अक्सर लोग कहते है कि भारत मे रेप के ज्यादातर मामले झूठे होते है क्योकि ऐसे ज्यादातर मामले कोर्ट मे साबित नही हो पाते । कितना अजीब है कि जो बात कोर्ट मे साबित ना हो पाये उसे झूठा बता दिया जाता है । कोर्ट मे रेप के मामले को पुलिस और वकील को साबित करना होता है वो यदि इरादतन या गैर इरादतन इसे सच ना साबित कर पाये तो पीड़ित झूठा हो जाता है । जबकि हमे मालूम है कि समाज , पुलिस आदि का कैसा दबाव पीडित पर होता है । अपराधी रसूखदार हो तो समझिये पीड़ित का कुछ भी साबित कर पाना अपने कानून के सामने असंभव हो जाता है ।
ऐसे ही तहलका के मालिक तरुण तेजपाल जब रेप के आरोप से बरी हुए थे तो समाज से कोई पर प्रतिक्रिया नही आयी । मुझे लगा था कोई बड़ा नहीं तो एक छोटा सा तहलका समाज में इस बात पर तो अवश्य होगा कि जो तरुण तेजपाल अपने ही ऑफिस के अंदुरुनी जाँच में रेप ( भारत के नए कानून के हिसाब से वो रेप था ) के अपराधी साबित हुए थे और उन्हें सजा भी सुनाई गयी थी | वो भारतीय न्याय व्यवस्था से बाइज्जत बरी हो गए , लेकिन हर बात में शोर मचाने वाला सोशल मिडिया में कोई हलचल नहीं हुयी |
कितने आश्चर्य की बात हैं ना कि अपराधी तेजपाल के मातहत काम करने वाली महिला ने ही जाँच किया था और अपराधी ने मेल पर अपना अपराध भी स्वीकार भी किया था | अपराध साबित होने उसे स्वीकार करने पर सजा के तौर पर उन्हें छः महीने अपने ही मालिकाना हक वाले ऑफिस से दूर रहना था | उस अपराध को हमारी पुलिस कोर्ट में साबित ही नहीं कर पायी | वो सबूतों के अभाव में संदेह का लाभ पाते हुए आरोपों से मुक्त नहीं हुए बल्कि इज्जत के साथ बरी हुए हैं |
हमारे पुलिसियां जाँच और न्याय व्यवस्था का ये हाल तब हैं जब तेजपाल खुद स्वीकार कर रहें थे कि उन्हें परिस्थितियों को समझने में गलती हुयी अर्थात वो ये नहीं समझ पाए की लड़की तैयार नहीं हैं और अपने तरफ से आगे बढ़ गए | रेप, यौन हिंसा दोनों का मामला था लेकिन पुलिस एक को भी साबित नहीं कर पायी |
कविता कृष्णनन ने तब इस मामले पर कहा था | बिना शिकायतकर्ता की सहमति के, न्याय के नाम पर उसके ई-मेल्स छापना या होटल का सीसीटीवी फ़ुटेज दिखाना, उसकी मदद करना नहीं बल्कि उससे उसकी मर्ज़ी छीनना है.| जहाँ तक मुझे याद हैं लड़की ने कोई शिकायत पुलिस में की ही नहीं थी | ये मेल्स उसके ही साथियों ने बाहर ना लाया होता तो ये मामला कभी बाहर ही नहीं आता | इन मेल को स्वतः संज्ञान में लेकर गोवा पुलिस ने खुद मामला दर्ज किया था पहले |
ये बयान उन घटनाओं का समर्थन करता हैं जिनमें पीड़ित को डरा धमाका कर चुप करा दिया जाता हैं या वो खुद समाज के डर से सामने नहीं आती हैं , या पंचायत में शिकायत करने पर अपराधी को बस चार जूते मारने की सजा दे दी जाती हैं या बल्तकारी से ही पीड़ित की शादी कर दी जाती हैं | अब बोलिये इन सब मामलों में की भाई किसी की निजिता उलंघन मत कीजिये , उसकी मर्जी नहीं हैं पुलिस में जाने की तो आप काहे दरोगा बन रहें | उसकी मर्जी हैं अपराधी से शादी करने की तो आप काहें रोक रहें हैं | इस मामले में भी साफ़ दिख रहा हैं लड़की न्याय तो चाहती हैं लेकिन तेजपाल के रसूख और उसके बल पर खुद के कैरियर और जीवन के ख़राब होने से बुरी तरह से डरी हुयी हैं |
2013 में जब ये मामला सामने आया था तब कुछ लोगों ने कहा तेजपाल का कैरियर ख़त्म हो गया अब उन्हें वो इज्जत सम्मान नहीं मिलेगा | मैंने तभी कहा था ये सोचना मूर्खतापूर्ण बात हैं | जिस समाज और विचारधारा से वो आतें हैं उसमे बहुत सारे लोग फ्री सेक्स अर्थात जिसको जिससे जब मर्जी हो सेक्स करे नैतिकता का कोई मोल नहीं हैं की सोच रखते हैं | उनके लिए वास्तव में ये सिर्फ तेजपाल का परिस्थितियों का एक गलत आंकलन भर हैं | जैसे लडके ने लड़की को प्रपोज किया और लड़की ने मना कर दिया , बस इतना ही | कुछ के लिए तो तेजपाल अनाड़ी होंगे जो लड़की को बाटली में उतारने से पहले ही उतावले हो गए |
बाकी उसके नीचे वाला समाज जो उनकी ही विचारधारा का हैं वो घटना के समय ही बोल चुका हैं लड़की लिफ्ट में अकेले अपने बॉस के साथ गयी ही क्यों | सत्ता के खिलाफ लिखने पर यही होता हैं | लड़की तभी क्यों नहीं गयी पुलिस में अब क्यों बोल रही हैं | लड़की बोल ही नहीं रही कुछ ये जबरन काजी बन रहें हैं | गोवा की बीजेपी सरकार फर्जी मामले में फंसा रही हैं क्योकि तेजपाल ने उनके खिलाफ स्टिंग किया था |
तेजपाल के पक्ष मे फैसला आने पर उनके समर्थक उनके समर्थन मे खड़े थे , ये सब कहते कि अगर आप सत्ता के खिलाफ लिख रहें हैं तो तीन मिनट के लिए भी किसी महिला के साथ लिफ्ट में अकेले मत जाइये | भाई बलात्कार तो नहीं था भले और कुछ भी था | ये सब तब बोला जा रहा हैं जब अपराधी पीड़ित और जाँच कर्ता के सारे मेल सार्वजनिक पटल पर थे | ना होता तो सोचिये पीड़ित को समाज कैसे अपराधी बना सूली पर लटका देता |
उनके बरी होने के बाद भी हमारी फेमिनिस्ट कहाँ थी वो क्यों चुप थी | असल में वो ऐसे फालतू के मसले में कुछ बोलने की जगह वो बहुत जरुरी काम मे लगी थी | वो कक्षा एक की किताब में छपी एक कविता में लैंगिग समानता खोज रही थी | देखिये आप समझिये , समाज हमारा चाहे जैसा भी हो , वहां पढ़ा लिखा डिग्रीधारी कैसा भी व्यवहार करे महिलाओ के साथ लेकिन जरुरी ये हैं कि हमारी किताबे आदर्शवादी हो | समाज में लैंगिग समानता हो या ना हो लेकिन किताबो में तो होना ही चाहिए |
बहुत बढ़िया विश्लेषण
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