June 10, 2022

लाइफ के स्यापास

कोई दस ग्यारह बरस की रही होंगी मैं , बिलकुल सुबह का समय था और हल्की हल्की  ठंड पड़ना शुरू हो गयी थी | समझिये इतनी  ठंड की पानी करंट मारना शुरू कर चूका था ,  हाफ स्वेटर के बिना काम ना चलने वाला था और रजाईयां ओढ़ी  जाने लगी थी |  


एक सुबह मम्मी रजाई खींच मुझे आवाज दिया कि जल्दी से जा कर ब्रेड ले कर आओ पापा को जाना हैं | वो  समय पापा के काम का सीजन होता और वो सुबह सात आठ तक निकल जाते ,  नाश्ता मिले ना मिले उसकी कोई चिंता नहीं | इसलिए अपने चार भाई बहनो में सबसे बड़ी मुझे पता था उठ कर तो तुरंत मुझे जाना ही हैं | 


दूकान घर के ठीक सामने था |  हमारा घर फिर बाद में दो ढाई फिट की गली और फिर दूकान |  मम्मी लोग तो अपने चबूतरे से ही सामान ले लेती थी लेकिन हम बच्चो को गेट से बाहर निकल दूकान तक जाना होता था | मतलब बस ब्रश करके चले जाना था सो  ब्रश किया लेकिन पानी करंट  मारने लगा था तो बस  गीले अँगुलियों से  आँखे साफ़ कर लिया गया और चेहरे के बाकी हिस्सों को करंट से बचा लिया गया | 

गर्दन से ऊपर के घुंघराले बालों को झाड़ना ना झाड़ना बराबर था और सच कहा जाए तो उस समय हम सब बाहर जाते समय कैसे दिख रहें हैं कि कोई चिंता भी नहीं करते थे  सो बाल झाड़े भी नहीं गए | नाइट सूट लग्जरी , फ़िल्मी फैशन से ज्यादा जीवन में अहमियत नहीं रखता था | जिन कपड़ों को नहाने के बाद पहने होते उसी में सो जाते और सुबह उठ कर बाहर सामान लेने भी | 


बाहर निकली तो देखा सामने वाली दूकान बंद हैं |  ठंड शुरू होते दुकाने देर से खुलने लगी थी | तो सोचा सड़क तक चले जाते हैं ब्रेड चाय वाली दुकाने वहां तो खुल ही जाती हैं | सड़क चार मकानों बाद ही था इतनी सुबह गली में कोई था भी नहीं | गली की नुक्कड़ पर एक सब्जी वाला दूकान लगाता था उस समय वो दूकान लगा रहा था | उसकी नजर मुझसे मिली और उसने एक हास्य व्यंग्यात्मक टाइप मुस्कान मेरी तरफ फेंकी | 


उसका वो मुस्कुराना था कि मेरे चेहरे का रंग उड़ गया , मतलब काटो तो खून नहीं समझिये होश फाख्ता वख्ता जैसा कुछ होता हैं वो हो गया हमारा | क्योकि हमें याद आया कि पिछली रात हम भाई बहन जब खेल रहें थे तब मैंने  काले स्केच पेन से अपने चेहरे पर  मूँछे बनायीं थी | सुबह ब्रश करते समय मैंने तो बस आँखे धुली थी चेहरा नहीं तो  मूँछे अब भी मेरे नाक के नीचे विराजमान  होगा स्यापा  | 


गुस्सा आया कि जैसे हर बार मम्मी का साल ओढ़ कर निकल जाती थी आज वो क्यों नहीं किया | साल होता तो उससे आराम से छुपा लेती अपनी  मूँछे   बेकार में स्वेटर डाला | घर जा कर वापस आने का समय नहीं था पापा निकल जायेंगे तो मम्मी से डांट अलग पड़ेगी | 


फिर हमने एक  हथेलियों का मुठ्ठी बनाया और उसे नाक के नीचे ऐसे रखा जैसे बहुत ठण्ड लगने पर हम करते हैं | साथ में शुक्र भी मनाया कि रात में रामलीला नहीं खेल रही थी वरना दोनों गालों तक गया रावणी मूँछ मेरे दोनों हाथे से भी ना छुपता और तब सब्जीवाला मुस्कराने के बजाये ठहाके मारता  | मैंने छोटा सा हिटलरी मतलब चार्ली चैपलिन वाला मूँछ बनाया था जो एक मुठ्ठी से छुप गया | 


मुंह छुपाते ब्रेड  ला कर मम्मी को देते गुस्सा किया तुमने बताया क्यों नहीं मुझे कि मेरे चेहरे पर मूँछे हैं | मम्मी हँसते बोली हम तो जगा कर तुमको चले आयें तुमको देखे ही कहाँ |  लेकिन हफ्ता दो हफ्ता हम उस गली से सड़क पर गए नहीं  ताकि सब्जीवाले से  सामना ना हो | 



1 comment:

  1. मज़ेदार संस्मरण । आज कल तो छोटे छोटे बच्चे भी घर से निकलने से पहले खुद को देख लेते हैं कि कैसे लग रहे हैं । 😊😊

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