितने ही मामलों में मिडिया ने लोकतंत्र के दूसरे खम्बो के सही काम न करने पर उन्हें अपना काम सही से करने के लिए मजबूर किया है | वो चाहे तो मिल कर आप के प्रति हवा बना दे और चाहे तो आप को उठा कर मिट्टी में मिला दे | इसके अपने फायदे भी है और नुकसान भी क्योंकि आज भी लोगो में खबरों को फ़िल्टर करने की आदत नहीं है लोग खबरों को जस का तस स्वीकार कर रहे है बिना अपना दिमाग लगाये और जिसके कारण कई बार इसके नुकसान भी सामने आये है | इसलिए जरूरी ये भी है की जहा इतनी तेजी से ख़बरे आ रही है और हम उसे ग्रहण कर रहे है तो खबरों को जाँचना परखना भी हमें शुरू कर देना चाहिए | प्रायोजित ख़बरे , निजी दुश्मनी के कारण ख़बरे , सरकार के दबाव में दिखाई जा रही ख़बरे , चैनल की अपनी निजी विचारधारा की ख़बरे , और किसी एक राजनीतिक व्यक्ति या उससे जुड़े लोगो द्वारा चलाये जा रहे चैनल की ख़बरे सब तरह की ख़बरे घूम रही है हम सभी को उनमें से हर खबर को फ़िल्टर करके ही अपने दिमाग में संग्रहित करना चाहिए न की जस की तस नहीं तो होगा ये की ये ख़बरे जी का जंजाल बन जाएगी और हमें फायदा पहुचने की जगह हमें नुकसान पहुँचाने लगेगी |
पर टीवी के आने के बाद भी ख़बरे एक तरफ़ा ही थी, यानि हम उन्हें सुन तो रहे थे पर उस पर कोई अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे थे दुनिया भर के लोगो के बारे में जान तो रहे थे किंतु उनसे सीधे जुड़ नहीं रहे थे और तब आया इंटरनेट का जमाना जिसमे सब कुछ दो तरफ़ा कर दिया |
क्रमशः
हम्म...अब लगता है अगली किश्त में हम ब्लॉगरों पर भी चर्चा होगी।
ReplyDelete..बढ़िया आलेख तैयार हो रहा है।
बहुत ही अच्छी लेखमाला चल रही है...
ReplyDeleteटी.वी. तो अब अनिवार्य हो चुका है...अब इन चीज़ों की ऐसी आदत पड़ चुकी है की इसके बिना जीने की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
एक सहेली के पति ताज में शेफ हैं...जब ताज आतंकवादियों के गिरफ्त में था...टी.वी. पर ही उन्हें सुरक्षित बाहर निकलते देख उसकी जान में जान आई...वरना ,वे अपनी सुरक्षित होने की खबर तो काफी देर बाद दे पाए.
बहुत बढ़िया आलेख अब केवल टीवी और मोबाइल ही नहीं इंटरनेट भी एक अहम जरूरत बन चुका है उसके बिना भी अब जीना नामुमकिन सी बात लगती है
ReplyDeleteसमय मिले तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
बढ़िया चल रही है श्रृंखला .टीवी का तो यह हाल है कि आजकल के बच्चे ये सोच भी नहीं पाते कि जब टीवी नहीं था तो लोग जिन्दा कैसे रहते थे :).
ReplyDeleteआपकी लेखमाला के ब्लॉग्स तक पहुँचने का इंतज़ार है :)
यक़ीनन सूचना क्रांति के ये साधन जीवन में भी क्रांति ले आये हैं..... बेहतरीन विश्लेषण किया ....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट लगी आपकी.
ReplyDeleteपिछली भी पढूंगा.
सुन्दर सार्थक जानकारी के लिए आभार.
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
आपने मेरी पोस्टों में रूचि ली,
इसीलिए आपको कहने का साहस हुआ.
समय मिलने पर दर्शन जरूर दीजियेगा.
मुडिया पर तरह तरह के दबाव,विचारधारा या लालच सब हावी है.निष्पक्षता की उम्मीद मीडिया से ज्यादा नहीं की जा सकती.पेड न्यूज का जमाना है.इसके अलावा किसी व्यक्ति,कम्पनी या उसके उत्पाद,सेवाओं या फिर किसी फिल्म या किताब आदि के बारे में झूठी खबरें,शोध,सर्वे,समीक्षाऐं या निष्कर्ष आदि निहीत स्वार्थों के चलते प्रचारित किये जाते है.यहाँ तक कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ वैश्विक दवा कम्पनियों ने दहशत का बाजार मीडिया के जरिये ही खडा किया था.आम आदमी हल्की फुल्कि खबरों के बारे में तो जानता है कि ये पाठक या दर्शकों को आकर्षित करने का तरीका भर है लेकिन गंभीर खबरों के नाम पर क्या खेल खेला जा रहा है उसे नहीं पता.खबरों को फिल्टर करने या बिटवीन द लाईन्स पढने वाली आदत केवल उन लोगों में ही है जो आपकी तरह इसी क्षेत्र से जुडे है और इसकी बारीकियों को जानता है.मेरे एक परीचित जो राजस्थान के एक बडे अखबार में काम करते है उनका तो ये ही कहना है कि कुछ अखबार रीडरशिप सर्वे तक को अपने पक्ष में करने के लिए प्रलोभन देते है.क्या ये सही है
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी फिर पोस्ट कर रहा हूँ यहाँ दिखाई नहीं दे रही-
ReplyDeleteमीडिया पर तरह तरह के दबाव,विचारधारा या लालच सब हावी है.निष्पक्षता की उम्मीद मीडिया से ज्यादा नहीं की जा सकती.पेड न्यूज का हल्ला पहले ही है.इसके अलावा किसी व्यक्ति,कम्पनी या उसके उत्पाद,सेवाओं या फिर किसी फिल्म या किताब आदि के बारे में झूठी खबरें,शोध,सर्वे,समीक्षाऐं या निष्कर्ष आदि निहीत स्वार्थों के चलते प्रचारित किये जाते है.यहाँ तक कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ वैश्विक दवा कम्पनियों ने दहशत का बाजार मीडिया के जरिये ही खडा किया था.आम आदमी हल्की फुल्कि खबरों के बारे में तो जानता है कि ये पाठक या दर्शकों को आकर्षित करने का तरीका भर है लेकिन गंभीर खबरों के नाम पर क्या खेल खेला जा रहा है उसे नहीं पता.खबरों को फिल्टर करने या बिटवीन द लाईन्स पढने वाली आदत केवल उन लोगों में ही है जो आपकी तरह इसी क्षेत्र से जुडे है और इसकी बारीकियों को जानता है.मेरे एक परीचित जो राजस्थान के एक बडे अखबार में काम करते है उनका तो ये ही कहना है कि कुछ अखबार रीडरशिप सर्वे तक को अपने पक्ष में करने के लिए प्रलोभन देते है.क्या ये सही है
राजन जी
ReplyDeleteसबकुछ होता है , अखबारों के पाठको की संख्या बढ़ चढ़ा कर बताना भी आम है , कई बार तो आम आदमी की खबरों को भी बढ़ा चढ़ा कर या फिर टेबल पर बैठे बैठे बना दिया जाता है |
सच है सूचना का केन्द्र हमारा मस्तिष्क हो गया है लेकिन याददास्त भी छोटी होती जा रही है। इतनी तेजी से समाचार बदलते हैं कि पुराना शीघ्र ही भुला दिया जाता है। अच्छी श्रंखला चल रही है।
ReplyDeleteटी वी एक जरुरत सा हो गया है , लेकिन कई बार बुरे समाचारों का दुहराव मानसिक दबाव भी डालता है!
ReplyDeleteरोचक श्रृंखला!
अक्षरश: सही कहा है आपने ... अब इनका उपयोग जीवन की आम आवश्यकताओं की तरह हो गया है ..बेहतरीन आलेख ..।
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक जानकारी के लिए आभार|
ReplyDeleteबात आपकी सही है. घरों में टीवी ऐसा होगया है जैसे हम यंत्रवत से खाना खा लेते हैं और पता भी नही चलता. जैसे खाना एक अनिवार्य आवश्यकता है वैसे ही टीवी भी एक अनिवार्य आवश्यकता हो गया है.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत अच्छा विश्लेषण है आपका।
ReplyDeleteसमाचार-पत्र के जमाने से बात शुरू करें तो नब्बे के दशक में मेरी पोस्टिंग एक ऐसी जगह थी, जहाँ ’जनसत्ता’ एक दिन देर से पहुँचती थी और दूसरी अखबारें पढ़ चुकने के बाद वो एक दिन की देरी बर्दाश्त करना फ़िर भी सही लगता था। लेकिन मार्केटिंग का युग है, अधिकतर लोग विश्वसनीयता की बजाय चटपटी चीजों को ज्यादा पसंद करते हैं और देखते देखते कई अच्छे अखबार और पत्रिकायें डायनासोर की तरह विलुप्त हो गईं या होने के कगार पर हैं।
टी.वी. मैं बहुत कम देखता हूँ और इसकी कोई कमी भी महसूस नहीं होती। हर कार्यक्रम की तरह लगभग सभी समाचार भी प्रायोजित ही दिखते हैं। लीजिये, मैं तो अपनी ही कहानी ले बैठा, लेकिन आपका संदेश स्पष्ट है - आँख मूंदकर किसी की बात पर यकीन करने की बजाय हो सके तो फ़िल्टर का इस्तेमाल करना चाहिये।
परस्पर संवाद ही इंटरनेट का सबसे बड़ा हानि\लाभ है।
बधाई स्वीकार करें,
एक बहुत अच्छी शृँखला के लिये..
बढिया विश्लेषण।
ReplyDeleteये अलग बात है कि मौजूदा समय में टीआरपी के चक्कर में न्यूज चैनल बेसिरपैर की खबरों और किसी एक खबर के पीछे लगे रहते हैं... पर यदि हम चुनना चाहें तो अच्छी चीजें चुन सकते हैं.... बेहतर को देख सकते हैं और जानकारी को ग्रहण कर सकते हैं....
मेरे ब्लॉग पर आप आयीं,इसे लिए बहुत बहुत आभारी हूँ आपका.
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी में जो आपकी दीन दुखी जन के प्रति सहृदयता
और सहानभूति प्रकट होती है,उससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ.
ईश्वर के प्रति भिन्न विचार हों सकते हैं हर किसी के.
मेरे विचार आप मेरी पोस्टों को पढकर जान सकतीं हैं.
मिथ्याचार के मैं हर प्रकार से विरुद्ध हूँ.
मौका मिले तो मेरी पोस्ट 'ऐसी वाणी बोलिए',
'वन्दे वाणी विनयाकौ' भी पढियेगा,जिनकी पोडकास्ट
अर्चना चाओ जी ने अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत की है.